विश्वासयोग्यता और फलदायी होना - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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विश्वासयोग्यता और फलदायी होना

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का चौवथा अध्याय है: सफलता

रिचर्ड ग्रीनहैम, जो सोलहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध प्यूरिटन ईश्वरविज्ञानियों में से एक थे, अपने समय में प्रिय थे इंग्लैंड में कई विश्वासियों के साथ-साथ अपने साथी प्यूरिटन सेवकों के लिए आत्मिक सहायता के कारण। अधिक संख्या में प्यूरिटन पास्टर अपने मण्डलियों के लोगों को ग्रीनहैम के पास भेजते थे अधिक कठिन “विवेक के विषय” समझे जाने वाले बातों के लिए। फिर भी, ग्रीनहैम ने ड्राय ड्रेटन—वह अत्यधिक छोटे ग्रामीण शहर जहाँ उन्होंने सेवा की—में अपनी कलीसिया में अधिक फल नहीं देखने पर खेद व्यक्त किया—अपनी लगभग इक्कीस वर्ष की सेवकाई के समयकाल में। अपनी मण्डली के आत्मिक स्थिति पर विचार करते हुए, ग्रीनहैम ने “उपदेश की बीमारी” और “फल की कमी” के विषय में बात की। एक लेखक ने एक बार ड्राई ड्रेटन में ग्रीनहैम की सेवकाई का वर्णन निम्नलिखित शब्दों में किया: “उसके पास हरे-भरे चरागाह थे, परन्तु भेड़ें पूरी दुबली थीं।” उनकी मृत्यु के पश्चात, ड्राई ड्रेटन में छोटी मण्डली ग्रीनहैम के उत्तराधिकारी के अधीन आत्मकि रूप से और संख्यात्मक रूप से सम्पन्न हुई। किसी ने एक बार ग्रीनहैम से अलगे सेवक से पूछा कि इस प्रकार की वृद्धि का अनुभव करने के लिए उसने क्या किया था। बिना किसी हिचकिचाहट के उसने बताया कि यह ग्रीनहैम के विश्वासयोग्य परिश्रम का फल था। जबकि रिचर्ड ग्रीनहैम उन लोगों के बीच उस फल को देखने के लिए नहीं जीए, जिन लोगों की उन्होंने चरवाही की थी, ड्राई ड्रेटन में उनकी विश्वासयोग्यता ने आने वाले वर्षों में मण्डली के क्षेत्रों को फल लाने के लिए तैयार करने में सहायक थी।

विश्वासयोग्यता और फलदायी होने के बीच के सम्बन्ध को समझना उनके लिए कोई छोटा महत्व नहीं रखता है जो अपने जीवन को सुसमाचार की सेवकाई में उण्डेल देते हैं। यह सभी विश्वासियों के लिए समान रूप से है। यदि एक प्रश्न है जिस पर सेवक और मण्डली के लोग प्रायः विचार करते हैं, वह यह है: मुझे कैसे पता चलेगा कि ख्रीष्ट के लिए मेरा परिश्रम फलदायी रहा है? 

हमारे लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम सबसे पहले फलदायी होने के विषय पर बाइबलीय शिक्षा को स्थापित करें। जब फरीसी यूहन्ना से बपतिस्मा लेने के लिए उसके पाए आए, तो उसने उनसे कहा, “पश्चाताप के योग्य फल लाओ” (लूका 3:8)। इसी प्रकार, यीशु ने कहा, “अच्छा पेड़ अच्छा फल देता है” (मत्ती 7:17)। इसके अतिरिक्त, यीशु ने प्रतिज्ञा की कि जब परमेश्वर के वचन का बीज परिवर्तित हृदय पर गिरता है, तो वह “वास्तव में फल लाता है” (मत्ती 13:23)। प्रेरित पौलुस ने यह प्रकट किया कि वह सेवकाई में फलदायी होने के लिए बहुत गम्भीर था, जब उसने फिलिप्पियों के विश्वासियों से यह कहा, “यदि मैं सदेह जीवित रहूं तो इसका अर्थ मेरे लिए फलदायी परिश्रम है” (फिलिप्पियों 1:22)। प्रेरित ने विश्वासियों के जीवन और परिश्रम में फलदायी होने के विषय में भी गहराई से चिन्तित। जब उसने कुलुस्से की कलीसिया को लिखा, तो उसने विश्वासियों को उस मार्ग के विषय में स्मरण दिलाया जिसमें सुसमाचार “निरन्तर फल लाता और बढ़ता जाता है— उसी प्रकार जिस दिन से तुमने उसे सुना और सच्चाई से परमेश्वर के अनुग्रह को समझा, वह तुम में भी कार्य करता जा रहा है” (कुलुस्सियों 1:6)। अवश्य, हमारे हृदय स्वाभाविक रूप से आत्मा के फल के विषय में प्रेरित के प्रसिद्ध खण्ड पर बार-बार वापस जाते हैं (गलातियों 5:22-23)। जब हम यीशु और प्रेरितों की शिक्षाओं पर विचार करते हैं, तो हम पाते हैं कि फलदायी होना परमेश्वर का कार्य है, जो ख्रीष्ट के बचाने वाले कार्य पर आधारित है और अपने लोगों के जीवन (ईश्वरीय चरित्र) और श्रम (राज्य कार्य) दोनों में उसकी आत्मा द्वारा सम्प्रभुता के लिए लाया जाता है।

