धर्मसुधार क्यों अभी भी महत्व रखता है?
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17 जनवरी 2023प्रोटेस्टेन्ट विश्वास वचन और अंगीकार वचन
धर्मसुधार आंदोलन विश्वास के आधारभूत तथ्यों पर एक संघर्ष था। सर्वप्रथम लूथर के साथ, और फिर अन्य प्रोटेस्टेन्ट परम्पराओं के साथ, धर्मसुधारकों ने रोमी कैथोलिक शिक्षाओं और पोप सम्बन्धी आधिकारिक शासन के ऊपर बाइबलीय विश्वास को रखा। बाइबल को सिद्धान्त के एकमात्र स्रोत के रूप में इन्गित करते हुए, प्रोस्टेन्ट लोगों को फिर भी बाइबलीय शिक्षा की अपनी समझ को स्पष्ट करना पड़ा। इस अर्थ में, धर्मसुधार आंदोलन के अंगीकार वचन बाइबल के प्रति प्रोटेस्टेन्ट समर्पण का एक स्वाभाविक विकास था।
प्रोटेस्टेन्ट लोगों ने अंगीकार वचनों की आवश्यकता का अविष्कार नहीं किया। शताब्दियों से, कलीसिया ने सदैव भ्रम या संकट के मध्य विश्वास का अंगीकार किया है। विश्वास वचन या अंगीकार वचन की भूमिका कभी भी पवित्रशास्त्र का स्थान लेने की नहीं थी, परन्तु त्रुटि के विपरीत पवित्रशास्त्र में सत्य के लिए कलीसिया की साक्षी को सारांशित करने के लिए थी।
इस बात का सबसे प्रमुख उदाहरण ऐतिहासिक विश्वास वचन हैं-जैसे कि नीकिया (Nicene) और चाल्सीदोन (Chalcedonian) के विश्वास वचन-जो तीसरी और पाँचवी शताब्दी के मध्य लिखे गए। ये विश्वास वचन, प्रोटेस्टेन्ट अंगीकार वचन के समान उसी आवश्यकता से विकसित हुए-अर्थात्, यह स्पष्ट करने की आवश्यकता कि सैद्धान्तिक विषयों पर कलीसिया किन आधारभूत तथ्यों को मानती है।
यद्यपि, प्रोटेस्टेन्ट अंगीकार के साथ जो भिन्न है, वह है धर्मसुधारकों की ओर से सम्पूर्ण रूप से धर्मसुधार की इच्छा। धर्मसुधार आंदोलन की समस्याएँ केवल एक सिद्धान्त-या सिद्धान्तों के एक समूह-पर केवल विवाद की नहीं थी, परन्तु कलीसिया को पूरी तरह से धर्मसुधार की आवश्यकता के भरोसे पर थी। कुछ सिद्धान्तों, जैसे त्रिएकता, को बाइबलीय रूप में बनाए रखा गया था, जबकि अन्य सिद्धान्तों, जैसे केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण, को सावधानीपूर्वक स्पष्ट रूप से कहने की आवश्यकता थी। कलीसियाओं की अपनी परम्पराओं के कारण, प्रोटेस्टेन्ट अगुवों ने केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण जैसे सिद्धान्तों की स्वीकृति या पोप सम्बन्धी आधिकारिक शासन की अस्वीकृति के पीछे की सोच को साधारण बोलचाल की भाषा में लिखने का प्रयास किया।
तो, इस अर्थ में, प्रोटेस्टेन्ट अंगीकार वचन आरम्भिक विश्वास वचन के समान हैं, केवल इसके कि उनके केन्द्र की गहराई अधिक विस्तृत है। विश्वास वचन के समान ही, वे पवित्र शास्त्र को प्रतिस्थापित नहीं करते, और न ही उन्हें पवित्रशास्त्र के समकक्ष रखा जाता है। वरन्, वे उन बातों की अभिव्यक्ति है जो प्रोटेस्टेन्ट लोग पवित्रशास्त्र में पाते हैं।
लूथरवादी अंगीकार वचन
