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आदि में . . .

पवित्रशास्त्र का पहला वाक्य उस पुष्टिकरण को प्रस्तुत करता है जिस पर शेष सब कुछ स्थिर है: “आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की” (उत्पत्ति 1:1)। पवित्रशास्त्र के इस पहले वाक्य में तीन मूलभूत बिन्दुओं की पुष्टि की जाती है: (1) एक आरम्भ था; (2) एक परमेश्वर है; और, (3) एक सृष्टि है। कोई व्यक्ति यह सोच सकता है कि यदि पहले बिन्दु को दृढ़ता से स्थापित किया जाए, तो अन्य दो भी तार्किक आवश्यकता के द्वारा स्थापित हो जाएँगे। दूसरे शब्दों में, यदि वास्तव में विश्व का एक आरम्भ था, तो उस आरम्भ के लिए किसी वस्तु या किसी व्यक्ति को अवश्य ही उत्तरदायी होना चाहिए; और यदि कोई आरम्भ था, तो अवश्य ही किसी प्रकार की सृष्टि भी होनी चाहिए।

यद्यपि सब लोग नहीं, परन्तु अधिकाँश लोग जो धर्मनिरपेक्षता को अपनाते हैं, वे मानते हैं कि विश्व का एक समय में आरम्भ हुआ था। उदाहरण के लिए, महाविस्फोट सिद्धान्त (big bang theory) के समर्थक कहते हैं, कि पन्द्रह से अट्ठारह अरब वर्ष पहले, एक विशाल विस्फोट के परिणामस्वरूप विश्व का आरम्भ हुआ था। किन्तु, यदि विश्व विस्फोट के द्वारा अस्तित्व में आया, तो वह किस में से विस्फोटित हुआ? क्या यह ग़ैर-अस्तित्व से विस्फोटित हुआ? यह तो एक निरर्थक विचार है। यह विडम्बना है कि अधिकाँश धर्मनिरपेक्षतावादी मानते हैं कि विश्व का एक आरम्भ था किन्तु वे फिर भी सृष्टि के विचार को और परमेश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करते हैं।

लगभग सभी सहमत हैं कि विश्व जैसी कोई वस्तु है। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि विश्व या बाहरी वास्तविकता—यहाँ तक कि हमारी आत्म-चेतना भी—एक भ्रम के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, परन्तु केवल सबसे उद्दण्ड अहंमात्रवादी (solipsist) ही तर्क देने का प्रयास करता है कि कुछ भी अस्तित्व में नहीं है। किन्तु यह तर्क करने के लिए, कि कुछ भी अस्तित्व में नहीं है, उस व्यक्ति को तो अस्तित्व में होना पड़ेगा। इस सत्य के कारण कि कुछ अस्तित्व में है और एक विश्व विद्यमान है, ऐतिहासिक रूप से दार्शनिकों और ईश्वरविज्ञानियों ने पूछा है कि, “कुछ नहीं होने के स्थान पर कुछ क्यों है?” यह सम्भवतः सभी दर्शन के प्रश्नों में से सबसे प्राचीन है। जिन लोगों ने इसका उत्तर देने का प्रयास किया है, उन्होंने समझा है कि जब हम इसका सामना अपने जीवन में करते हैं, तो वास्तविकता को समझाने के लिए केवल तीन आधारभूत विकल्प हैं।

पहला विकल्प है कि विश्व स्व-अस्तित्वान और सनातन है। हम पहले ही देख चुके हैं कि बहुसंख्यक धर्मनिरपेक्षवादियों का मानना है कि विश्व का आरम्भ हुआ था और यह सनातन नहीं है। और भूतकाल में तथा आज भी ऐसे लोग हैं जिन्होंने यह तर्क दिया है जो कि दूसरा विकल्प है कि भौतिक संसार (material world) स्व-अस्तित्व में है और सनातन है। इन विकल्पों में एक महत्वपूर्ण सामान्य बात है कि: दोनों ही यह तर्क देते हैं कि कुछ तो है जो स्व-अस्तित्व में है और सनातन है।

