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रो बनाम वेड निर्णय के हटाए जाने के पश्चात्: अब हमारा क्या कर्तव्य है?

परिस्थितियाँ परिवर्तित होती हैं। नियम, न्यायालय, और प्रशासन आते और जाते हैं। चुनाव शक्तिशाली लोगों को उठाते हैं और गिरा देते हैं। लोकप्रियता बढ़ती और फिर घटती है। परन्तु इन सबके मध्य में, इस दरिद्र, पतित संसार में मसीहियों की बुलाहट और उत्तरदायित्व वही बनी रहती हैं।

1973  के रो बनाम वेड निर्णय (Roe v. Wade decision)1 ने पहली बार हमें जीवन के पक्ष में खड़े होने के लिए विवश नहीं किया, और अब, जबकि इस वर्ष वह निर्णय उलट दिया गया है, हम उस कर्तव्य से चिन्तामुक्त नहीं हो गये हैं। जीवन-समर्थक आन्दोलन (pro-life movement) कोई नई घटना या नयी खोज नहीं है। यह तो दो हज़ार वर्ष पुराना है। इसका आरम्भ एक पुराने खुरदुरे क्रूस पर, एक पहाड़ पर हुआ था जो कलवरी कहलाता है। इसे मसीहियत के नाम से जाना जाता है। असहाय, वंचित, और अवांछित की देख-भाल करना केवल वह नहीं है जो हम करते हैं, वरन् यह हमारी पहचान है कि हम कौन हैं। यह सदैव से ऐसा ही रहा है। यह सदैव ऐसा ही रहेगा।

जीवन परमेश्वर का उपहार है। यह सृजित व्यवस्था पर उसकी अनुग्रहकारी देन है। यह उत्पादक फलदायकता में बहता है। पृथ्वी यथाशब्द जीवन से भरपूर है (उत्पत्ति 1:20; लैव्यव्यवस्था 11:10; 22:5; व्यवस्थाविवरण 14:9)। और इस पवित्र भरपूरी की सर्वोच्च महिमा है मानवजाति है, जो कि परमेश्वर के स्वरूप में बनाई गयी है (उत्पत्ति 1:26-30; भजन 8:1-9)। इस भव्य देन की पवित्रता का उल्लंघन करना पवित्रता, न्याय, और सत्य के प्रति विद्रोह करना है (यिर्मयाह 8:1-17; रोमियों 8:6)।

दुर्भाग्यवश, पतन के समय, मानवजाति को अचानक ही मृत्यु के लिए निर्धारित कर दिया गया था (यिर्मयाह 15:2)। उसी क्षण हम सब मृत्यु की वाचा में बन्ध गये (यशायाह 28:15)। “ऐसा मार्ग भी है जो मनुष्य को ठीक जान पड़ता है, परन्तु उसके अन्त में मृत्यु ही मिलती है”(नीतिवचन 14:12; 16:25)।

“कोई धर्मी नहीं, एक भी नहीं। कोई समझदार नहीं। कोई भी नहीं जो परमेश्वर को खोजता है। सब भटक गए, वे सब भी निकम्मे बन गए हैं; कोई भलाई करने वाला नहीं, एक भी नहीं। उनका गला खुली कब्र है, वे अपनी जीभ से धोखा देते रहते हैं, उनके होंठों में सर्पों का विष है; उनका मुख शाप और कड़वाहट से भरा हुआ है; उनके पैर लहू बहाने को तत्पर रहते हैं, उनके मार्गों में विनाश और क्लेश हैं, और उन्हें शान्ति का मार्ग जाना ही नहीं। उनकी आंखों के समक्ष परमेश्वर का भय है ही नहीं”। (रोमियों 3:10-18)

तब तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि गर्भपात, शिशु हत्या, मृत्यु हेतु शिशुओं की उपेक्षा, और शिशुओं का परित्याग सदैव से ही पतित मानवीय सम्बन्धों का एक सामान्य भाग रहा है। पतन से ही, मनुष्य ने अपनी भ्रष्ट लालसाओं को सन्तुष्ट करने के लिए चतुर युक्ति निकाली हैं। और बाल-हत्या सदैव से उसमें प्रमुख रहा है।