प्रोटेस्टेन्टवाद के इस प्रवृति का प्रथम उदाहरण लूथर के आरम्भिक धर्मसुधार आंदोलन के समय मिलता है। 1517 से 1519 तक केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण के प्रति संघर्ष करने, और वर्म्स की धारा-सभा (1521) में नियमविरोधी और विधर्मी घोषित होने के पश्चात्, लूथर अपने सन्देश की मूल बातों को अंगीकारिये अभिलेखों के एक संग्रह में लिखने का कार्य तुरन्त करने लगे। उनमें दो कलीसिया के लिए थे और एक लूथर के सन्देश का सार्वजनिक बचाव था।
प्रथम दोनो स्थितियों में, लूथर ने 1529 में वृहद् और लघु प्रशनोत्तरी लिखी, पहली व्यस्क शिष्यों और पादरी वर्ग को और दूसरी बच्चों और नए परिवर्तित लोगों को प्रशिक्षण देने के लिए। उन्होंने अंगीकार वचनों की आवश्यकता को सही ठहराने के लिए उसी वर्ष अंगीकार के लिए उपदेश (एक्सहॉर्टेशन टू कंफेशन) भी लिखा। लूथर ने तर्क दिया, यद्यपि कलीसिया केवल पवित्रशास्त्र पर स्थिर है, सामूहिक अंगीकार वचनों की आवश्यकता महत्वपूर्ण है।
ये आरम्भिक प्रश्नोत्तरीयां अंगीकार वचन की परिभाषित विशेषताओं में से एक का संकेत देते हैं : ये शिष्यता के उपकरण हैं, कलीसिया के जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं।
तीसरा अंगीकार वचन प्रसिद्ध ऑग्सबर्ग का अंगीकार वचन (1530) था, लूथर और फिलिप मेलनच्थन द्वारा तैयार किया गया था, यह कलीसिया के लिए सामूहिक अंगीकार के उद्देश्य से नहीं, परन्तु सम्राट चार्ल्स V और यूरोप के राजकुमारों के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए था। यह लूथरवादी सन्देश का एक आपत्तिखण्डनशास्त्र (apologetic) था,जो इसके स्वर, या कम से कम इसके निहितार्थ में समय-समय पर प्रतिविरोधात्मक था। जर्मन कैथोलिक द्वारा लूथर के विरुद्ध लगाए आरोपों के विरुद्ध वो क्या विश्वास करते थे यह उस बात को स्पष्ट करता है।
लूथरवादी प्रश्नोत्तरी और अंगीकार वचन, फिर, अंगीकार वचनों की रीतियों का एक लघु रूप तैयार करते हैं जिसका धर्मसुधार युग में उपयोग हो रहा था: एक कलीसिया के जीवन के लिए, दूसरा प्रोटेस्टेन्ट शास्त्रसम्मतता के विषय में अवैध दावों के विरुद्ध सार्वजनिक वाद-विवाद के लिए; एक कलीसिया में सभी विश्वासियों के लिए, दूसरा उसके अगुवों के लिए यह स्पष्ट करने के लिए कि किसी शिक्षा को शासत्रसम्मत शिक्षा होने के लिए वे क्या मानते हैं।
धर्मसुधारवादी अंगीकार वचनों का प्रचुर संख्या में बढ़ना
