धर्मसुधार क्यों आवश्यक था? - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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धर्मसुधार क्यों आवश्यक था?

कलीसिया को सदा धर्मसुधार की आवश्यकता है। नए नियम में भी, हम यीशु को पतरस को डांटते हुए देखते हैं, और हम पौलुस को कुरिन्थवासियों को सुधारते हुए देखते हैं। चूँकि मसीही सदा से पापी हैं, कलीसिया को सदा धर्मसुधार की आवश्यकता होगी। यद्यपि, हमारे लिए प्रश्न है, कि आवश्यकता कब एक परम आवश्यकता बन जाती है?

सोलहवीं शताब्दी के महान धर्मसुधारकों ने निष्कर्ष निकाला कि उनके समय में धर्मसुधार अत्यन्त महत्वपूर्ण और आवश्यक था। कलीसिया के लिए धर्मसुधार के पीछे चलने के लिए, उन्होंने दो चरम सीमाओं को अस्वीकृत किया। एक ओर, उन्होंने उन लोगों को अस्वीकृत किया जिन्होंने इस बात पर बाल दिया कि कलीसिया आवश्यक रूप से स्वस्थ थी और किसी मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता नहीं थी। दूसरी ओर, उन्होंने उन लोगों को अस्वीकृत किया जो यह मानते थे कि वे हर विवरण में एक सिद्ध कलीसिया का निर्माण कर सकते हैं। कलीसिया को मूलभूत धर्मसुधार की आवश्यकता थी, परन्तु उसे सदैव स्वयं में धर्मसुधार करते रहने की आवश्यकता है। धर्मसुधारक इन निष्कर्षों पर बाइबल के अपने अध्ययन के द्वारा पहुँचे थे।

1543 में,स्ट्रासबर्ग के धर्मसुधारक, मार्टिन बुसर ने जॉन केल्विन से 1544 में स्पीएर में मिलने वाली धारा-सभा में सम्राट चार्ल्स V को प्रस्तुत करने के लिए धर्मसुधार की प्रतिरक्षा मे लेख लिखने के लिए कहा। बुसर जानते थे कि रोमी कैथोलिक सम्राट उन परामर्शदाताओं से घिरे होंगे जो कलीसिया में धर्मसुधार की छवि को धूमिल कर रहे थे, और उनका विश्वास था कि केल्विन प्रोटेस्टेन्ट हित की रक्षा करने के लिए सबसे योग्य सेवक थे।

केल्विन उस चुनौती के लिए तैयार हुए और उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ लेखन “कलीसिया के धर्मसुधार की आवश्यकता” लिखा। यह ठोस लेख सम्राट को नहीं मना सका, परन्तु इसे कई लोगों के द्वारा धर्मसुधार के हित में लिखी गयी अब तक की सबसे सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति के रूप में माना जाता है।         

केल्विन ने यह लिखते हुए आरम्भ किया कि हर कोई इस बात से सहमत है कि कलीसिया को “असंख्य और गंभीर दोनों रोग” थे। केल्विन ने तर्क दिया कि समस्याएँ इतनी गम्भीर हैं कि मसीही धर्मसुधार के लिए और लम्बी देरी” या “धीमे उपचार” की प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे। उन्होंने इस तर्क को तिरस्कृत किया कि धर्मसुधारक “अतिशीघ्र और अधर्मी नवीनीकरण” के प्रति दोषी थे। इसके स्थान पर, उन्होंने इस बात पर बल दिया कि “हमारे धर्म की सच्चाई” को संरक्षित रखने के लिए “परमेश्वर ने लूथर और अन्यों को खड़ा किया है”। केल्विन ने देखा कि मसीहीयत की नींव संकट में है और यह कि केवल बाइबलीय सच्चाई ही कलीसिया को नया करेगी।

 केल्विन ने कलीसिया के जीवन में चार महान क्षेत्रों को देखा जिन्हें धर्मसुधार की आवश्यकता थी। ये क्षेत्र उसका निर्माण करते हैं जिसे वह कलीसिया के प्राण और देह कहते हैं। कलीसिया का प्राण “परमेश्वर की शुद्ध और वैध आराधना” और “मनुष्य के उद्धार” से बना है। कलीसिया की देह “कलीसियाई विधियों के प्रयोग” और “कलीसिया के शासन” से बना है। केल्विन के लिए, ये समस्याएँ धर्मसुधार के वाद-विवाद के केन्द्र में थी। ये कलीसिया के जीवन के लिए आवश्यक हैं और पवित्रशास्त्र की शिक्षा के प्रकाश में ही केवल सही से समझी जा सकती हैं।