परन्तु फलदायी होने की प्रकृति क्या निर्धारित करती है? क्या फलदायी होना हमारे परिश्रम के अनुरूप है? या क्या हम केवल विश्वासयोग्य बने रहने और जो होता है उसे होने देना चाहिए? धन्यवाद हो, कि पवित्रशास्त्र हमें ऐसे कई विधियां प्रदान करता है जिनके द्वारा हम विश्वासयोग्यता और फलदायी होने के बीच के सम्बन्ध के विषय में इन प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं।

फलदायी बनाना अन्ततः परमेश्वर का कार्य है, जिसे तब पूरा किया जाता है जब हम अपने जीवन के सभी क्षेत्रों में और उन सभी क्षेत्रों में जिसमें वह हमें बुलाता है, विश्वासयोग्य होने की खोज में स्वयं को उसके प्रति समर्पित करते हैं। हमें फलदायी होने को उस रीति से देखने के प्रलोभन से बचना चाहिए जैसे एक शेयर बाज़ार में धन लगाने वाला व्यक्ति निवेशसूचि को देखता है। यह हमारे जीवन और परिश्रम को देखने और यह कहना एक बहुत बड़ी मात्रा में आत्मिक भूल है, “यदि मैं इसे आज करुँ और उसे कल, तो परिणाम क, ख, या ग होगा।” प्रेरित पौलुस ने ऐसे सेवकों के विरुद्ध अपनी सेवकाई का बचाव करते हुए, जो अपनी स्वयं की उपलब्धियों पर घमण्ड करते थे, लिखा: “मैंने बोया, अपुल्लोस ने सींचा, परन्तु परमेश्वर ने बढ़ाया” (1 कुरिन्थियों 3:6-7)। भजनकार ने, निश्चित शब्दों में, उसी सिद्धान्त को सिखाया जब उसने लिखा, “यदि घर को यहोवा न बनाए, तो बनाने वाले व्यर्थ परिश्रम करते हैं” (भजन 127:1)। जितना अधिक हम इस सिद्धान्त को समझेंगे और ग्रहण करेंगे, उतना ही अधिक हम स्वयं को उसके प्रति इस प्रकार समर्पित करने के लिए तैयार होंगे कि वह जिस रीति से चाहे हम उपयोग किये जाने के लिए इच्छुक होंगे।

