हृदय और मस्तिष्क - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ %
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हृदय और मस्तिष्क

जब आप पहली बार हृदय और मस्तिष्क शब्द सुनते हैं, सम्भवतः आप महान् आज्ञा के विषय में सोचने लगते हैं कि “तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे हृदय और अपने सारे प्राण और [अपने सारे मस्तिष्क] से प्रेम कर” (मत्ती 22:37)। यीशु अपने श्रोताओं को स्मरण दिला रहा है कि उन्हें अपने सम्पूर्ण अस्तित्व से प्रभु से प्रेम करना चाहिए। जबकि कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि इन शब्दों को एक दूसरे के स्थान पर उपयोग किया जा रहा है, इन्हें एक दूसरे से भिन्न भी किया जा सकता है। प्राण शब्द व्यक्ति के उस सम्पूर्ण अस्तित्व का वर्णन करने के लिए उपयोग किया जाता है जो अनन्तकाल तक अस्तित्व में रहेगा (16:26)। इस लेख का शेष भाग हृदय और मस्तिष्क के मध्य बाइबलीय भिन्नता को समझाएगा।

साधारण रीति से मस्तिष्क का सम्बन्ध हमारे विचारों से है। हृदय हमारे स्नेहों का प्रतिनिधित्व करता है, अर्थात् उन बातों का जिनके विषय में हम वास्तव में रुचि रखते हैं। महान् आज्ञा के सम्बन्ध में जिसके अनुसार हमें सम्पूर्ण हृदय और मस्तिष्क से प्रभु से प्रेम करना चाहिए, यह स्पष्ट है कि हम इस स्तर से बहुत कम पाए जाते हैं। वास्तविकता तो यह है कि हम उस स्तर के आस-पास भी नहीं हैं। पवित्रशास्त्र सिखाता है कि हमारे हृदय और मस्तिष्क पाप द्वारा दूषित हैं। यिर्मयाह सिखाता है कि “[हृदय] तो सब वस्तुओं से अधिक धोखेबाज़ होता है, और असाध्य रोग से ग्रस्त है; उसे कौन समझ सकता है?” (यिर्मयाह 17:9)। मस्तिष्क के सम्बन्ध में बाइबल प्रथम दम्पत्ति के पतन के मानसिक प्रभाव का वर्णन करती है। पतित सोच की बात करते हुए पौलुस लिखता है, “शारीरिक मन [मस्तिष्क] तो परमेश्वर से शत्रुता करता है” (रोमियों 8:7)।

यद्यपि, यह सोचना त्रुटि होगी कि हृदय और मस्तिष्क परस्पर असम्बन्धित हैं या फिर वे स्वतन्त्र रीति से कार्य करते हैं। पवित्रशास्त्र हृदय को स्नेह का केन्द्र, और शेष भागों का नियन्त्रण केन्द्र कहता है। “अपने हृदय की चौकसी पूरे यत्न के साथ कर, क्योंकि जीवन का मूल-स्रोत वही है” (नीतिवचन 4:23)। इसीलिए हृदय का झुकाव हमारे विचारों को और कार्यों को प्रभावित करता है। ध्यान दें कि उत्पत्ति 6:5 में दोनों का क्या सम्बन्ध है: “तब यहोवा ने देखा कि पृथ्वी पर मनुष्य की दुष्टता बहुत बढ़ गई है, और उसके [हृदय] के प्रत्येक विचार [का अभिप्राय] निरन्तर बुरा ही होता है।” हृदय बुरे अभिप्राय और विचारों का स्रोत है। पौलुस इफिसियों 4:18 में दोनों को जोड़ता है: “उस अज्ञानता के कारण जो उनमें है, और उनके [हृदय] की कठोरता के कारण, उनकी बुद्धि अन्धकारमय हो गई है, और वे परमेश्वर के जीवन से अलग हो गए हैं।” उनकी “अन्धकारमय बुद्धि” और अज्ञानता का स्रोत उनके हृदय की कठोरता है।

यीशु अपने शत्रुओं को उनके सतही और कर्मकाण्डवादी होने के विषय में चुनौती देते समय भी यही सम्बन्ध बनाते हैं: “भला मनुष्य अपने हृदय के भले ख़जाने से भली बातों को ही निकालता है, पर बुरा मनुष्य अपने हृदय के बुरे ख़जाने से बुरी बातें निकालता है, क्योंकि जिन बातों से उसका हृदय भरा होता है उन्हीं बातों को वह मुँह पर लाता है” (लूका 6:45)। यहाँ पर यह सम्बन्ध हृदय से लेकर हमारे शब्द और व्यवहार तक बढ़ाया गया है।

यही कारण है कि आप “तर्क” के द्वारा किसी को परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं करा सकते हैं। निश्चय ही मसीहियत तार्किक और तर्कसंगत है, परन्तु बिना परिवर्तित हृदय के इस बात को नहीं देखा जा सकता है। हृदय का, जो कि व्यक्ति का नियन्त्रण केन्द्र है, परिवर्तित होना अनिवार्य है। और यहेजकेल 36:26 में प्रभु इसी बात की प्रतिज्ञा करता है: “और फिर मैं तुम्हें एक नया हृदय दूँगा और तुम्हारे भीतर एक नई आत्मा उत्पन्न करूँगा और तुम्हारी देह में से पत्थर का हृदय निकालकर तुम्हें माँस का हृदय दूँगा।” हमारे विचारों में परिवर्तन का वास्तविक आरम्भ तभी हो सकता है जब हमें नया हृदय दिया जाता है।