प्राचीनकाल में लगभग हर संस्कृति निर्दोष बच्चों की हत्या से कलंकित है। प्राचीन रोम में अवांछित शिशुओं को नगर की दीवार के बाहर खुले में पड़े रहने या जंगली भूखे पशुओं के आक्रमण से मरने के लिए छोड़ दिया जाता था। यूनानी प्रायः अपनी गर्भवती स्त्रियों को औषधीय या आरोग्यकर गर्भनाशक की कड़ी खुराक दे देते थे। फारसियों ने उच्च स्तर के प्रभावशाली शल्यसम्बन्धी क्यूरेट प्रक्रिया (surgical curette procedures)‌ को विकसित किया। प्राथमिक कनानी अपने बच्चों को तेज़ धधकती शव शैयाओं पर अपने देवता मोलेक को बलिदान चढ़ाने के लिए फेंक देते थे। मिस्री अपने अवांछित बच्चों की जन्म के कुछ समय पश्चात् ही अंतड़ी निकाल कर (disembowelling) और अंग-भंग करके (dismembering) समाप्त कर देते थे—उनके मज्जे को फिर रीति के रूप में प्रसाधन क्रीम के निर्माण के लिए काटा जाने लगा। प्लेटो (Plato) और अरस्तू (Aristotle) से सेनेका (Seneca) और क्विनटिलियन (Quintilian) तक, पाइथागोरस (Pythagoras) और एरिस्टोफेंस (Aristophanes) से लिवाय (Livy) और सिसरो (Cicero) तक, हेरोडोटस (Herodotus) और थुकयिददेश (Thucydides) से प्लूटार्क (Plutarch( और यूरिपिडिज़ (Euripides) तक — प्राचीन संसार के किसी भी महान दार्शनिक ने किसी भी रूप में बाल-हत्या की निन्दा नहीं की। वरन्, अधिकांश ने इसके पक्ष में थे। वे संवेदनहीन रीति से इसकी भिन्न-भिन्न विधियों और प्रक्रियाओं पर चर्चा करते थे।  वे सहजता से इसके विभिन्न कानूनी प्रभावों पर तर्क-वितर्क करते थे। वे प्रसन्नतापूर्वक जीवनों को पासे के जैसे उछालते थे। वास्तव में, गर्भपात, शिशु हत्या, मृत्यु हेतु शिशुओं की उपेक्षा, और शिशुओं का परित्याग मानव समाज का ऐसा भाग था कि वे लोकप्रिय परम्पराओं, कथाओं, मिथकों, दन्तकथाओं, और आलेखों को प्राथमिक साहित्यिक आवर्ती  विचार प्रदान करते थे— रोम्यूलस (Romulus) और रेमस (Remus) से लेकर ईडिपस (Oedipus), पोसैडन (Poseidon), ऐस्क्लेपियस (Asclepius), हैफेस्टस (Hephaestus) और सिबेली (Cybele) तक।

परन्तु परमेश्वर का धन्यवाद हो, परमेश्वर, जो जीवन का दाता (प्रेरितों के काम 17:25), जीवन का सोता (भजन 36:9), जीवन का रक्षक (भजन 27:1‌), जीवन का राजकुमार (प्रेरितों के काम 3:15), और जीवन का पुनर्स्थापक (रूत 4:15) है, उसने मनुष्य को पाप और मृत्यु के चंगुल के निराशाजनक रूप से क्षीण होने के लिए नहीं छोड़ा। उसने न केवल हम तक जीवन का सन्देश (प्रेरितों के काम 5:20), और जीवन के शब्द (यूहन्ना 6:68) भेजे, परन्तु उसने साथ ही जीवन की ज्योति भी भेजी (यूहन्ना 8:12)। उसने हमारे लिए अपने एकलौते पुत्र—जगत का जीवन (यूहन्ना 6:51) को— मृत्यु के बन्धनों को तोड़ने के लिए भेजा (1 कुरिन्थियों 15:54-56)। यीशु ने सबके लिए “मृत्यु का स्वाद चखा” (इब्रानियों 2:9), वास्तव में हमारे लिए “मृत्यु का नाश” कर दिया (2 तिमुथियुस 1:10) और हमें नया जीवन प्रदान करता है (यूहन्ना 5:21)।