जबकि हम इस बात को पहचानते हैं कि फलदायी होना परमेश्वर का कार्य है, हमें यह समझना चाहिए कि सत्यनिष्ठा हमारे विश्वासयोग्य जीवन और परिश्रम का एक अनिवार्य भाग है। अति-कैल्विनवाद का एक जटिल रूप हमारे विचार में आ सकता है जब हम स्वीकार करते हैं कि फलदायी होना परमेश्वर का कार्य है। हम स्वयं में विचार करना आरम्भ कर सकते हैं, या स्वयं को यह कहते हुए पकड़ सकते हैं कि, “इससे कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि हम क्या करते हैं, क्योंकि दिन के अन्त में, यह सब परमेश्वर का कार्य है।” रूचिकर बात यह है कि उसी पत्र में जिसमें उसने यह स्वीकार किया कि “परमेश्वर ही है जो बढ़ाता है”, पौलुस कहता है, “मैंने उन सब से बढ़कर परिश्रम किया, फिर भी मैंने नहीं, परन्तु परमेश्वर के अनुग्रह ने मेरे साथ मिलकर किया” (1 कुरिन्थियों 15:10)। नीतिवचन में, सुलैमान ने बुद्धिमानी से कहा, “परिश्रमी के हाथ शासन करते हैं” (नीतिवचन 12:24)। एक लेखक हमारे आत्मिक कार्यों में परिश्रमी होने के लिए हमारे उत्तरदायित्यों को सहायक रीति से प्रस्तुत करता है, जब वह कहता है, “आप परमेश्वर की सहायता से सेवकाई कर सकते हैं, इसलिए जो कुछ आपके पास है उसे दें। आप परमेश्वर की सहायता के बिना सेवकाई नहीं कर सकते, इसलिए शान्त रहें।” यह प्रत्येक उस क्षेत्र में सत्य है जिसमें विश्वासी परमेश्वर के प्रति विश्वासयोग्य होना चाहता है। जिन कार्यों के लिए परमेश्वर ने हमें बुलाया है, उन्हें भक्तिपूर्वक पूरा करने में परिश्रम अन्ततः फलदायी होगा।

कुशलता विश्वासयोग्यता का एक और महत्वपूर्ण पहलू है जिसका परिणाम फलदायी होता है। ऐसे कई कार्य हैं जो मैं कभी नहीं करूंगा क्योंकि परमेश्वर ने मुझे उन कार्यों के लिए दान नहीं दिया है और न ही मुझे बुलाहट दी है। मैं कभी भी व्यवसायी खेल नहीं खेलूंगा या संगीत सभा के लिए पियानोवादक नहीं बनूंगा। मैं कभी भी परमाणु भौतिक विज्ञानी या हृदय रोग विशेषज्ञ नहीं बनूंगा। मैं इस तथ्य से पूर्ण रीति से सन्तुष्ट हूँ कि मुझे ऐसा करने का दान नहीं दिया गया है। उसी प्रकार, परमेश्वर प्रत्येक विश्वासी को पूर्णकालिक समय के लिए सुसमाचार सेवकाई में नहीं बुलाता है। रोम में विश्वासियों के लिए प्रेरित के मांग पर विचार करें:

जबकि उस अनुग्रह के अनुसार जो हमें दिया गया है, हमें विभिन्न वरदान मिलें हैं, तो जिसको भविष्यवाणी का दान मिला है, वह विश्वास के परिणाम के अनुसार भविष्यवाणी करे; यदि सेवा का, तो सेवा में लगा रहे; जो शिक्षक है, वह शिक्षा देने में: यह वह जो उपदेशक है, वह उपदेश देने में; दान देने वाला उदारता से दे; नेतृत्व करने वाला परिश्रम से करे, दया करने वाला प्रसन्नतापूर्वक करे। (रोमियों 12:6-8)

हमें यह भी समझना चाहिए कि फलदायी होना परिश्रम या सामाजिक स्थिति पर निर्भर नहीं है। हम भ्रान्ति पूर्वक स्वयं को विश्वास दिला सकते हैं कि जितना बड़ा उन्नत स्थान होगा, उतना ही अधिक फल मिलेगा। हम सांसारिक अर्थों में आत्मिक फल के विषय में विचार करने के फंदे में पड़ सकते हैं—ऐसा जीना जैसे कि स्वाभाविक रूप से कुशल, धनी, या प्रभावशाली व्यक्ति वे हैं जिनके फलदायी होने की सबसे अधिक सम्भावना है। तथापि, प्रेरित पौलुस ने कुरिन्थुस की कलीसिया को यह बहुत ही अति आवश्यक बात स्मरण दिलाया:

शरीर के अनुसार तुम में से न तो बहुत बुद्धिमान, न बहुत शक्तिमान, और न बहुत कुलीन बुलाए गए। परन्तु परमेश्वर ने संसार के मूर्खों को चुन लिया है कि ज्ञानवानों लज्जित करे, और परमेश्वर ने संसार के निर्बलों को चुन लिया है कि बलवानों को लज्जित करे, और परमेश्वर ने संसार के निकृष्ट और तुच्छों को, वरन उनकों को भी जो हैं भी नहीं चुन लिया, कि उन्हें जो हैं व्यर्थ ठहराए, जिससे कि कोई प्राणी परमेश्वर के सामने घमण्ड न करें। (1 कुरिन्थियों 1:26-29)