तीसरा विकल्प है कि विश्व की स्व-सृष्टि (self-created) हुई थी। इस विकल्प को मानने वाले विश्वास करते हैं कि विश्व अचानक एवं प्रभावशाली रूप से और अपनी स्वयं की शक्ति से अस्तित्व में आया, यद्यपि इस दृष्टिकोण के प्रस्तावक स्व-सृष्टि की भाषा का उपयोग नहीं करते हैं क्योंकि वे समझते हैं कि यह अवधारणा एक तार्किक निरर्थकता है। किसी वस्तु द्वारा स्वयं की सृष्टि करने के लिए, उसको स्वयं का सृष्टिकर्ता होना चाहिए, जिसका अर्थ है कि उसको स्वयं की सृष्टि से पहले ही अस्तित्व में होना होगा, जिसका अर्थ है कि एक ही समय में और एक ही सम्बन्ध में उसको अस्तित्व में होना और अस्तित्व में नहीं भी होना होगा। यह तर्कशास्त्र के सबसे आधारभूत सिद्धान्त का उल्लंघन करता है—ग़ैर-अन्तर्विरोध का नियम (the law of noncontradiction)। इसलिए, स्व-सृष्टि की अवधारणा प्रकट रूप से निरर्थक, विरोधाभासी और तर्कहीन है। इस प्रकार के दृष्टिकोण को मानना खोटा ईश्वरविज्ञान है तथा उतना ही खोटा दर्शनशास्त्र और विज्ञान भी है, क्योंकि दर्शनशास्त्र और विज्ञान दोनों ही तर्कबुद्धि के दृढ़ नियमों पर टिके हुए हैं।

अठारहवीं शताब्दी के ज्ञानोदय (Enlightenment) के मुख्य आयामों में से एक पूर्वधारणा यह थी कि “परमेश्वर की परिकल्पना-the God hypothesis” बाहरी विश्व की उपस्थिति को समझाने के लिए एक अनावश्यक साधन बन गई थी। उस समय तक तो, कलीसिया ने दर्शन के क्षेत्र में सम्मान प्राप्त किया था। पूरे मध्य युग में, दार्शनिक लोग एक सनातन प्रथम कारण (eternal first cause) की तर्कसंगत आवश्यकता को रोकने में सक्षम नहीं हुए थे, परन्तु ज्ञानोदय के समय तक, विज्ञान यहाँ तक उन्नत हो गया था कि किसी पारलौकिक, स्व-अस्तित्व रखने वाले, सनातन प्रथम कारण या परमेश्वर के लिए गुहार लगाए बिना ही, विश्व की उपस्थिति की व्याख्या करने के लिए एक अन्य विकल्प का उपयोग किया जा सकता था।

वह सिद्धान्त स्वतः उत्पत्ति (spontaneous generation) का था—जिसका विचार था कि संसार अपने आप ही अस्तित्व में आया था। किन्तु, इसमें और स्व-सृष्टि की स्व-विरोधाभासी भाषा में कोई अन्तर नहीं है, इसलिए जब वैज्ञानिक जगत में स्वतः उत्पत्ति निर्थकता बन कर रह गई, तो अन्य अवधारणाएँ उभर कर आईं। एक भौतिक विज्ञान के नोबेल पुरस्कार–विजेता द्वारा एक निबन्ध में यह माना गया कि यद्यपि स्वतः उत्पत्ति एक दार्शनिक असम्भावना है, किन्तु यह बात क्रमिक स्वतः उत्पत्ति (gradual spontaneous generation) पर नहीं लागू होती है। उसने यह कहा कि पर्याप्त समय मिलने पर, शून्यता (nothingness) कैसे भी करके कुछ को अस्तित्व में लाने के लिए शक्ति उत्पन्न कर सकता है।

प्रायः स्व-सृष्टि के स्थान पर उपयोग किया जाने वाला शब्द है संयोग सृष्टि (chance creation), और यहाँ पर एक और तर्कदोष (logical fallacy) कार्यान्वित किया जाता है—अनेकार्थक दोष (fallacy of equivocation)। अनेकार्थक दोष तब होता है जब, कभी-कभी बहुत सूक्ष्म रूप से किसी तर्क में प्रमुख शब्द अपने अर्थ को बदल देते हैं। यह संयोग शब्द के साथ हुआ है। वैज्ञानिक जाँच में संयोग शब्द उपयोगी है, क्योंकि यह गणितीय सम्भावनाओं का वर्णन करता है। यदि किसी बन्द कमरे में पचास हज़ार मक्खियाँ हैं, तो किसी भी निश्चित समय में उस कमरे के किसी भी वर्ग इंच में मक्खियों की एक निश्चित संख्या के होने की सम्भावना दिखाने के लिए सांख्यिकीय सम्भावना का उपयोग किया जा सकता है। तो वैज्ञानिक रूप से बातों का पूर्वानुमान लगाने के प्रयास में, सम्भावित भागफलों के जटिल समीकरणों को हल करना एक महत्वपूर्ण और वैध व्यवसाय है।

