वीया, वेरिटास, वीटा - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ %
असहमति के मध्य में भी एकता को बनाए रखना
15 अगस्त 2023
सिमुल इयुस्टिस एक पेक्केटोर [अर्थात् एक ही समय में धर्मी और पापी]
22 अगस्त 2023
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वीया, वेरिटास, वीटा

यूहन्ना के सुसमाचार का सबसे अधिक सुना जाने वाला पद क्या है? सम्भवतः यूहन्ना 3:16 तुरन्त ध्यान में आता है: “क्योंकि परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम किया कि उसने अपना एकलौता पुत्र दे दिया . . .।”

अथवा क्या प्रस्तावना (1:1-18) के शब्द इस शीर्षक के अधिकारी हैं? आखिरकार, उन्हें प्रत्येक बड़े दिन पर पढ़ा जाता है।

परन्तु सम्भवतः सबसे सम्भावित उत्तर यूहन्ना 14:1 है: “तुम्हारा हृदय व्याकुल न हो . . .।” ये शब्द लगभग प्रत्येक मसीही अन्त्येष्टि के समय पढ़े जाते हैं।

यह बात दो बातों को समझने में सहायता कर सकती है:

  1. हम विरले ही इन शब्दों को उनके मूल सन्दर्भ में सुनते और मनन करते हैं। यदि आप नियमित रीति से कलीसिया जाने वालों से भी पूछते, “मुझे बताएँ कि यीशु ने ये शब्द कब कहे थे, और उसके कहने से पहले और बाद में क्या हुआ?” तो सम्भवतः उन्हें उत्तर देने देने में कठिनाई होगी।
  2. हम इन शब्दों को ऐसे सुनते और पढ़ते हैं मानो वे सीधे हम से कहे गए थे।

कई — और सम्भवतः अधिकाँश — मसीही बाइबल को ऐसे ही पढ़ते हैं। निस्सन्देह वह आज भी हमारे लिए प्रासंगिक है। परन्तु यह स्मरण रखना आवश्यक है कि — ऊपरी कोठरी में यीशु द्वारा कही गईं सब बातों के समान — यद्यपि ये वचन हम पर लागू होते हैं, किन्तु वे सीधी रीति से केवल प्रेरितों ही से कहे गए थे। हम वहाँ नहीं थे।

फिर यहाँ बाइबल अध्ययन का एक आधारभूत सिद्धान्त है: हम सबसे पहले मनन करते हैं कि उन वचनों ने सुनने वाले लोगों से क्या संचार किया; और फिर हम आत्मा की सहायता से यह पता लगाते हैं कि वे हम पर कैसे लागू होते हैं।

जब हम ऐसा करते हैं, तो हम स्वयं से ऐसे प्रश्नों को पूछेंगे जिन्हें हम अन्यथा अनदेखा कर सकते हैं और यह खण्ड के अर्थ को और गहराई से समझने में हमें सहायता मिल सकती है।

उदाहरण के लिए यहाँ यूहन्ना 14:1 के मूल सन्दर्भ पर विचार करना इस प्रश्न को उठाता है: यीशु ने अपने शिष्यों से कैसे कहा “अपने हृदय को व्याकुल न होने दें”? क्या यह परामर्श के प्रथम नियम का उल्लंघन नहीं है? आखिरकार, उनकी समस्या थी कि वे व्याकुल थे, और इसके लिए उनके पास अच्छे कारण थे।

यदि व्याकुल लोग स्वयं को व्याकुलता से छुड़ा पाते, तो वे अवश्य ऐसा करते। क्या उनको यह कहना कि व्याकुल न हो उनको सीधी रीति से निराशा का परामर्श देना नहीं हुआ? क्यों यीशु को इससे उत्तम समझ नहीं थी?