उस फल पर विचार करें जिसे प्रेरित ने बन्दीगृह में रहते समय सेवकाई में देखा था। प्रभु ने पौलुस का उपयोग कैसर को परिवर्तित करने के लिए नहीं परन्तु कैसर के बन्दीगृह के कुछ पहरेदारों को परिवर्तित करने के लिए किया। इसके अतिरिक्त, पौलुस ने फिलेमोन से कहा कि यह भागने वाला दास उनेसिमुस था जो “इस से पूर्व तो तेरे लिए किसी काम का न था, परन्तु अब तेरे और मेरे दोनों के लिए उपयोगी है” (फिलेमोन 1:11, कुलुस्सियों 4:9)। यह असंभावित और अप्रत्याशित व्यक्तियों के प्रकार का एक प्रमुख उदाहरण है जिसे परमेश्वर बहुत फलदायी बनाता है।  

इसके साथ ही साथ, हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि फलदायी होना अलग-अलग समय या वर्षों में आती है। हम नहीं जान सकते कि आत्मिक फल कब दिखाई देगा। विश्वास की महान सूची में सन्तों के विषय में कहा जाता है कि इस जीवन में उनके विश्वासयोग्य जीवन और परिश्रम के अलग-अलग परिणाम थे (इब्रानियों 11)। कुछ विजयी हुए— राज्य जीते, धार्मिकता के कार्य किए, प्रतिज्ञा की हुए वस्तुए प्राप्त की, सिंहों के मुह बन्द किए, आग की ज्वाला को शान्त किया, तलवार की धार से बच निकले, इत्यादि। दूसरों को पीड़ित किया गया— यातनाएं दी गईं, परन्तु उन्होंने छुटकारा न चाहा, ठट्ठों में उड़ाए जाने और कोड़े खाने, बन्धनों या कैद में पड़े रहने, पथराव किए जाने, आरे से चीरकर उनके जो टुकड़े कर दिए जाने, रेगिस्तानों, पर्वतों, गुफाओं और पृथ्वी की दरारों में छिपते फिरे। फिर भी, अन्त में, उन सभी को महिमा में अपने परिश्रम का फल प्राप्त हुआ। स्वर्ग में उठा लिया जाने वाला ख्रीष्ट प्रत्येक को विजयी मुकट देता है। पुनरुत्थान में, वे सभी सन्तों के साथ, अपने जीवन और परिश्रम के पूर्ण फल का अनुभव करेंगे। 

अन्ततः, यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान हमारी विश्वासयोग्यता और फलदायी होना दोनों का आधार है। पौलुस बताता है कि “हमारे परिश्रम प्रभु में व्यर्थ नहीं है”— क्योंकि यीशु ख्रीष्ट मृतको में से जी उठा है (अध्याय के बड़े संदर्भ के प्रकाश में 1 कुरिन्थियों 15:58 पर विचार करें)। यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान ने उसके लोगों के जीवन में आत्मिक फल सुरक्षित किया है। अन्ततः हमारा सम्पूर्ण फलदायी होना यीशु ख्रीष्ट के साथ हमारे मिलन से आती है, जो जीवन देने वाला, फल देने वाला दाखलता है ( यूहन्ना 15:1-11, 16)। ख्रीष्ट हमें हमारे जीवनों और परिश्रमों में फलदायी बनाने के लिए समर्पित है ताकि परमेश्वर को उस कार्य के लिए महिमा मिले जो उसने अपने लोगों में किया है। जब हम प्रत्येक उन सभी बातों में दृढ़ और स्थिर होने का प्रयास करते हैं जिसके लिए प्रभु हमें अपने वचन में बुलाता है, तो हम निश्चित हो सकते हैं कि “हमारे परिश्रम प्रभु में व्यर्थ नहीं है।”

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया।
निकोलस टी. बैट्ज़िग
निकोलस टी. बैट्ज़िग
रेव्ह. निकोलस टी. बैट्ज़िग (@Nick_Batzig) लिग्नियर सेवकाई के एक सहयोगी संपादक हैं। वे फीडिंग ऑन क्राइस्ट (Feeding on Christ) पर ब्लॉग करते हैं।