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28 अक्टूबर 2025आत्मा का फल क्या है?
आत्मा का फल नौ सद्गुणों की एक सूची है, जो प्रेरित पौलुस द्वारा गलातियों 5:22–23 में दी गई हैं। यह सूची पापपूर्ण दुर्गुणों (“शरीर के कार्यों”) की एक लम्बी सूची के प्रत्युत्तर में आती है जो मानव अस्तित्व की निराशाजनक और क्रूर चित्र को दिखाते हैं – जैसे क्रोध, मतभेद और ईर्ष्या (गलातियों 5:19-21)। इसके (विपरीत) में, “आत्मा का फल प्रेम, आनन्द, शान्ति, धीरज, दयालुता, भलाई, विश्वस्तता, नम्रता व संंयम हैं।” इस संक्षिप्त सूची का सीधा प्रभाव इस बात पर पड़ता है कि हम कौन हैं और मसीही होने के नाते हम क्या करते हैं। इन सद्गुण में से कुछ परमेश्वर के साथ हमारे सम्बन्ध का वर्णन करते हैं (प्रेम, आनंद, शान्ति), कुछ सद्गुण ऐसे हैं जो दूसरों के साथ हमारे सम्बन्ध को प्रदर्शित करते हैं (धैर्य, दया, भलाई), और यहाँ तक कि कुछ ऐसे भी सद्गुण हैं जो हमारे आन्तरिक स्वभाव का वर्णन करते हैं (विश्वासयोग्य, नम्रता, आत्म-संयम)। निश्चित रूप से, इन श्रेणियों में महत्वपूर्ण समानताएं हैं, यद्यपि यह विचार करना सहायक हो सकता है कि कैसे प्रत्येक गुण का अपना विशिष्ट बल और महत्व है।
संक्षेप में, आत्मा का फल यह प्रकट करता है कि हमें किस प्रकार अनुभूति करना, सोचना, बोलना और कार्य करना है जो संसार से भिन्न और विशिष्ट हो। सम्भवत: इन सद्गुणों से भी अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह पूछना है कि ये कैसे काम करते हैं। इसका उत्तर देने के लिए, हमें इन अनुग्रहों का वर्णन करने के लिए प्रयुक्त दो मुख्य शब्दों की अधिक ध्यानपूर्वक परीक्षण करनी चाहिए: जो कि हैं “आत्मा” और “फल “।
पहली, और सबसे महत्वपूर्ण बात, हमें यह समझना चाहिए कि प्रेरित पौलुस इन गुणों को आत्मा का फल कहता है। ये ऐसी वास्तविकताएं हैं जिन्हें परमेश्वर का आत्मा हमारे भीतर उत्पन्न करता है; ये कोई ऐसे मानक नहीं हैं जिन तक हमें अपने बल या प्रयास से पहुँचना है। आत्मा का फल कोई करने योग्य कार्यों की सूची नहीं है। यह विश्वासियों से परमेश्वर की माँग नहीं है, वरन् यह विश्वासियों के लिए परमेश्वर की उद्घोषणा है कि जब वे ख्रीष्ट का आत्मा प्राप्त करते हैं, तो उनमें ये बातें सत्य होती हैं। यह उद्घोषणा आत्मा का फल के तुरन्त पश्चात के पदों में और भी स्पष्ट रूप से आती है, जब पौलुस लिखता है, “और जो ख्रीष्ट यीशु के हैं उन्होंने अपने शरीर को दुर्वासनाओं तथा लालसाओं समेत क्रूस पर चढ़ा दिया है” ( गलातियों 5:24)। दूसरे शब्दों में, आत्मा का फल उस विजय का आनन्द लेने का आह्वान है जो ख्रीष्ट ने क्रूस पर हमारे लिए जीती है, जहाँ उसने शरीर के कार्यों को नष्ट किया और हमें अपनी पवित्रता में सहभागी होने के लिए बुलाया है। आत्मा विश्वासियों के हृदयों में उस पवित्रता को जीवित करता है जो केवल ख्रीष्ट में पाई जाती हैं। आत्मा का फल की किसी अन्य ढंग से व्याख्या करने से परमेश्वर के साथ कष्टदायक कार्य-आधारित सम्बन्ध उत्पन्न हो सकता है। यह आत्मा का फल है, मसीही के कार्य नहीं हैं।