परन्तु यीशु एक उत्तम परामर्शदाता था, तो यहाँ सन्दर्भ में कुछ तो बात होगी जो हमें यह समझने में सहायता करती है कि वह क्या कर रहा है।

इसके अतिरिक्त, यदि हम खण्डों को उनके सन्दर्भ में पढ़ें, तो इस बात की अधिक सम्भावना है कि हम महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान देंगे। यहाँ एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। यूहन्ना ने अभी-अभी हमें बताया कि “यीशु आत्मा में व्याकुल” था (13:31; यही शब्द 14:1 में भी उपयोग किया गया है)। स्वयं “व्याकुल” यीशु अपने शिष्यों को “व्याकुल” न होने के लिए कह रहा है। क्या यह यही बात नहीं हुई कि “चोर चोर को चोर कह” रहा है? कोई सनकी पाठक कह सकता है, “हे वैद्य, अपने आप को चंगा कर” (लूका 4:23)।

क्या यह विरोधाभासी है? हाँ, परन्तु यह विरोधाभास एक सुराग प्रदान करता है जो हमारी सहायता करता है कि हम यीशु के शिष्यों के लिए उसके प्रोत्साहन को समझ सकें। वास्तव में, अपनी रीति से, यह सुसमाचार के केन्द्र की ओर संकेत करता है। क्योंकि यीशु व्याकुल हुआ, उसके चेलों को, तब भी और अब भी, व्याकुल होने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि इस व्याकुलता का कारण—उसका पकड़वाया जाना, पकड़ा जाना, लज्जा, क्रूसीकरण, त्यागा जाना—यह है कि वह हमारी सबसे गहरी समस्याओं के बोझ को उठा रहा है: हमारा दोष, हमारी लज्जा, और वह मृत्यु जो पाप की मजदूरी है (रोमियों 6:23)। क्योंकि वह जानता है और समझता है कि व्याकुल होना कैसा होता है, वह हमारे प्रति सहानुभूति रख सकता है। क्योंकि वह व्याकुल था, उसमें हमारे व्याकुल हृदय शान्ति पा सकते हैं।

यीशु के परामर्श की शक्ति उस ढंग में पाई जाती है जिसमें होकर वह शिष्यों के हृदयों के व्याकुल न होने का कारण और उपाय समझाता है। क्योंकि जहाँ उनके हृदयों के व्याकुल होने के कारण अवश्य हैं, वहीं उन्हें व्याकुल न होने देने के और भी महान् कारण हैं। जैसे-जैसे वार्तालाप आगे बढ़ता है, वह इस बात को और अधिक समझाएगा जब वह विशेषकर दो व्याकुल शिष्यों के प्रश्नों को सम्बोधित करता है।

तो फिर, व्याकुल हृदय के लिए यीशु का क्या परामर्श है? यहाँ वह छोटी गड़बड़ियों की नहीं वरन् कष्ट की बात कर रहा है। वह अपनी आत्मा में बहुत व्यथित हो रहा है, और अब उसके शिष्य भी बहुत व्यथित हो रहे हैं। उनका संसार बिखर रहा है। वे पूर्णतया पराजित होने का आभास कर रहे हैं, और अब परिस्थिति पर उनका कोई नियन्त्रण नहीं है। इन परिस्थियों में यह कैसे सम्भव है कि उनके हृदय व्याकुल न हों? और क्या यह सम्भव है, कि लागुकरण के माध्यस से आज भी मसीही इस प्रकार के स्वर्गीय सन्तुलन अनुभव कर सकते हैं?

व्याकुल हृदयों के लिए परामर्श
व्याकुल हृदय के लिए समस्या क्या है? समस्या यह है: ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे सामने जो परिस्थियाँ हैं, वे हमारे सहने की क्षमता से बड़ी और शक्तिशाली हैं। हम गलील की झील में आँधी में फँसे हुए शिष्यों के समान हैं। हमारी कुशलता और हमारे अनुभव परिस्थिति के लिए पर्याप्त नहीं हैं।