धर्मसुधारवादी परम्परा समान रूप से अंगीकार वचनों के हेतु प्रतिबद्ध थी। हम कितना वृहद रूप से इस पर सोचते हैं, इस [आर निर्भर करते हुए, 1520 और 1650 के मध्य लगभग चालीस से पचास धर्मसुधारवादी (या धर्मसुधारवाद प्रभावित) अंगीकार वचन लिखे गए थे-जो अब तक किसी भी प्रोटेस्टेन्ट परम्परा मे से अधिक हैं। 1523 में, जैसे ही धर्मसुधारवादी परम्परा आरम्भ हुई तुरन्त, हल्ड्रिच ज़्विगली ने ज्यूरिख में दांव पर लगे बिंदुओं को स्पष्ट करने के लिए सरसठ लेखों को तैयार किया। इसके पश्चात् बर्न के दस शोध विषय (Ten Theses of Berne, 1528), बेसल का पहला अंगीकार वचन ( the First Confession of Basel, 1534 ), और कई अन्य भी आए क्योंकि नगरों ने धर्मसुधारवादी दृष्टिकोण को अपनाना आरम्भ कर दिया था। अन्य लोगों ने दूसरे देशों में, फ्रांस के विश्वाश के अंगीकार वचन (French Confession of Faith, 1559) और स्कॉटलैंड के अंगीकार वचन (Scots Confession, 1560) को अनुसरण किया।
कई सारे धर्मसुधारवादी अंगीकार वचनों का विचार उनके संदर्भों के परिणामस्वरूप आता है। धर्मसुधारवादी विश्वास की सदैव से भाईयों के समूह द्वारा अगुवाई की गयी थी (इस आधुनिक धारणा के विपरीत कि जॉन केल्विन ने अकेले शास्त्रसम्मत धर्मसुधारवाद की रचना की है)। परन्तु धर्मसुधारवादी परम्परा कई नगरों और राष्ट्रों में लगभग एक बार उत्पन्न हुई थी। 1520 के पश्चात, एक के पीछे एक नगरों में धर्मसुधारवाद को अपनाया, प्रायः धीरे-धीरे, और कुछ नगरों ने तो जिनेवा मे धर्मसुधारआने से पहले ही अपनाया । इसलिए, धर्मसुधारवादी अंगीकार वचनों के मूल अभिलेखों को आकार देने के लिए लूथर ने अकेले ही कार्य नहीं किया था।
परिणामस्वरूप, एक के बाद एक कलीसिया, एक के बाद एक समुदाय ने अपनी ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा अंगीकार वचनों को अपनी कलीसिया के लिए संहिताबद्ध करने के लिए बिताया। यही कारण है कि अधिकांश धर्मसुधारवादी अंगीकार वचनों को अपने मूल नगर के नाम द्वारा पहचाना जाता है: यह अंगीकार इस नगर, इस कलीसिया के लिए था, सभी धर्मसुधारवादी कलीसियाओं के रूप में स्वीकार करने के लिए नहीं।
फिर भी, जैसा कि इतिहासकारों और ईश्वरविज्ञानियों ने इन्गित किया है, इन धर्मसुधारवादी अंगीकार वचनों में एक सामान्जस्य है जो उनके विविध स्वरों को एकल धर्मसुधारवादी स्वर में एकजुट करता है। उनके अन्तर इतने बड़े नहीं हैं कि हम उद्धार, आराधना, और कार्य प्रणाली के विषय उनकी एकता को नहीं देख सकें। आज, अधिकांश कलीसियाएँ आधारभूत समतुल्यता को एकता के तीन प्रारूप (Three Forms of Unity) के रूप में पहचानती हैं-बेलजिक अंगीकार वचन, डॉर्ट के ग्रन्थसंग्रह (the Canons of Dort), और हीडलबर्ग प्रश्नोत्तरी- लेखकत्व की एकता नहीं परन्तु धर्मसुधारवादी सिद्धान्तों की साक्षी की एकता।
इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि सभी धर्मसुधारवादी अंगीकार वचन एक जैसे हैं। जब धर्मसुधारवादी विश्वास स्विट्ज़रलैण्ड के प्रान्तों (Swiss cantons) से जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैन्ड, और फिर इंगलैण्ड और स्कॉटलैण्ड तक फैला, वहाँ प्रभाव या लागूकरण मे ध्यान देने योग्य अन्तर थे। इन अंगीकार की समरूपताओं ने प्रारम्भिक चरणों का निर्माण किया जिसने धर्मसुधारवादी मतसम्बन्धों और समुदायों की विविधता को ऊँचा उठाया जैसा कि आज हम जानते हैं।
