आशा के साथ दुख उठाइए - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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आशा के साथ दुख उठाइए

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का नौववां अध्याय है: पीढ़ी से पीढ़ी

मैं प्रायः अपने कलीसिया के बच्चों से कहता हूँ— नर्सरी से लेकर कॉलेज के विद्यार्थियों तक—कि वे सोचते हैं कि वे सदा के लिए जीवित रहेंगे, परन्तु, मैं विश्वासयोग्यता से जोड़ता हूँ, “ऐसा नहीं होगा!” वास्तव में, मैं कहता हूँ, आप मरने जा रहे हैं, और सम्भवतः मरने से पहले आप शारीरिक रीति से कष्ट का सामना करेंगे। आप निश्चित रीति से भावनात्मक रीति से पीड़ित होंगे। हम सब कभी न कभी किसी न किसी रीति से पीड़ित होते हैं। हम शारीरिक कठिनाई, भौतिक वस्तुओं से वंचित होना, और/या भावनात्मक कष्ट को सह सकते हैं, और यह कभी-कभी हमारे विश्वास के कारण हो सकता है। हमारे प्रभु ने कहा: “संसार में तुम्हें क्लेश होता है, परन्तु साहस रखो—मैंने संसार को जीत लिया है” (यूहन्ना 16:33)। क्लेश में दुख भी सम्मिलित है।

मैंने अपनी ईश्वरभक्त माता को कई प्रकारों से दुख उठाते हुए देखा, प्रायः भावनात्मक रीति से जब उन्होंने तीन बच्चों का पालन-पोषण किया जो सदैव प्रभु के मार्ग पर नहीं चलते थे। मैंने उन्हें मेरे अद्भुत पिता, अट्ठाईस वर्ष के उनके पति की मृत्यु को सहते देखा। अन्त में, मैंने उनको अपने स्वास्थ्य और चलने-फिरने की क्षमता को खोने के दुख को सहते हुए देखा,  और अन्त में कैंसर के पीड़ा को। इनमें और इन सब के द्वारा, उनका बने रहना मेरे लिए उनका मंत्र बहुत साधारण था: “पुत्र, मैं प्रभु पर भरोसा करती हूँ।” यह भक्तिवाद से उत्पन्न केवल कहने की बात नहीं थी। यह विश्वास की बात थी। वह वास्तविक था, और उसने उसे एक उदाहरण योग्य जीवन जीने में सहायता की—एक धीरज पूर्ण निश्चय, एक मधुर स्वभाव, और अपने उद्धारकर्ता के लिए लालसा—अपने सभी दुखों के द्वारा जिसने सभी को प्रभावित किया। उन्होंने ख्रीष्ट और स्वर्ग की आशा में जीवन जीया, और यह वास्तविक था। जब तक हम जीवित रहेंगे, उसके सभी बच्चे, नाती-पोते और परपोते नानी से भरोसेमन्द स्वभाव को प्रत्येक समय में स्मरण रखेंगे। उसने अपने प्रभु और उद्धारकर्ता यीशु ख्रीष्ट की धन्य आशा में जीवन व्यतीत किया (तीतुस 2:13)। 