क्या आपने कभी सोचा है कि यीशु अपने शिष्यों के प्रति थोड़ा सा कठोर थे जब उसने शिष्यों से पूछा, “तुम इतने डरपोक क्यों हो?” निश्चय ही उनके पास डरने के लिए बहुत से कारण थे—वे तो डूब रहे थे। वास्तव में यीशु कोमलता से समस्या का निदान कर रहा था। वह पूछता है, “यह कैसी बात है कि तुम में विश्वास नहीं?” (मरकुस 4:40)। दूसरे शब्दों में, नाव में उनके पास संसाधन उपलब्ध थे, अर्थात् एक ऐसा जन जो आँधी और लहरों से भी सामर्थी है, और उन्होंने उसे अनदेखा किया था—या फिर सटीक रूप से कहें तो, वे उस पर भरोसा करने में विफल रहे।

आप वायु-यान में बैठते हैं। पेटियों को यान में चढ़ाया जाता है—लगभग दो सौ यात्रियों के लिए हर पेटी 20 किलो की होती हैं। फिर यान में यात्रीगण आते हैं, और उन सब का अपना-अपना भार है। आप खिड़की से बाहर बड़े इंजन को देखते हैं। क्या आप कभी सोचते हैं, “वायु-यान धरती से कैसे उठ जाते हैं?” इसका कारण यह नहीं है क्योंकि उनका भार हवा से कम है या फिर कि गुरुत्वाकर्षण का अस्तित्व रुक जाता है। नहीं, ऐसा इसलिए है क्योंकि वायुगतिकी के नियम कार्य में लाए जाते हैं: उत्तोलक और प्रणोद मिलकर भार और घर्षण पर हावी होते हैं। मसीहियों के साथ भी कुछ इस प्रकार की बात सत्य है। हम परीक्षाओं और समस्याओं, जटिलताओं, और गहरे दुःखों तले दबे हुए हैं। मसीही होने से इनमें से किसी से भी मुक्ति नहीं प्राप्त होती है। परन्तु एक और व्यवस्था कार्य कर रही है। यीशु ख्रीष्ट में हमारे पास विजयी होने के संसाधन हैं।

पौलुस इसी बात को कहता है: हम अपनी सामर्थ्य के कारण “जयवन्त से भी बढ़कर” नहीं हैं वरन् “उसके द्वारा जिसने हम से प्रेम किया” (रोमियों 8:37)।

जब यीशु ने शिष्यों को डाँटा तो उसका अर्थ यह नहीं था, “अरे निर्बुद्धि शिष्यों, तुम अनुभवी मछुआरे हो और तुम्हें अपने अनुभव पर भरोसा करना चाहिए था।” नहीं, उसका अर्थ था, “तुम्हारे साथ नाव में परमेश्वर का पुत्र था, अर्थात् गलील का सृष्टिकर्ता और आँधी और लहरों का शासक, परन्तु तुमने मुझ पर भरोसा नहीं किया।” उनकी परिस्थियों ने उनकी आँखों को इस सत्य के प्रति अन्धा कर दिया कि उद्धारकर्ता उनके साथ उपस्थित था। वे विश्वास के स्थान पर भय से भरे हुए थे।

विश्वास रखना
हम भी प्रायः विश्वास के विषय में सोचते हैं कि यह निष्क्रिय होता है—सम्भवतः क्योंकि हम ख्रीष्ट को “ग्रहण” करने के विषय में बात करते हैं। हमारे बुद्धिमान आत्मिक पूर्वज “क्रियाशील विश्वास” की बात करते थे—अर्थात् विश्वास को उपयोग करना, परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं को थामे रहना, और अपनी दृष्टि को ख्रीष्ट पर और उसकी योग्यताओं पर लगाना (इब्रानियों 3:1; 12:2)।

अब, ध्यान दें कि यीशु व्याकुल हृदयों को क्या परामर्श देता है: “परमेश्वर पर विश्वास रखो और मुझ पर भी विश्वास रखो।”