प्रतिवादी और डॉर्ट
नीदरलैन्ड में, उदाहरण के लिए, धर्मसुधारवादी कलीसियाओं के भीतर अरमिनियसवाद (Arminianism) के उदय ने डॉर्ट की धर्मसभा (Synod of Dort) (1618-19) का सन्दर्भ प्रदान किया, जो जेकब अर्मिनियस की चुनौतियों के लिए धर्मसुधारवादी सिद्धान्तों का एक अनूठा लागूकरण है। केल्विन के उत्तराधिकारी, थियोडोर बेज़ा, की अधीनता में जिनेवा में अध्ययन करने के पश्चात्, अर्मिनियस एक पास्टर के रूप में सेवा करने के लिए नीदरलैन्ड लौट गए (एक बड़ी विडम्बना यह है कि बेज़ा ने अर्मिनियस के लिए जब वो घर लौट गए थे एक अनुरोध का पत्र लिखा।) अर्निमियस को, यद्यपि, धर्मसुधारवादी विद्यानुरागवाद (scholasticism) और पूर्वनिर्धारण (predestination) और अनुग्रह पर उसकी शिक्षाओं पर अत्याधिक सन्देह था। समय के साथ, उनकी शिक्षाएँ केल्विनवादी संस्थापन के विरुद्ध कई अन्य अगुवों का नारा बन गयीं।
1609 में अर्मिनियस की मृत्यु के पश्चात्, आर्मिनियस मत-जिसे प्रतिवादी विश्वास के नाम से भी जाना जाता है-शीघ्र ही पाँच-बिन्दु संहिताबद्ध किए जिन्हें नीदरलैन्ड के स्पैन द्वारा नियंत्रित कैथोलिक क्षेत्रों से पृथक होने के लिए डच युद्ध के अगुवों को प्रस्तुत किया। इसके प्रत्युत्तर में डॉर्ट की धर्मसभा मिली और पाँचो बिंदुओं को अस्वीकृत कर दिया। इस प्रकार तथाकथित कैल्विनवाद के पाँच बिन्दुओं की उत्पत्ति हुई, यद्यपि धर्मसभा का अभिप्राय विश्वास को पाँच बिंदुओं तक सीमिति करना नहीं था, परन्तु केवल अरमिनियसवाद के पाँच बिन्दुओं का उत्तर देना था।
सत्रहवीं शताब्दी में आगे बढ़ते हुए, हम धर्मसुधारवादी सिद्धान्तों की यही व्यक्तिगत अभिव्यक्ति लंदन का विश्वास के अंगीकार वचन (London Baptist Confession of Faith, 1689) में देखते हैं। शुद्धतावादी (Puritan) बपतिस्मावादी (Baptist)-या प्रारम्भिक बपतिस्मावादी (Primitive Baptist)-के आरंभ के रूप में, यह अंगीकार वचन उन धर्मसुधारवादी सिद्धान्त के प्रति समर्पित लोगों के द्वारा लिखी गयी जो कलिसिया नीति और शिशु बपतिस्मे (paedobaptism) की अस्वीकृति के सम्बन्ध में प्रेस्बिटेरियन, एंग्लिकाईयों, और डच केल्विनवादियों से भिन्न थे। यह अंगीकार वचन इंग्लैण्ड में उभरी बपतिस्मावादी लोगों की पीढ़ियों का परमोत्कर्ष था और शताब्दियों के लिए धर्मसुधारवादी बपतिस्मावादी दृष्टिकोण को परिभाषित करने वाला था।
वेस्टमिन्स्टर मानक