परन्तु, गणितीय सम्भावनाओं का वर्णन करने के लिए संयोग शब्द का उपयोग करना तो एक बात है और वास्तविक रचनात्मक शक्ति वाली किसी वस्तु को सन्दर्भित करने के लिए इस शब्द के उपयोग को परिवर्तित करना पूर्ण रीति से भिन्न बात है। संसार में किसी भी वस्तु पर संयोग द्वारा किसी भी प्रकार का कोई प्रभाव होने के लिए उसको एक ऐसी वस्तु होना पड़ेगा जिसके पास शक्ति है, परन्तु संयोग तो कोई वस्तु (thing) है ही नहीं। संयोग केवल एक बौद्धिक अवधारणा है जो गणितीय सम्भावनाओं का वर्णन करती है। क्योंकि इसका कोई अस्तित्व नहीं है, इसलिए इसके पास कोई शक्ति भी नहीं है। इसलिए, यह कहना कि विश्व संयोग से अस्तित्व में आया—कि संयोग ने विश्व को अस्तित्व में लाने के लिए कुछ शक्ति का प्रयोग किया—केवल हमें स्व-सृष्टि के विचार में वापस ले जाता है, क्योंकि संयोग तो कुछ है भी नहीं।

यदि हम इस अवधारणा को पूरी रीति से समाप्त कर दें, और तर्कबुद्धि यह माँग भी करती है कि हम ऐसा करें, तो हमारे पास पहले दो विकल्पों में से एक बचता है: कि विश्व स्व-अस्तित्व में है और सनातन है अथवा यह भौतिक संसार स्व-अस्तित्व में है और सनातन है। ये दोनों ही विकल्प, जैसा कि हमने उल्लेख किया है इस बात पर सहमत हैं कि यदि कुछ भी अभी अस्तित्व में है, तो किसी को कहीं पर स्व-अस्तित्व में होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता, तो वर्तमान में कुछ भी अस्तित्व में नहीं हो सकता था। विज्ञान का एक परम नियम है एक्स निहिलो निहिल फिट, जिसका अर्थ है “कुछ नहीं से, कुछ नहीं आता है।” यदि हमारे पास कुछ नहीं है, तो हमारे पास सर्वदा यह ही रहेगा, क्योंकि कुछ-नहीं (nothing) कुछ को उत्पन्न नहीं कर सकता है। यदि कभी ऐसा समय था जब सम्पूर्णता से कुछ भी नहीं था, तो हम पूरी रीति से निश्चित हो सकते हैं कि आज इस क्षण में, अभी भी सम्पूर्णता से कुछ भी नहीं होता। किसी वस्तु को स्व-अस्तित्व में होना चाहिए; किसी भी वस्तु के अस्तित्व में होने के लिए, किसी वस्तु के पास अपने भीतर अस्तित्व की शक्ति होनी चाहिए।

ये दोनों विकल्प कई समस्याओं को खड़ा करते हैं। जैसा कि हमने उल्लेख किया है, लगभग सभी इस बात से सहमत हैं कि विश्व सनातनकाल से अस्तित्व में नहीं है, इसलिए पहला विकल्प सम्भव नहीं है। इसी रीति से क्योंकि भौतिक जगत में वस्तुतः वह सब जिसे हम जाँचते हैं उसमें अनिश्चयता (contingency) और उत्परिवर्तन (mutation) पाया जाता है, दार्शनिकगण इस बात पर बल देने में अनिच्छुक हैं कि विश्व का यह आयाम स्व-अस्तित्व और सनातन है, क्योंकि जो स्व-अस्तित्व में है और सनातन है उसका उत्परिवर्तन या परिवर्तन नहीं होता है। इसलिए यह तर्क दिया जाता है कि कहीं न कहीं विश्व की गहराई में एक धड़कता हुआ केन्द्र या ऊर्जा का भण्डार छिपा हुआ है, जो स्व-अस्तित्व में है और सनातन है, और विश्व में शेष सब कुछ अपने उद्गम के लिए उस वस्तु पर निर्भर है। इस बिन्दु पर भौतिकतावादी (materialists) तर्क करते हैं कि भौतिक विश्व की व्याख्या करने के लिए एक पारलौकिक परमेश्वर की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अस्तित्व का सनातन से धड़कने वाला केन्द्र, विश्व के भीतर पाया जा सकता है न कि विश्व के कहीं बाहर परलोक में।