हमें आश्चर्य हो सकता है कि केल्विन ने धर्मसुधार के विषयों में सर्वप्रथम परमेश्वर की आरधना को रखा था, परन्तु यह उनके लेखनी मे एक समनुरूप विषय रहा था। इससे पूर्व, उन्होंने कार्डिनल सैडोलेटो को लिखा था: “हमारे उद्धार के लिए परमेश्वर की निरर्थक और भ्रष्ट आराधना से अधिक जोखिम और कुछ नहीं है।“ आराधना वह है जहाँ हम परमेश्वर से मिलते हैं, और वह मिलना परमेश्वर के मानकों के अनुसार होनी चाहिए। हमारी आराधना दिखाती है कि हम परमेश्वर के वचन  को अपने अधिकारी के रूप में वास्तव में ग्रहण करते और उसके प्रति समर्पित होते हैं या नहीं। स्व-निर्मित आराधना कार्यो द्वारा धार्मिकता और मूर्तिपूजा की अभिव्यक्ति दोनों का ही एक रूप है।

इसके पश्चात्, केल्विन उस बात की ओर गए जिसे प्रायः हम धर्मसुधार का सबसे बड़ा विषय मानते हैं, अर्थात्, धर्मीकरण का सिद्धान्त:

हम मानते हैं, कि किसी व्यक्ति का कार्य चाहे कुछ भी क्यों न हो, वह परमेश्वर के सम्मुख धर्मी माना जाता है, केवल ऐच्छिक दया के आधार पर; क्योंकि परमेश्वर,  कार्यों के विषय में सोचे बिना, ख्रीष्ट की धार्मिकता उसपर अभ्यारोपित करने के द्वारा जैसे कि वह उसकी अपनी धार्मिकता हो, सेंत-मेंत मे उसे ख्रीष्ट में अपनाता है। इसे हम विश्वास की धार्मिकता कहते हैं, अर्थात्, जब एक व्यक्ति, कार्यों पर उसके भरोसे से शून्य और छूछा बना दिया जाता है, इस बात का कायल हो जाता है कि परमेश्वर द्वारा उसकी स्वीकृति का एकमात्र आधार वह धार्मिकता है जिसकी उसको घटी है  वह, और वह ख्रीष्ट से मोल ली गयी है। वह बिन्दु जिस पर संसार सदा भटक जाता है, (क्योंकि यह त्रुटि लगभग हर एक युग में प्रचलित रही है) वह यह कल्पना करने में है कि एक मनुष्य, यद्यपि वह आंशिक रूप से दोषपूर्ण क्यों न हो, कुछ सीमा तक फिर भी कार्यों के द्वारा परमेश्वर की कृपा के योग्य है।

यह मूलभूत मुद्दे जो कलीसिया के प्राण को निर्मित करते हैं वह कलीसिया की देह : कलीसियाई विधियाँ और कलीसिया का  शासन, द्वारा समर्थन पाते हैं। ये कलीसियाई विधियाँ  बाइबल मे दिए अनुसार शुद्ध और सरल अर्थ और प्रयोग के लिए पुनः स्थापित की जानी चाहिए। कलीसिया के शासन को सभी अन्यायों को अस्वीकृत कर देना चाहिए जो मसीहियों के विवेक को परमेश्वर के वचन के विपरीत बाँधती हों।

जब हम अपने समय में कलीसिया को देखते हैं, तो हम भली तरह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि धर्मसुधार की आवश्यकता है—वास्तव में, आवश्यक है—उन कई क्षेत्रों में जिनके विषय में केल्विन अत्यन्त चिन्तित थे। केवल परमेश्वर का वचन और आत्मा ही अन्ततः कलीसिया में धर्मसुधार करेगा। परन्तु हमें विश्वासयोग्यता के साथ प्रार्थना और कार्य करना चाहिए कि ऐसा धर्मसुधार हमारे समय में आए।     

 

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

डब्ल्यू. रॉबर्ट गॉडफ्रे
डब्ल्यू. रॉबर्ट गॉडफ्रे
डॉ. डब्ल्यू. रॉबर्ट गॉडफ्रे लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ के एक सह शिक्षक हैं और कैलिफ़ोर्निया के वेस्टमिन्सटर सेमिनरी में ससम्मान सेवामुक्त अध्यक्ष और प्रोफेसर हैं। वह कलीसिया के इतिहास के सर्वेक्षण के छह-भाग लिग्निएर शिक्षण श्रृंखला के लिए विशेष रूप से शिक्षक हैं और कई पुस्तकों के लेखक, जिसमें सेविंग रिफॉर्मेशन भी सम्मिलित है।