क्या धर्म सुधार समाप्त हो चुका है? - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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क्या धर्म सुधार समाप्त हो चुका है?

इस विषय पर उन लोगों के द्वारा कई अवलोकनों को प्रस्तुत किया गया है जिन्हें मैं “पहले के सुसमाचारवादी” (erstwhile evangelicals) कहूँगा। उनमें से एक ने लिखा है, “लूथर सोलहवीं शताब्दी में सही थे, परन्तु धर्मीकरण का प्रश्न अब कोई समस्या नहीं है”। एक दूसरे स्व कथित  सुसमाचारवादी ने एक पत्रकार सम्मेलन जहां मैँ भी उपस्थित था  में टिप्पणी करी कि “सोलहवीं शताब्दी का केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण पर धर्मसुधार वाद-विवाद बिना बात का बतंगड़ बनाना था।“ एक और प्रसिद्ध यूरोपी ईश्वरविज्ञानी ने लिखित मे छपवा कर यह तर्क दिया कि केवल विश्वास द्वारा अंगीकार का सिद्धान्त अब कलीसिया में कोई महत्वपूर्ण विषय नहीं रह गया है। हमारा सामना ऐसे लोगों से होता है जो प्रोटेस्टेन्ट के रूप में परिभाषित किए जाते हैं परन्तु पूर्ण रूप से भूल चुके हैं कि वे किस बात का विरोध (protest) कर रहे हैं।

केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण के सिद्धान्त के महत्व के इन समकालीन कुछ आंकलनों के विपरीत, हम सोलहवीं शताब्दी के आधिकारिक (magisterial) धर्मसुधारकों के द्वारा लिए गए भिन्न दृष्टिकोण को स्मरण करते हैं। लूथर ने प्रसिद्ध टिप्पणी करी कि केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण का सिद्धान्त एक लेख है जिसपर कलीसिया स्थिर होती है या गिरती है। जॉन केल्विन एक भिन्न रूपक का उपयोग करते हैं, यह कहते हुए कि धर्मीकरण वह चूल है जिसपर सब कुछ घूम जाता है। बीसवीं शताब्दी में, जे. आई. पैकर यह कहते हैं कि केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण “एक बिन्दु है जिसपर अन्य सभी सिद्धान्त निर्भर हैं”। बाद में पैकर उस शक्तिशाली बात से हटते हुए और एक बहुत ही शक्तिहीन बात की ओर जाते हैं, यह कहते हुए कि केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण “सुसमाचार की एक अल्पतर महत्व की बात है”।

इन चर्चाओं के प्रकाश में जिस प्रश्न का सामना हमें करना पड़ता है वह है, सोलहवीं शताब्दी से अब तक क्या परिवर्तित हुआ है? इसके सम्बन्ध में, एक अच्छा और एक बुरा समाचार है। अच्छा समाचार यह है कि ईश्वरविज्ञानीय मतभेदों में लोग अधिक सभ्य और सहनशील बन गए हैं। हम यह नहीं देखते कि ईश्वरविज्ञानीय अन्तर के कारण लोगों को जलाया जाता या उत्पीड़ित किया जाता है। हमने पिछले वर्षों में यह भी देखा है कि रोमी सम्प्रदाय मसीही शास्त्रसम्मतता के अन्य प्रमुख विषयों, जैसे कि ख्रीष्ट का ईश्वरत्व, उसका प्रतिस्थापनीय प्रायश्चित (substitutionary atonement), और बाइबल की प्रेरणा, पर दृढ़ बना रहा है, जबकि कई प्रोटेस्टेन्ट उदारवादियों ने इन विशिष्ट सिद्धान्तों को त्याग दिया है। हम यह भी देखते हैं कि रोम महत्वपूर्ण नैतिक विषयों जैसे कि गर्भपात और नीतिपरक सापेक्षवाद पर दृढ़ बना हुआ है। उन्नीसवीं शताब्दी में वैटिकन महासभा/परिषद I में, रोम ने प्रोटेस्टेन्ट को “विधर्मी और विभाजन करने वाले” कहा। बीसवीं शताब्दी में वैटिकन II में, प्रोटेस्टेन्टों को “पृथक किए गए भाई” के रूप में बताया गया। हम विभिन्न महासभाओं के स्वर में एक भिन्न अन्तर को देखते हैं। बुरा समाचार, यद्यपि, यह है कि कई सिद्धान्त जिन्होंने शास्त्रसम्मत प्रोटेस्टेन्ट को रोमी कैथोलिक से शताब्दीयों पूर्व विभाजित किया था वह  सोलहवीं शताब्दी से हठधर्मी सिद्धान्त (dogma) घोषित कर दिए गए हैं। वस्तुतः मरियम के विषय में दिए गए सभी महत्वपूर्ण आदेश पिछले 150 वर्षों में ही घोषित किए गए हैं। पोप की अचूकता का सिद्धान्त, यद्यपि वास्तविकता में इसकी औपचारिक निर्धारण से पूर्व ही यह सिद्धांत कार्य करने लगा था, फिर भी औपचारिक रूप से 1870 में वैटिकन महासभा I में डे फाइड (de fide/उद्धार के लिए आवश्यक विश्वास) परिभाषित और घोषित हुआ था। हम यह भी देखते हैं कि अभी के वर्षों में रोमी सम्प्रदाय ने एक नए कैथोलिक धर्मप्रश्नोत्तरी को प्रकाशित किया है, जो स्पष्ट रूप से ट्रेन्ट की महासभा के सिद्धान्तों की पुनः पुष्टि करती है, जिसमें धर्मीकरण का सिद्धान्त की ट्रेन्ट की परिभाषा सम्मिलित है (और इसलिए केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण के धर्मसुधार सिद्धान्त के विरुद्ध उस महासभा के बहिष्करण की घोषणाओं की पुष्टि करता है)। ट्रेन्ट की पुनः पुष्टि के साथ-साथ पाप-शोधन स्थल, आसक्ति, और गुणों के भण्डार के रोमी सिद्धान्त की स्पष्ट पुष्टि होती है। 

केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण के सिद्धान्त की निरन्तर उपयुक्तता के विषय  पर प्रमुख ईश्वरविज्ञानियों के मध्य चर्चा में, माइकल हॉर्टन ने एक प्रश्न पूछा: “पिछले दशकों में ऐसा क्या था जिसने प्रथम-शताब्दी के सुसमाचार को महत्वहीन बना दिया?” धर्मीकरण के ऊपर तर्क-वितर्क ईश्वरविज्ञान के तकनीकी बिन्दु पर नहीं था जिसे बाइबलीय सच्चाई के भण्डार के किनारों मे धकेल दिया जा सकता हो। न ही इसे बात के बतंगड़ बनाने के समान देखा जा सकता है। यह बतंगड़ छोटी से बात से कहीं आगे निकल चुका है। “उद्धार पाने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?” यह प्रश्न अभी भी किसी ऐसे व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न है जो परमेश्वर के क्रोध के अधीन है।

प्रश्न से भी अधिक महत्वपूर्ण उत्तर है, क्योंकि उत्तर सुसमाचार की सच्चाई के केन्द्र को छूता है। अन्तिम विशलेषण में, रोमी कैथोलिक कलीसिया ने ट्रेन्ट में पुष्टि की और अभी तक इस बात की पुष्टि करता रहता है कि वह आधार जिसके द्वारा परमेश्वर एक व्यक्ति को धर्मी या अधर्मी घोषित करता है वह उसकी “अन्तर्निहित धार्मिकता” में पाया जाता है। यदि धार्मिकता एक व्यक्ति में अन्तर्निहित नहीं है, वह बुरी से बुरी स्थिति में नरक और अच्छी स्थिति में (यदि उसके जीवन में कोई विशुद्धता बनी रहती है) कुछ समय के लिए पाप-शोधन स्थल जाएगा जो कि लाखों वर्ष तक के लिए बढ़ सकता है। इसके विपरीत, धर्मीकरण का बाइबलीय और प्रोटेस्टेन्ट दृष्टिकोण यह है कि हमारे धर्मीकरण का एकमात्र आधार ख्रीष्ट की धार्मिकता है, वह धार्मिकता जो विश्वासी को दी जाती है, ताकि जिस क्षण एक व्यक्ति को ख्रीष्ट में प्रमाणिक विश्वास हो, तो उद्धार के लिए वह सब जो आवश्यक है वह ख्रीष्ट की धार्मिकता को देने के गुण के कारण उनका हो जाएगा। मूलभूत समस्या यह है: जिस आधार पर पर मैं धर्मी ठहराया जाता हूँ क्या वह धार्मिकता मेरी है? या वह धार्मिकता, जैसा कि लूथर ने कहा, “एक विदेशी धार्मिकता” है, एक ऐसी धार्मिकता जो एक्स्ट्रा नॉस (extra nos), हमसे पृथक है—दूसरे की धार्मिकता, अर्थात्, ख्रीष्ट की धार्मिकता? सोलहवीं शताब्दी से वर्तमान तक, रोम ने सदा ही सिखाया है कि धर्मीकरण विश्वास पर, ख्रीष्ट पर, और अनुग्रह पर निर्भर है। यद्यपि, अन्तर यह है कि रोम अभी भी इस बात को नकारता है कि धर्मीकरण केवल ख्रीष्ट पर आधारित है, केवल विश्वास द्वारा प्राप्त होता है, और केवल अनुग्रह द्वारा दिया जाता है। इन दोनों स्थितियों के मध्य अन्तर उद्धार और उसके विपरीत के मध्य का अन्तर है। एक व्यक्ति के सामने इससे बड़ी कोई और समस्या नहीं है कि वह धर्मी परमेश्वर से अलग हो गया है।

इस समय रोमी कैथोलिक कलीसिया केवल विश्वास द्वारा धर्मीकरण के बाइबलीय सिद्धान्त की निन्दा करती है, उसने सुसमाचार को नकार दिया है  इनकार किया और मसीही शास्त्रसम्मता की अपनी समस्त पुष्टि पर ध्यान दिए बिना एक वैध कलीसिया होने से रुक गयी है। एक प्रमाणिक कलीसिया के रूप में उसे स्वीकार करना तब जब वो उद्धार के बाइबलीय सिद्धान्त का वह निरन्तर त्याग करती है प्राणनाशक होगा। हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं जहाँ ईश्वरविज्ञानीय मतभेद को राजनैतिक रूप से गलत माना जाता है, परन्तु शान्ति की घोषणा करना जब कोई शान्ति नहीं है  सुसमाचार के हृदय और प्राण को धोखा देना है।   

यह लेख  मूल रूप से टैबलेटटॉक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। 

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

आर.सी. स्प्रोल
आर.सी. स्प्रोल
डॉ. आर.सी. स्प्रोल लिग्नेएर मिनिस्ट्रीज़ के संस्थापक, सैनफर्ड फ्लॉरिडा में सेंट ऐन्ड्रूज़ चैपल के पहले प्रचार और शिक्षण के सेवक, तथा रेफर्मेशन बाइबल कॉलेज के पहले कुलाधिपति थे। वह सौ से अधिक पुस्तकों के लेखक थे, जिसमें द होलीनेस ऑफ गॉड भी सम्मिलित है।