फल का रूपक हमें पवित्रीकरण के विषय में कुछ महत्वपूर्ण बातें भी सिखाती है। सबसे पहले, यह ध्यान देने योग्य है कि जब पौलुस इस रूपक का प्रयोग करता है, तो वह “फलों” (बहुवचन) शब्द का उपयोग नहीं करता है, वरन् समूह वाचक संज्ञा का उपयोग करता है, जो रूप में एकवचन है, परन्तु अर्थ में बहुवचन है। इसका यहाँ पर क्या महत्व है? इसका अर्थ यह है कि वे व्यक्तिगत गुण, जिन्हें परमेश्वर हमारे भीतर उत्पन्न और विकसित करता है, वे सब एक बड़े समग्र का भाग हैं—अर्थात्, हमें परमेश्वर के पुत्र के स्वरूप में ढालना (रोमियों 8:29)। इसलिए कोई भी मसीही ऐसा नहीं हो सकता जिसके पास इन गुणों में से कुछ हों और अन्य बिल्कुल अनुपस्थित हों। यद्यपि हम यह अनुभव करते हैं कि कुछ लोग अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक प्रेमपूर्ण या अधिक दयालु प्रतीत होते हैं, तथापि हर विश्वासी में ये सब गुण किसी-न-किसी मात्रा में अवश्य विद्यमान रहते हैं, क्योंकि उनके पास ख्रीष्ट है, जो इन सबकी परिपूर्णता और पूर्ति है। हमें ख्रीष्ट का कुछ भाग नहीं, वरन् सम्पूर्ण ख्रीष्ट मिलता है। इसलिए इन गुणों को मुकुट में अलग-अलग रत्नों के रूप में नहीं, बल्कि हीरे के विभिन्न आयामों के रूप में देखना उपयोगी हो सकता है, जिनमें से प्रत्येक आयाम और कोण एकल रत्न में चमक और सुन्दरता जोड़ते हैं। आत्मा का होने का अर्थ ख्रीष्ट का होना है (रोमियों 8:9), और ख्रीष्ट के होने का उदेश्य उसके समान बनना प्रारम्भ करना है – सम्पूर्ण रीति से उसके समान।
इस रूपक से हमें कम से कम एक और महत्वपूर्ण शिक्षा मिलती है। यदि आप सेब उगाना चाहते हैं, तो आप अपने आँगन में बीज बोकर अगले दिन यह अपेक्षा नहीं करेंगे कि वहाँ पूरा बगीचा तैयार मिल जाए और फलों से लदा हो। उसी रीति से, हमें भी अपने पवित्रीकरण में तत्काल उन्नति की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, वरन् समय के साथ स्थिर और क्रमिक वृद्धि की अपेक्षा करनी चाहिए। हमारे जीवन में परमेश्वर के अनुग्रहों को “फल” के रूप में देखना, एक गम्भीर विश्वासी के भीतर दो भाव उत्पन्न करता है: अनुग्रह और आशा।
पहला, जब हम अपने जीवन में, या अन्य विश्वासियों के जीवन में, वह रूप नहीं देखते जो परमेश्वर हमसे चाहता है, तो हमें अपने प्रति और दूसरों के प्रति अनुग्रहशील होना चाहिए। हम सब बढ़ने वाले रचनाएँ हैं, जिन्हें यह बुलाहट मिली है कि “यीशु ख्रीष्ट के अनुग्रह और ज्ञान में बढ़ते जाओ।” (2 पतरस 3:18)। इसमें समय लगेगा। दूसरा, हमें आशापूर्ण अपेक्षा रखनी चाहिए कि जो बातें वर्तमान में हमारे जीवन में अधूरी या अभावपूर्ण हैं, वे एक दिन पूर्ण होंगी। परमेश्वर के आत्मा और अनुग्रह के साधनों पर निर्भरता के माध्यम से, हम वास्तव में बदल जायेंगे, क्योंकि “जिसने तुम में भला कार्य आरम्भ किया है, वही उसे ख्रीष्ट यीशु के दिन तक पूर्ण भी करेगा” (फिलिप्पियों 1:6)। परमेश्वर जो बीज बोता है, वे सदैव फल देते हैं। वह फल जो परमेश्वर उगाता और पोषित करता है, वह कभी लता पर सूखता नहीं।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