 डिडाखे (Didache), जो आरम्भिक मसीही लिखित लेखों में से एक—वास्तव में जो नए नियम के लेखों के समय लिखा गया— दृढ़तापूर्वक बताता है कि “दो मार्ग हैं: एक जीवन का मार्ग और एक मृत्यु का मार्ग”। ख्रीष्ट में, परमेश्वर हमें इन दोनों मार्ग के मध्य चुनने का अवसर प्रदान किया है—एक ओर फलदायी और भरपूरी का जीवन का मार्ग और दूसरी ओर फलहीन और दरिद्र मृत्यु का मार्ग (व्यवस्थाविवरण 30:19)।

ख्रीष्ट के पृथक, पाप और मृत्यु के जाल से निकलना सम्भव नहीं है (कुलुस्सियों 2:13)। दूसरी ओर, “यदि कोई ख्रीष्ट में है तो वह नयी सृष्टि है। पुरानी बातें बीत गयीं। देखों नयी बातें आ गयीं हैं” (2 कुरिन्थियों 5:17)।

हर स्थान पर मनुष्यों की स्वाभाविक प्रवृत्ति के विरोध में जीवन के पक्ष में कलीसिया का संघर्ष सदैव ही से कालिक इतिहास (temporal history) में प्राथमिक द्वंद रहा है और सदैव ही रहेगा। यह रो बनाम वेड  से बहुत पूर्व ऐसा था और बहुत बाद तक रहेगा, जब तक प्रभु विलम्ब करेगा।

तो, रो बनाम वेड के हटाए जाने के पश्चात्, अब हमारा क्या कर्तव्य है?? वह सदैव से वही है: हमें सुसमाचार के कारण उन सब बातों के लिए बोलना चाहिए जो सही और भली और सत्य हैं। हमें दरिद्रों, पीड़ितों, और उपेक्षितों की देखभाल करनी चाहिए। हमें प्रेम में सत्य बोलना चाहिए। हमें अपने न्यायाधीशों को उनके उत्तरदायित्वों का स्मरण कराना चाहिए। हमें चेले बनाने चाहिए। हमें शुभ सन्देश की घोषणा पर दृढ़ रहना चाहिए, जो कि सब कुछ को परिवर्तित कर देता है। हमारी मध्यस्थता और परिश्रम अनवरत होना चाहिए।

हमारे स्थानीय संकट गर्भावस्था केन्द्रों (crisis pregnancy centres) को हमारे पहले से अधिक सहयोग की आवश्यकता है। हमारे उपदेशमंचों को पहले से अधिक व्यवहारिक, पास्तरीय, और आधिकारिक तात्कालिकता के साथ गूँजना चाहिए। और हमें पहले से अधिक परमेश्वर के महिमावान प्रतिज्ञा को स्मरण रखने की आवश्यकता है: ”देखों, मैं एक नया काम करूँगा। वह अभी प्रकट होगा। क्या तुम उस से अनजान ही बने रहोगे? मैं जंगल में एक मार्ग बनाऊँगा और मरुभूमि में नदियां बहाऊँगा” (यशायाह 43:19)।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।


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जॉर्ज ग्रान्ट
जॉर्ज ग्रान्ट
डॉ. जॉर्ज ग्रान्ट पैरिश प्रेस्बिटेरियन चर्च के पास्टर, न्यू कॉलेज फ्रैन्क्लिन के संस्थापक, किग्ज़ मेडो स्टडी सेन्टर के निर्देशक, फ्रैन्क्लिन टेन्नस्सी में फ्रैन्क्लिन क्लासिकल स्कूल के संस्थापक, और रिज़िस्टन्स और रेफर्मेशन पॉडकास्ट के परिचारक हैं। वे अनेक पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें द मयका मैन्डेट: बैलन्सिंग द ख्रिस्चियन लाय्फ सम्मिलित हैं।