मस्तिष्क और हृदय दोनों इस परिवर्तन की प्रणाली में सम्मिलित हैं। मस्तिष्क के सम्बन्ध में सुसमाचार के तथ्यों को जानना अनिवार्य है (नोटिश्या-notitia)। परन्तु केवल तथ्यों को जानना पर्याप्त नहीं है। व्यक्ति को सुसमाचार के तथ्यों की पुष्टि भी करनी चाहिए (असेन्सस-assensus)। यह भी अनिवार्य है कि इस सत्य को स्नेह से स्वीकार किया जाए और ग्रहण किया जाए (फिडुश्या-fiducia)। बचाने वाले विश्वास के पूर्ण विवरण में सत्य की यह अन्तिम स्वीकृति हृदय से व्यवहार करती है।

यह सब सम्पूर्ण जीवन के प्रति एक नए दृष्टिकोण को उत्पन्न करता है। इस क्षण से हमें बुलाया जाता है कि हमारे मस्तिष्कों के कार्य करने के माध्यम से हम अपने हृदयों को परमेश्वर के लिए दृढ़ और सशक्त करें। इसके विषय में नए नियम में कुछ अद्भुत भाषा पाई जाती है। रोमियों की पत्री में पौलुस लिखता है, “इस संसार के अनुरूप न बनो, परन्तु अपने मस्तिष्क के नए हो जाने से तुम परिवर्तित हो जाओ कि परमेश्वर की भली, ग्रहणयोग्य और सिद्ध इच्छा को तुम अनुभव से [समझते] रहो” (रोमियों 12:2)। जिस शब्द को यहाँ “परिवर्तित” के रूप में अनुवादित किया गया है यह वही शब्द है जिस से अंग्रेज़ी शब्द मेटामॉर्फोसिस (metamorphosis) प्राप्त होता है। जब हम उस शब्द को सुनते हैं, हम प्रायः उस धीमे परिवर्तन के विषय में सोचते हैं जिसके द्वारा एक तितली विकसित होती है। हमारे साथ समानता यह है कि हमारे सोचने की रीति में एक धीमा परिवर्तन होता है। अब हम अपने विचारों में केवल पृथ्वी की बातों के विषय में नहीं सोचते हैं, परन्तु हमें एक नए दृष्टिकोण को विकसित करना चाहिए जो यहाँ की बातों से बढ़ते हुए एक ईश्वरीय दृष्टिकोण को भी अपना लेता है। पौलुस इस बात को कुलुस्सियों को लिखी गई अपनी पत्री में व्यक्त करता है:

यदि तुम ख्रीष्ट के साथ जीवित किए गए तो उन वस्तुओं की खोज में लगे रहो जो स्वर्ग की हैं, जहाँ ख्रीष्ट विद्यमान है और परमेश्वर की दाहिनी ओर विराजमान है। अपना [मस्तिष्क] पृथ्वी पर की नहीं, परन्तु स्वर्गीय वस्तुओं पर लगाओ, क्योंकि तुम तो मर चुके हो और तुम्हारा जीवन ख्रीष्ट के साथ परमेश्वर में छिपा हुआ है। (कुलुस्सियों 3:1-3)

यह समझना महत्वपूर्ण है कि पौलुस के तर्क का उद्देश्य यह नहीं है कि एक ऐसी पद्धति को अपनाया जाए जो “स्वर्ग के विषय में इतना अधिक चिन्तित है कि वह पृथ्वी पर व्यर्थ है।” इसके विपरीत, रोमियों में उसके शब्दों को देखने से यह ज्ञात होता है कि हमारे मस्तिष्कों के नए किए जाने का उद्देश्य है कि “परमेश्वर की भली, ग्रहणयोग्य और सिद्ध इच्छा को [हम] अनुभव से [समझते रहें],” जिसका परिणाम यह होगा कि हमारा जीवन हमारे सृष्टिकर्ता और छुटकारा देने वाले के प्रति हमारे प्रेम को प्रकट करेगा। जबकि यह सत्य है कि स्वर्ग से पहले हमारा प्रेम कभी भी सिद्ध नहीं होगा, उसने अपने आत्मा और अपने वचन को हमें दिया है कि हमारे हृदय और मस्तिष्क के उत्साह को तब तक बढ़ाए जब तक हम उससे न मिलें।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

टिमोथी ज़ेड. विट्मर
टिमोथी ज़ेड. विट्मर
टिमोथी ज़ेड. विट्मर ने न्यू हॉलैण्ड, पिन्सिल्वेनिया में, सेन्ट स्टीफन रिफॉर्म्ड चर्च के पास्टर के रूप में सेवा की, और वे वेस्टमिन्स्टर थियोलॉजिकल सेमिनेरी में व्यावहारिक ईश्वरविज्ञान के सेवामुक्त प्राध्यापक हैं। वे माइन्डस्केप (Mindscape) पुस्तक के लेखक हैं।