अंगीकार वचनों के उच्चतम चिन्ह, यद्यपि, वेस्टमिन्स्टर मानक थें, जिसमें वेस्टमिन्स्टर का विश्वास के अंगीकार वचन (Westminster Confession of Faith), वृहद् और लघु प्रश्नोत्तरी (Larger and Shorter Catechism), सार्वजनिक आराधना की निर्देशिका, और कलीसिया शासन का स्वरूप सम्मिलित है। यह अंगीकार वचन धर्मसुधारवादी शास्रसम्मतता की नयी अभिव्यक्ति के रूप में कार्य करता है, जबकि दोनों प्रश्नोत्तरी पादरी वर्ग या व्यस्कों (वृहद् धर्मप्रश्नोत्तरी) और बच्चों (लघु धर्मप्रश्नोत्तरी) दोनों को एक नियमावली प्रदान करने की लूथर के समर्पण का अनुकरण करती हैं। लम्बाई और गहराई के सम्बन्ध में, कोई भी धर्मसुधार आंदोलन या धर्मसुधार आंदोलन-पश्चात् के अंगीकार वचन वेस्टमिन्स्टर सभा के प्रतिद्वंदी नहीं है। इसका इतिहास, यद्यपि, इंग्लैंड की कलीसिया के भीतर शुद्धतावाद (Puritanism) पर संघर्ष से आता है।
हेनरी VIII (r. 1509–47) के समय से, इंग्लैंड की कलीसिया ने केवल एक आवश्यक अंगीकार को स्वीकार किया था-पहले बयालीस लेख (1552), जिन्हें बाद में उनतालीस लेखों (1563) तक ला दिया गया। यद्यपि ये लेख ईश्वरविज्ञान में पूर्णतः प्रोटेस्टेन्ट थे, परन्तु वे आराधना के सिद्धान्तों के प्रति कलीसिया के समर्पण को स्पष्ट नहीं करते थे और कलीसियाई अगुवाई संरचना या प्रभु भोज में ख्रीष्ट की उपस्थिति जैसे विवादास्पद सिद्धान्तों पर कोई स्थिति स्पष्ट रूप से उल्लेखित नहीं करते थे। इंग्लैंड की कलीसिया में अधिक विस्तृत अंगीकार वचन लिखने की असफलता का कारण हिचकिचाहट नहीं परन्तु हेनरी की दो संतानों, एडवर्ड VI और मैरी I की अधीनता में प्रोटेस्टेन्ट और कैथोलिक राजनिष्ठा के मध्य हिंसक अस्थिरता द्वारा सृजी अयोग्यता थी। सोलहवीं शताब्दी के अधिकांश समय में, एंग्लिकाई कलीसिया के पास एक लम्बा, एकीकृत अंगीकार लिखने की अनुमति नहीं थी।
एलिज़ाबेथ I के समय तक, इंग्लैंड में कुछ लोगों ने सीमित अंगीकार की आरम्भिक आवश्यकता को एक विशेषता माना। लघु अंगीकार सम्भवतः सैद्धान्तिक झगड़ों जो कि उभर रहें थे को कम कर सकते थे, उदाहरण के लिए, यूरोप में धर्मसुधारवादी और लूथरवादी अगुवे के मध्य में। मैथ्यू पार्कर जैसे बिशपों ने-यद्यपि वे धर्मसुधारवादी विश्वास के प्रति समर्पित थे-इंग्लैंड की कलीसिया की आराधना, पहनावे, सिद्धान्त, और अन्य आराधना सम्बन्धी कार्यप्रणाली पर इसकी स्थिति बदलने की बढ़ते स्वर पर चिन्ता व्यक्त करना आरम्भ कर दिया।
इस तनाव के परिणाम ने शुद्धतावाद (Puritanism) को उकसाया, पहले एलिज़ाबेथ की अधीनता में और फिर वृद्धि के साथ जेम्स I की अधीनता में। स्पष्ट रूप से परिभाषित आंदोलन के स्थान पर धर्मसुधार को अअगए बढ़ते रहने के आवेग को यह नाम दिया गया। फिर भी सभी शुद्धतावादियों ने इंग्लैंड की कलीसिया के धर्मसुधार पर बिशपों और राजनैतिक अगुवों के संकोच पर निराशा दिखाई।
चार्ल्स I का समय आने तक, स्थिति बहुत भयंकर हो गई थी। एलिज़ाबेथ और जेम्स के अधीनता में, शुद्धतावादियों की अवस्था प्रायः यह थी कि उनकी उपेक्षा की जाती थी, यद्यपि उन्हें सताया कदाचित् ही गया हो। चार्ल्स ने, यद्यपि,शुद्धतावादियों के विरुद्ध अधिक आक्रमक व्यवहार अपनाया। अन्त में, संसद और राजा के मध्य विवाद अंग्रेजी गृह युद्ध (16432-51) में बढ़ गया।
