आप कार्य क्यों करते हैं? - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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आप कार्य क्यों करते हैं?

आप कार्य क्यों करते हैं? मैंने एक बार इस प्रश्न का बहुत निराशाजनक उत्तर सुना, जो कुछ इस प्रकार से था: “हमें नौकरी मिलती हैं ताकि कि हम अपने बच्चों को जूते दिला सकें, जिससे वे विद्यालय जा सकें, जिससे कि वे किसी दिन नौकरी पाएंगे, जिससे वे अपने बच्चों को जूते दिला सकें, जिससे वे …।” दूसरे शब्दों में, कार्य व्यर्थ है। वास्तव में, इस दृष्टिकोण से जीवन ही व्यर्थ हो जाता है—यह केवल एक अन्तहीन चक्र बनकर रह जाता है।

मैंने यह भी सुना है कि हम इसलिए कार्य करते हैं ताकि हम ऐसे सेविकाइयों का सहयोग कर सकें जो वास्तविक कार्य करते हैं—परमेश्वर के राज्य का कार्य। अब, मैं सेविकाइयों को देने के विरोध में नहीं हूँ। वास्तव में, मैं सोचता हूँ कि इस विषय में हम और आप दृढ़ बाइबलीय तर्क रख सकते हैं कि हम ऐसा करने के लिए बाध्य हैं। परन्तु मैं सोचता हूँ कि क्या यह पूरी रीति से कार्य के अर्थ को समझाता है।

तो फिर, आप कार्य क्यों करते हैं? इस प्रश्न के उत्तर का आरम्भ मुझे भजन 104 में मिलता है। भजन 104 सृष्टि पर एक मनन है और सम्भवतः उत्पत्ति 6-8 की बाढ़ पर एक मनन है। हम भजनकार को काव्यात्मक रूप से न केवल पृथ्वी और सब प्राणियों की सृष्टि का वर्णन करते हुए देखते हैं, पर हम परमेश्वर के गहन कार्य को भी देखते है जिसमें वह अपनी बनाई हुई सृष्टि और मनुष्यों को सम्भाले रहता है (1-13 पद)।

14 पद में, हम पढ़ते हैं कि परमेश्वर पशुओं और मनुष्यों दोनों के लिए उपलब्ध करता है। पर हम यह भी पढ़ते हैं कि लोगों की एक भूमिका होती है। उन्हें उन पौधों की खेती करनी है जिन्हें परमेश्वर बढ़ाता है । हम यहां स्वरूप को धारण करने के कार्य के द्वारा प्रकट होते हुए देखते हैं। परमेश्वर के स्वरूप में बनाए गए होने के नाते, हमें पृथ्वी पर अधिकार रखना और प्रभुता करनी चाहिए। हमें उस मूल, परमेश्वर द्वारा दी गई वाटिका का विस्तार करना है। हम यहाँ उत्पत्ति 1:26-28 के सांस्कृतिक आदेश के लागूकरण को देखते हैं।

हम इसे भजन संहिता 104 के 21-23 पदों में भी देखते हैं। जिस प्रकार सिंह शिकार की खोज में निकलते हैं—जब वे उस रीति से कार्य करते हैं जैसे वे बनाए गए थे—वैसे ही मनुष्य भी “अपने कार्य परिश्रम के लिए शाम तक के लिए बाहर जाता है” (पद 23)। यहाँ एक मधुर सम्बन्ध है जिसका अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। परमेश्वर के सभी प्राणियों को, महान और छोटे, उनके मूल सृजे गए रूप में मधुर सम्बन्ध में कार्य करते हुए प्रस्तुत किया जाता है। सिंहों को, सिंह के रूप में “कार्य” करने के लिए बनाया गया। हमें सृजा गया कि हम उसके स्वरूप को प्रदर्शित करें। वास्तव में, भजनकार न केवल प्राणी से प्राणी तक, परन्तु प्राणी से सृष्टिकर्ता परमेश्वर तक बढ़ता है। अगले ही कुछ पद, 24 पद में, भजनकार घोषणा करता है कि, “हे प्रभु, आपके कार्य अनगिनित हैं! तू ने यह सब बुद्धि से बनाया है; पृथ्वी तेरी सम्पदा से परिपूर्ण है।”