अपने हृदयों को व्याकुल न होने दें। पहला, क्योंकि परमेश्वर आपकी सुरक्षा है: “यहोवा का नाम एक दृढ़ गढ़ है। धर्मी जन उसमें भागकर सुरक्षित रहता है” (नीतिवचन 18:10); “परमेश्वर हमारा शरणस्थान और बल है, संकट के समय तत्पर सहायक” (भजन 46:1)। इसलिए कोई अचरज की बात नहीं है कि मार्टिन लूथर निरुत्साह के समयों में अपने युवा मित्र फिलिप मेलैंक्थन से कहते थे, “आओ फिलिप; आओ हम छियालिसवे भजन को गाएँ!” और यह आश्चर्य की बात नहीं है कि, इस भजन को लागू करने वाले गीत “अ माइटी फोर्ट्रस इज़ आर गॉड” (ईश्वर हमारा दृढ़ गढ़ है) धर्मसुधार के लिए नारे के समान बन गया।

शिष्यों से कहे गए यीशु के शब्दों में एक निहित तर्क है: “परमेश्वर पर भरोसा रखें—अतः मुझ पर भी भरोसा रखें।” परमेश्वर उनका शरणस्थान होगा—वे इस बात को पहले ही से जानते हैं; बचपन से वे भजन 46 को जानते थे। पर अब वे तीन वर्ष के लिए यीशु के साथ रहे हैं। उनके पास उस पर भरोसा करने के लिए और उसमें अपनी सुरक्षा पाने के लिए भी पर्याप्त कारण है। उन्होंने उन महान् कार्यों को देखा है जिन्होंने यीशु को प्रतिज्ञा किए हुए मसीहा के रूप में प्रमाणित किया; उन्होंने उसे स्वर्गीय पिता के साथ अपने विशेष सम्बन्ध के विषय में बात करते हुए सुना। जिस प्रकार से वह उनको बचाने के लिए जगत में आया था (यूहन्ना 3:16), वह अपने पिता की उपस्थिति में उनके लिए स्थान तैयार करने के लिए जगत से जा रहा है: “मेरे पिता के घर में रहने के बहुत-से स्थान हैं। यदि न होते, तो मैं तुमसे कह देता, क्योंकि मैं तुम्हारे लिए स्थान तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिए स्थान तैयार करूँ तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं हूँ, वहाँ तुम भी रहो” (14:2-3)।

यहाँ हमारे प्रभु के तर्क की सामर्थ्य पर ध्यान दें—क्योंकि विश्वास की सामर्थ्य इसे समझने में निहित है:

यीशु का कार्य: मैं तुम्हें छोड़ रहा हूँ।

यीशु का स्पष्टीकरण: मैं अपने पिता के घर में तुम्हारे लिए स्थान तैयार करने जा रहा हूँ।

यीशु का निष्कर्ष: अतः मैं तुमें घर ले जाने के लिए पुनः आऊँगा।

क्या आप इस तर्क को देख सकते हैं? जिस बात को ईश्वरविज्ञानी ख्रीष्टविज्ञान (Christology) कहते हैं (यीशु कौन है और वह क्या करता है) वह उद्धारविज्ञान (soteriology) की नींव है। इस बात पर पुनः ध्यान दिया जाना चाहिए: विश्वास की सामर्थ्य न हम में है न ही स्वयं विश्वास में, वरन् यह तो ख्रीष्ट में और सुसमाचार के तर्क में पाई जाती है। और निर्बल विश्वास भी इसी सामर्थी ख्रीष्ट पर आश्रित है।

हमारा प्रभु तीव्र संकट के सन्दर्भ में कितना अधिक धैर्य और सन्तुलन प्रकट करता है।अपने शिष्यों के प्रति उनका प्रेम ऐसा है कि ऐसा प्रतीत होता है कि उसे अपने कष्टोंं की तुलना में उनके कष्टों की अधिक चिन्ता है। यही कारण है कि वे—और उनके साथ हम भी—बिना किसी सन्देह के उस पर भरोसा कर सकते हैं।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

सिनक्लेयर बी. फर्गसन
सिनक्लेयर बी. फर्गसन
डॉ. सिनक्लेयर बी. फर्गसन लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ के एक सह शिक्षक हैं और रिफॉर्म्ड थियोलॉजिकल सेमिनरी विधिवत ईश्वरविज्ञान के चान्सलर्स प्रोफेसर हैं। वह मेच्योरिटी नामक पुस्तक के साथ-साथ कई अन्य पुस्तकों के लेखक हैं।