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जब आप गर्व शब्द सुनते हैं तो आपके मन में क्या विचार आता है? हमारी सँस्कृति में, इसे प्रायः एक अच्छी बात के रूप में देखा जाता है। उदाहरण के लिए, हम कह सकते हैं, “अपने कार्य पर गर्व करो,” या, “वह अपने विद्यालय के गर्व को दिखा रहा है।” स्वयं के प्रति सच्चे रहना और जो आप हैं उसे स्वीकारना, आत्म-गौरव के रूप में देखा जाता है और इसे स्वीकार और प्रोत्साहित किया जाता है। शब्दकोश गर्व को “उचित आत्म-सम्मान” और “अतिश्योक्तिपूर्ण आत्म-सम्मान” दोनों के रूप में वर्णित करता है।
बहुत अधिक गर्व जैसी बात भी होती है, और हर कोई इसे देखकर पहचान जाता है। उदाहरण के लिए, शेक्सपियर के मैकबेथ का ध्यान आता है, उसकी सत्ता की चाहत, और कैसे यह उसके नाश का कारण बना; या नेपोलियन और उसके गर्व के बारे में सोचें, जिसके कारण रूस के साथ युद्ध में उसकी हार हुई। मिल्टन के पैराडाइज़ लॉस्ट में शैतान के गर्व का वर्णन किया गया है जब उसने परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया और घोषणा की, “स्वर्ग में सेवा करने से अच्छा नरक में शासन करना है।”
यद्यपि हमारी सँस्कृति में गर्व को एक सतत प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है, परन्तु बाइबल में इसे पाप के समान माना गया है।
अहँकारी का गर्व
नीतिवचन 8 में, बुद्धि तो सड़कों पर उन सभी को ऊँची आवाज़ से पुकारती है जो उसकी पुकार पर ध्यान देंगे। वह पुकारती है: “यहोवा का भय मानना, बुराई से बैर रखना है। गर्व, अहँकार तथा बुरी बात और कुटिल बातों से मुझे घृणा है” (नीतिवचन 8:13)। नीतिवचन 16:18 चेतावनी देता है, “विनाश से पहले गर्व होता है, और ठोकर खाने से पहले गर्व होता है।” मरकुस 7 में, यीशु ने समझाया कि जो कुछ बाहर से मनुष्य के भीतर जाता है वह उसे अशुद्ध नहीं कर सकता, परन्तु यह वह है जो भीतर से अशुद्ध करता है, जो मन में है—जिसमें गर्व भी सम्मिलित है: “क्योंकि भीतर से, अर्थात् मनुष्यों के मन से कुविचार, व्यभिचार, चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन, लोभ और दुष्टता के काम तथा छल, कामुकता, ईर्ष्या, निन्दा, अहँकार और मूर्खता निकलती है” (मरकुस 7:21–22)। लेखक एड वेल्च ने गर्व को “पाप का वर्णन करने के सबसे प्रमुख रीतियों में से एक” के रूप में वर्णित किया है।
गर्व को प्रायः पहले पाप का जड़ माना जाता है। उत्पत्ति 3 में, शैतान ने वाटिका में हव्वा को बहकाते समय सत्य को तोड़-मरोड़ कर रखा। उसने उससे कहा कि परमेश्वर उसे वह सब कुछ बनने से रोक रहा है जो वह बन सकती है, कि परमेश्वर उसे रोक रहा है। जब स्त्री ने देखा कि उस वृक्ष का फल खाने के लिए अच्छा, आँखों के लिए लुभावना, तथा बुद्धिमान बनाने के लिए चाहनेयोग्य है तो उसने उसका फल तोड़कर खाया। और आदम ने भी उसके साथ खाया (उत्पत्ति 3:6), परमेश्वर की आज्ञा के विरुद्ध पाप किया और मानव जाति के पतन का आरम्भ किया। उस क्षण से, हम सभी अपने जीवन को अपने आस-पास केन्द्रित करते हैं। हम अपने दृष्टिकोण में परमेश्वर की बुद्धि को छोटा बनाते हैं। हम स्वयँ को परमेश्वर और दूसरों से ऊपर उठाते हैं।
गर्व अहँकार है। गर्व सोचता है कि वह श्रेष्ठतर जानता है और अधिक अच्छा जानता है। गर्व स्वयँ को पहले स्थान पर रखता है। यह किसी और के सामने नहीं परन्तु स्वयँ के सामने झुकता है। परन्तु, जैसा कि सी.एस.लुईस ने मेयर क्रिस्चयानिटी में लिखा है, “गर्व आत्मिक कर्क-रोग है: यह प्रेम, या संतोष, या यहाँ तक कि सामान्य समझ की सम्भावना को ही खा जाता है।”
गर्व बनाम दीनता
बाइबल गर्व को दीनता के विपरीत के रूप में प्रस्तुत करती है। हम इसे नीतिवचन की पुस्तक में स्पष्ट रूप से देखते हैं:
- “जब अभिमान आ जाता है तो अपमान भी आता है, पर नम्र लोगों में बुद्धि होती है” (नीतिवचन 11:2)।
- “विनाश से पहले मनुष्य का हृदय गर्वी हो जाता है, परन्तु सम्मान से पहले नम्रता पाई जाती है” (नीतिवचन 18:12)।
- “मनुष्य का गर्व उसे नीचा कर देगा, परन्तु नम्र आत्मा वाला आदर पाएगा” (नीतिवचन 29:23)।