ऑलिवर क्रोमवेल-जिनकी प्रतिमा आज भी संसद के सामने खड़ी है उनके वीर प्रयासों की अगुवाई में, शुद्धतावादी लोग विवाद जीत गए। युद्ध के समय, संसद में शुद्धतावादी अगुवों (और कुछ स्कॉटलैन्ड के सलाहकारों) को एक सभा बुलाने का आदेश दिया उन उनतालीस लेखों को एक पूर्ण अंगीकार वचन में विस्तारित करने के लिए जो यूरोप के अन्य अंगीकार वचनों से मेल खाता हो। वेस्टमिन्स्टर सभा ने अपने कार्य को उनतालीस लेखों पर आधारित करने का एक निष्कपट प्रयास किया, परन्तु जल्दी ही इसने इस प्रतिरूप को बहुत संकुचित पाया, और इसलिए फिर आरम्भ से शुरु किया।
चार्ल्स और आगे के धर्मसुधार की आवश्यकता के विरुद्ध संघर्षों का यह सन्दर्भ वेस्टमिन्स्टर मानकों की लम्बाई और गहराई की व्याख्या करता है। सभी सिद्धान्तों को सारांशित करने के एक प्रयास के रूप में देखे जाने के स्थान पर, मानकों को अंग्रेजी धर्मसुधार सिद्धान्त और कार्य प्रणाली को परिभाषित करने के लिए शुद्धतावाद के भीतर दबी शक्ति के विस्फोट के रूप में देखा जाना चाहिए। लहु बहाया गया और ध्वनियों को शान्त किया गया, और अब जब वे ध्वनियाँ अपनी सीमा से बाहर निकल चुकी हैं, तो उन्होंने न केवल अपनी सैद्धान्तिक स्थिति पर परन्तु आराधना, शिष्यता, और कलीसिया के जीवन में अन्य समस्याओं के समूह पर व्याख्या करना अपना कर्तव्य समझा।
अंगीकार आज
आज, प्रोटेस्टेन्ट कलीसियाओं के जीवन में अंगीकार वचनों का उपयोग विभिन्न रीतियों से किया जा रहा है। हालाँकि सुसमाचारवादी कलीसियाओं के सभी विचारधारायें अंगीकार वचनों के प्रति उचित उत्साह नहीं दिखते हैं। भक्तिवाद (Pietism) का उदय और द्वितीय महान जागृति (Second Great Awakening) जैसी शक्तियों का अंगीकार वचनों की भूमिका पर -सामुदायिक या व्यक्तिगत-में एक विध्वंसकारी प्रभाव रहा है- विश्वास के अधिक तत्काल अभिव्यक्ति के पक्ष में। कभी-कभी, अंगीकार वचनों को प्रमाणिक विश्वास के लिए मार्ग की रुकावट के रूप में देखा जाता है।
जबकि ये प्रचलन चिन्ताजनक हैं, सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के अंगीकार वचन समाप्त नहीं हुए हैं। वे साप्ताहिक रूप से कई कलीसियाओं में प्रयोग किए जाते हैं, आराधना के सन्दर्भ में और नए विश्वासियों और बच्चों से प्रश्नोत्तर करने दोनों में ही। उनका उपयोग विभिन्न मतसम्बन्धों में पास्टरों और प्राचीनों की निष्ठता जाँचने के लिए किया जाता है। इस अर्थ में, विश्वास के अंगीकार वचन न केवल सीमा बाड़े का निर्माण करते हैं जो शास्त्रसम्मतता को सुनिश्चित करने में सहायक हैं परन्तु साथ ही इनका उपयोग जीवित अभिलेखों के रूप में होता है जो मसीही शिष्यों की दैनिक चाल को आकार देते हैं।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।