भजनकार चाहता है कि हम अपने कार्य और बड़े अर्थ वाले विषयों के बीच कुछ सम्बन्ध बनाएं। जब हम कार्य करते हैं, तो हम सृष्टिकर्ता परमेश्वर के कार्य को प्रकट करते हैं। अधिकार करने और प्रभुता करने के अपने कार्य में, हमारे उत्पन्न करने के कार्य में, हम कुछ और देखते हैं। हमारा कार्य साक्षी देता है और उसकी ओर इंगित करता है जिसके स्वरूप में हम बनाए गए हैं। हमारा कार्य साक्षी है, संकेत है सृष्टिकर्ता परमेश्वर के लिए। सी.एस. लूइस ने एक बार कहा था कि हम कभी भी एक सामान्य व्यक्ति से नहीं मिले हैं। सम्भवतः हम इसे ऐसे भी कह सकते है: हम कभी भी कोई सामान्य कार्य नहीं करते हैं। कार्य तुच्छ, व्यर्थ, अर्थहीन या निरर्थक नहीं है। हमारा कार्य अर्थ और महत्व से भरपूर होने के रूप में सबसे उत्तम समझा जाता है।

किन्तु, रुकिए, और भी कुछ है।

25-26 पद में, हम पढ़ते हैं:

समुद्र भी कितना महान और विशाल है,
जिसमें अनगिनित जलचर,
अर्थात् छोटे-बड़े जीवन-जन्तु भरे पड़े हैं।
उसमें जहाज़ भी चलते हैं,
और लिव्यातान, जिसे तू ने उसमें खेलने के लिए रचा है। 

स्पष्ट रूप से समुद्र और समुद्री जीव परमेश्वर की महानता, महिमा और सुन्दरता की साक्षी देते हैं। परन्तु पद 26 को ध्यान से देखिए। भजनकार दो बातों को समानान्तर में रखता है: जहाज़ और लिव्यातान। काव्य की पुस्तकें, जैसे भजन और अय्यूब, और कुछ भविष्यवाणी की पुस्तक, इसी प्राणी, लिव्यातान का उल्लेख करती हैं। इस प्राणी की सही पहचान को लेकर विचारों में कोई कमी नहीं हुई है। क्या यह एक महान व्हेल है? क्या यह डायनासोर है? एक विशाल स्क्विड? हम निश्चित रूप से यह जानते हैं कि लिव्यातान हमारी सांसों को रोक देता है। सम्भवतः हम बहुत बार अद्भुत शब्द का प्रयोग बहुत अधिक करते हैं और फलस्वरूप हमने इसके अलंकारिक बल को घटा दिया है। परन्तु इस परिस्थिति में यह शब्द सटीक बैठता है। लिव्यातान अद्भुत है।

लिव्यातान को खेलना भी अच्छा लगता है। हम इसको अनदेखा नहीं कर सकते हैं। जोनाथन एडवर्ड्स, उड़ान मकड़ी के विषय में लिखते हुए, वर्णन करता है कि जब वह मकड़ी ने उड़ान भरी तो उसके चेहरे पर मुस्कुराहट थी। इसने एडवर्ड्स को यह निष्कर्ष निकालने के लिए प्रेरित किया कि परमेश्वर ने “सभी प्रकार के जीवों, यहाँ तक कि कीड़े के लिए भी आनन्द और मनोरंजन प्रदान किया है।” यहां तक कि लिव्यातान भी। यह विशाल जानवर खेलता है। और फिर 26 पद में एक अन्य सृष्टि है। यह सृष्टि मानव निर्मित है: “उसमें जहाज़ भी हैं।” अब, हमें इसके बारे में सोचना चाहिए। परमेश्वर की रचना और हमारी रचना को समानान्तर में एक दूसरे के पास रखा गया है। भजनकार लिव्यातान पर आश्चर्य करता है, और भजनकार जहाज़ों पर आश्चर्य कर है। आप इसे चित्रामक रूप से देख सकते हैं। सम्भवतः आपने इसे स्वयं भी कहा हो: “देखो, ये जहाज़ जा रहे हैं। अद्भुत।”