गर्वित लोग ऐसे जीते हैं मानो वे अपने राज्य के राजा हों, जबकि विनम्र लोग पहचानते हैं कि वे राजाओं के राजा की सन्तान हैं। परमेश्वर ही परमेश्वर है और हम नहीं हैं। उसने हमें बनाया है और हम उसके हैं। हम सब वस्तुओं के लिए परमेश्वर पर निर्भर हैं—जीवन, श्वास और बाकी सब कुछ (प्रेरितों के काम 17:25)। हमारे पास जो कुछ भी है, हम जो कुछ भी हैं, वह सब उसके अनुग्रह के कारण है।
यही कारण है कि गर्व के साथ अपमान और तिरस्कार आता है। यद्यपि परमेश्वर हमें कुछ समय के लिए इस झूठी वास्तविकता में जीने की अनुमति दे सकता है कि हम अपने विश्व के राजा हैं, परन्तु अंततः, सच्चाई ज्ञात हो ही जाती है। हमें इस तथ्य का आमना-सामना करना पड़ता है कि हमारे हाथ में नियंत्रण नहीं है। हम वह सब खो देंगे जिससे हम लिपटे हुए हैं। हम अपने अन्त तक पहुँच जाएँगे। हमारा राज्य नष्ट हो जाएगा, और हमारे पास कुछ भी नहीं बचेगा। पतन से पहले गर्व आता है।
जब परमेश्वर गर्वितों को नम्र बनाता है, तो यह उसके अनुग्रह का कार्य होता है। खालीपन के उस क्षण में, हमारे पास पश्चाताप करने और अपने हृदय में पवित्र-आत्मा के कार्य के प्रति समर्पण करने का अवसर होता है। ऐसा करने में, हम अपना मुकुट त्याग देते हैं, राजा के सामने झुकते हैं, और उसके प्रभुत्व के अधीन हो जाते हैं।
गर्व को त्यागना
प्रेरित पौलुस ख्रीष्ट पर विश्वास रखने वालों को प्रोत्साहित करता है कि वे ख्रीष्ट के मार्गों का अनुसरण करें। हमें मसीह को अपना उदाहरण मानकर अपना जीवन जीना चाहिए। फिलिप्पियों 2 में, वह हमें दीनता में जीने के लिए कहता है जैसा कि यीशु ने जिया था जब उसने स्वर्ग की महिमा को छोड़ दिया, मानव रूप धारण किया, और उस जीवन को जिया जो हम नहीं जी सकते थे, और उस मृत्यु को अपनाया जिसके हम अधिकारी थे। ख्रीष्ट ने हमारे लिए जो किया है, उसके कारण और हमारे भीतर पवित्र आत्मा के कार्य के कारण, हम अपने गर्व से दूर हो सकते हैं और दीनता में जीवन जी सकते हैं, दूसरों को अपने से अधिक सम्मान दे सकते हैं:
स्वार्थ और मिथ्याभिमान से कोई काम न करो, परन्तु नम्रतापूर्वक अपनी अपेक्षा दूसरों को उत्तम समझो। तुम में से प्रत्येक अपना ही नहीं, परन्तु दूसरों के हित का भी ध्यान रखे। अपने में वही स्वभाव रखो जो मसीह यीशु में था, जिसने परमेश्वर के स्वरूप में होते हुए भी परमेश्वर के समान होने को अपने अधिकार में रखने की वस्तु न समझा। उसने अपने आप को ऐसा शून्य कर दिया कि दास का स्वरूप धारण कर मनुष्य की समानता में हो गया। इस प्रकार मनुष्य के रूप में प्रकट होकर स्वयँ को दीन किया और यहाँ तक आज्ञाकारी रहा कि मृत्यु वरन् क्रूस की मृत्यु भी सह ली। (फिलिप्पियों 2:3-8)
ऐसी दीनता फिर उस प्रकार के गर्व को जन्म देती है जिसे हम अच्छा गर्व मान सकते हैं—ऐसा गर्व जो स्वयँ पर केंद्रित नहीं होता। हम इसे रोमियों 15 में देखते हैं जहाँ पौलुस अपने हृदय में हुए मसीह के कार्य के विषय में बात करता है। वह गैर-यहूदियों तक सुसमाचार पहुँचाने में अपने कार्य का वर्णन करता है और लिखता है, “अत: मुझे मसीह यीशु में उन बातों के विषय जो परमेश्वर से सम्बन्धित हैं, बड़ाई करने का कारण प्राप्त हुआ है” ( पद 17)। फिलिप्पी की कलीसिया को मसीह की दीनता का अनुकरण करने के लिए प्रोत्साहित करने के पश्चात, पौलुस अपने बारे में लिखता है, “जीवन के वचन को दृढ़ता से थामे रहो, जिस से मसीह के दिन मुझे इस बात का गर्व या गर्व हो कि न तो मेरी दौड़-धूप और न मेरा परिश्रम व्यर्थ गया।” (2:16)। हम भी अपने परिश्रम और दूसरों के द्वारा किए गए कार्यों पर ईश्वरीय गर्व का अनुभव कर सकते हैं। हम किसी बच्चे को बता सकते हैं कि हमें विद्यालय में उनके द्वारा किए गए प्रयासों पर गर्व है और इस बात में आनंदित हो सकते हैं कि प्रभु हमारा उपयोग करके सेवकाई को बढ़ा रहे हैं।
यह सोचना अहँकार है कि हम परमेश्वर के बिना भी कुछ कर सकते हैं। उसी ने ही हमें बनाया है; वह ही हमें बनाए रखता है। हम परमेश्वर के सामने स्वयँ को नम्र करें और उसके अनुग्रह पर निर्भर होकर अपने जीवन को जिएँ।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।