दो वर्ष पहले, चिकित्सकों ने हमें बताया कि हमारे उन्नीस वर्षीय पुत्र के “मस्तिष्क में कुछ सूजन” है। यह “सूजन” एक टर्की पक्षी के अण्डे के आकार का फोड़ा था। एक सप्ताह के भीतर तीन सर्जरी हुई। एक महीने बाद एक दवा की विफलता के कारण चौथी सर्जरी हुई। जिस रात को रोग की पहचान की गई, मैंने अपने पुत्र से वह “बात” की। मैंने पूछा कि क्या वह समझता है कि यह कितना गम्भीर है, उसने कहा, “हाँ।” मैंने कहा, “मैं जानता हूँ कि तुम अवश्य डर रहे हो, क्योंकि मैं भी निश्चित रूप से भयभीत हूँ।” उसने कहा: “पिताजी, हमने शेष सब बातों के लिए प्रभु पर भरोसा रखा है। अभी भी हम उस पर भरोसा रख सकते हैं।” मैं रोते हुए कहा, “आमीन।” फिर उसने कहा, “ पिताजी, मैं ठीक हो जाऊँगा, चाहे कुछ भी हो।” मैं आपको नहीं बताऊंगा कि मेरा और परिवार का विश्वास इतना दृढ़ था कि उस रात या उसके बाद के महीनों में एक पहाड़ को हिला सकता था। वह दुर्बल था। मैंने कितनी बार प्रार्थना की, “प्रभु यीशु, मेरे विश्वास को बढ़ाइए,” और उसने बढ़ाया। कभी-कभी थोड़ा; कभी-कभी थोड़ा अधिक। हमने प्रभु पर आशा रखी, और प्रभु ही वह सब कुछ था जिसकी हमें आवश्यकता थी। ओह, वैसे, प्रभु ने हमारे बेटे को जीवन दिया और उसने अभी-अभी कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की है और आगे की पढ़ाई के लिए जा रहा है। परन्तु यदि उसने हमारे पुत्र को जीवन नहीं भी दिया होता . . . तो भी उस आशा के लिए परमेश्वर की महिमा हो जो हमारे पास एक सम्प्रभु परमेश्वर में है।

मेरे युवा पाठकों के लिए, मेरी माता पचासी वर्ष की थीं। आप उससे कष्ट सहने और मृत्यु की आशा कर सकते हैं। परन्तु मेरा पुत्र उन्नीस वर्ष का था, उसने कष्ट सहा (और अभी तक उसे ऐसी दवा लेनी पड़ती है जिनके दुष्प्रभाव हैं)। वह बहुत सरलता से मर सकता था। परन्तु बात यह है: आप भी कष्ट का सामना कर सकते हैं— स्कूल में वे गुण्डे, “मित्रों” से वेशभूषा की आलोचना, सबसे अच्छे मित्रों के साथ सम्बन्धों में विवाद, कैंसर, मस्तिष्क के फोड़े— जब आपका सबसे प्रिय मित्र सर्वदा आपके साथ है। अर्थात, यदि आपका सबसे अच्छा मित्र ख्रीष्ट यीशु है। “एक ऐसा भी मित्र है जो भाई से भी बढ़कर साथ देता है” (नीतिवचन 18:24) और यीशु स्वयं वह मित्र होने का दावा करता है—“मैंने तुम्हें मित्र कहा है” (यूहन्ना 15:15)। वह हमारी आशा है। 

मेरी माता के पास यह आशा थी क्योंकि वह उद्धारकर्ता यीशु ख्रीष्ट को जानती थी। उनका विश्वास केवल उसी पर था। मेरे पुत्र को अपने कष्टों में यह आशा थी क्योंकि वह उद्धारकर्ता यीशु ख्रीष्ट को जानता है। वे दोनों अपनी बाइबल और उस आशा की प्रतिज्ञा को जानते थे जो हमारे प्रभु यीशु ख्रीष्ट में है। वे दोनों विश्वासयोग्यता के साथ आराधना में सम्मिलित होते थे और उन्होंने अनुग्रह के साधन—वचन, प्रार्थना, और कलीसियाई विधियों—से स्वयं को भिगोया। वे उसकी कलीसिया में पाए गए सन्तों की संगति से प्रेम करते थे और उसका आनन्द लेते थे। आशा— “मैं सोचता हूं” नहीं, परन्तु एक सच्ची आशा—स्वतः नहीं आती है। यह केवल ख्रीष्ट पर विश्वास से उत्पन्न होती है जीया जाता है। युवा मित्रों, आने वाले कष्टों के लिए, अच्छे से तैयारी कीजिए, ताकि आप अपने आशापूर्णा जीवन के साथ परमेश्वर को महिमा दे सकें, कठिन समयों में भी।

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया।
सी.एन. विलबॉर्न
सी.एन. विलबॉर्न
डॉ. सी. एन. विल्बोर्न ओक रिज, टेनेसी में कवनेन्ट प्रेस्बिटेरियन चर्च के वरिष्ठ पास्टर हैं और ग्रीनविल प्रेस्बिटेरियन थियोलॉजिकल सेमिनरी में कलीसियाई इतिहास के सहायक प्राध्यापक हैं।