जहाज़ निर्माण करने में क्या कार्य होता है? गणित और भौतिक विज्ञान, कुशल बढ़ईगीरी, अनुभव, पीढ़ी-दर-पीढ़ी साझा किए गए प्रयास एवं परीक्षण, बहुत श्रम—यह सब जहाज़ निर्माण के लिए चाहिए होती हैं। जहाज़ को चलाने के लिए क्या चाहिए होता है? नौसंचालन विधियां, विशेषज्ञता, मांसपेशी, शक्तिशाली पीठ, शक्तिशाली हाथ, धैर्य, दृढ़ संकल्प, पीढ़ियों की जुड़ी हुई बुद्धि—यह सब जहाज़ों को चलाने के काम आते है।

हमारा भजनकार चकित रह जाता है जब वह समुद्र में जाने वाले जहाज़ों को देखता है तो। हमारा भजनकार चकित रह जाता है जब वह समुद्र के विस्तार पर लिव्यातान को खेलते हुए देखता है। यह वास्तव में अद्भुत है।

हम पाते हैं, जब हम इस भजन को आगे पढ़ते हैं, कि यहां प्राकृतिक और मानव-निर्मित विशाल वस्तुओं को समुद्र को पार करने और लहरों पर खेलने से अधिक बात हो रही है। 27 पद हमें बताता है: “इन सब को” परमेश्वर द्वारा सृजितों की ओर संकेत करते हुए, “तेरा ही आसरा हैं; कि तू उनका आहार समय पर दिया करे…। तू अपनी मुट्ठी खोलता है, और वे उत्तम पदार्थों से तृप्त होते है।” हमें आनन्द मिलता है, हमें तृप्ति मिलती है, हम अपने कार्य में अर्थ को प्राप्त करते हैं। हम अपने परमेश्वर प्रदत्त उपहार को, और परमेश्वर द्वारा दिए गए संसाधनों को स्वीकार करते हैं, और फिर हम कार्य पर जाते हैं। और फिर हम तृप्त होते हैं। दाखमधु हमारे हृदय को आनन्द प्रदान करती है (पद 15)। हमारी रचनाएं हमें अचम्भित करती हैं।

ये सभी हमारे कार्य के परिणाम हैं। परन्तु इनमें से कोई भी कार्य हमारे कार्य का मुख्य उद्देश्य या अन्तिम परिणाम नहीं है। हमारे कार्य का मुख्य उद्देश्य 31 पद में आता है: “यहोवा की महिमा सदा होती रहे; यहोवा अपने कार्यों से आनन्दित हो।” हमारे कार्य का भी अर्थ है। हमारे कार्य उसकी ओर संकेत करते है जिसके स्वरूप में हम बनाए गए हैं। जब हम कार्य करते हैं, हम परमेश्वर की महिमा करते हैं। जब हम कार्य करते हैं, परमेश्वर हमसे प्रसन्न होता है। अब हमने अपने उत्तर को लड़खड़ाते हुए प्राप्त किया है कि हम कार्य क्यों करते हैं।

क्या आपने ध्यान दिया कि भजन 104 में क्या नहीं है? इसमें मन्दिर, मन्दिर के संगीतकार, याजक और उनकी गतिविधियों की कोई बात नहीं है। खेती के विषय में बात हो रही है। वहाँ दाखलताओं की देखभाल की बात की जा रही है। मानवीय श्रम की बात की जा रही है। कार्य की बात की जा रही है। 

जहाज़ों के निर्माण की बात की जा रही है।

“वहाँ जहाज़ चल रहे हैं।” परमेश्वर की ही महिमा हो।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

स्टीफन जे. निकल्स
स्टीफन जे. निकल्स
"डॉ. स्टीफन जे. निकल्स (@DrSteveNichols) रिफॉर्मेशन बाइबल कॉलेज के अध्यक्ष हैं, जो लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ के मुख्य अकादमिक अधिकारी, और लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ के सह शिक्षक हैं। वह कई पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें फॉर अस एंड फॉर ऑर सैलवेशन और ए टाइम फॉर कॉन्फीडेन्स नामक पुस्तक भी सम्मिलित हैं।"