यह वह बिन्दु है जहाँ एक भाषाई त्रुटि की गई है। जब बाइबल पारलौकिक के रूप में परमेश्वर के विषय में बात करती है, तो वह परमेश्वर के स्थान का वर्णन नहीं कर रही है। वह यह नहीं कह रही है कि परमेश्वर “ऊपर” या “वहाँ” कहीं पर रहता है। जब हम यह कहते हैं कि परमेश्वर विश्व से ऊपर और परे है, तो हम कह रहे हैं कि वह अपने अस्तित्व में विश्व से ऊपर और परे है। वह सत्तामूलक (ontologically) रीति से पारलौकिक है। कोई भी वस्तु जिसमें अपने भीतर अस्तित्व में होने की शक्ति है और जो स्व-अस्तित्व में है उसे उन सभी वस्तुओं से भिन्न होना चाहिए जो व्युत्पन्न होती हैं और निर्भर हैं। इसलिए यदि विश्व के केन्द्र में कुछ स्व-अस्तित्व में है, तो वह अपने स्वभाव ही से शेष सब से पारलौकिक है। हमें इस बात की चिन्ता नहीं है कि परमेश्वर कहाँ रहता है। हम उसके स्वभाव, उसके सनातन होने और विश्व में शेष सब वस्तुओं की उस पर निर्भरता के विषय में चिन्तित हैं।

सृष्टि का परम्परागत मसीही दृष्टिकोण यह है कि परमेश्वर ने जगत को एक्स निहिलो (Ex Nihilo) सृजा, “कुछ नहीं में से,” जो कि परम नियम एक्स निहिलो निहिल फिट, “कुछ नहीं से, कुछ नहीं आता है” से विपरीत प्रतीत होता है। लोगों ने एक्स निहिलो सृष्टि के विरुद्ध तर्क उन्हीं तर्कों के आधार पर दिया है। यद्यपि, जब मसीही ईश्वरविज्ञानी कहते हैं कि परमेश्वर ने संसार की सृष्टि एक्स निहिलो की है, तो यह इस बात के कहने जैसा नहीं है कि एक समय कुछ नहीं था और फिर उस कुछ नहीं में से, कुछ उत्पन्न हो गया। मसीही दृष्टिकोण यह है कि, “आदि में परमेश्वर था . . .।” तथा परमेश्वर “कुछ-नहीं” नहीं है। परमेश्वर तो कुछ है। परमेश्वर अपने अस्तित्व में स्व-अस्तित्व में है और सनातन है, और कुछ नहीं से वस्तुओं का सृजन करने के लिए उसी के पास क्षमता है। परमेश्वर संसारों को अस्तित्व में बुला सकता है। अपने सम्पूर्ण अर्थ में यही रचनात्मकता की शक्ति है, और यह केवल परमेश्वर के पास है। वह अकेले ही पदार्थ बनाने की क्षमता रखता है, न केवल कुछ पूर्वनिर्मित सामग्री से इसको फिर से आकार देता है।

एक कलाकार संगमरमर का एक वर्गाकार टुकड़ा ले सकता है और उसे एक सुन्दर प्रतिमा का रूप दे सकता है या एक सादा चित्रफलक ले सकता है और एक सुन्दर रूप में रंगो को व्यवस्थित करने के द्वारा उसे बदल सकता है, परन्तु परमेश्वर ने विश्व को ऐसे नहीं बनाया। परमेश्वर ने संसार को अस्तित्व में बुलाया, और उसकी सृष्टि इस अर्थ में पूर्ण थी कि उसने केवल पहले से उपस्थित वस्तुओं को फिर से आकार नहीं दिया है। पवित्रशास्त्र हमें केवल संक्षिप्त विवरण देता है कि उसने यह कैसे किया। हम उसमें “ईश्वरीय आज्ञार्थक” (divine imperative) या “ईश्वरीय आदेश” (divine fiat), को पाते हैं जिससे परमेश्वर ने अपनी आज्ञा की शक्ति और अधिकार के द्वारा सृष्टि की। परमेश्वर ने कहा, “. . . हो,” और हो गया। यह है ईश्वरीय आज्ञार्थक। कोई भी वस्तु उस परमेश्वर की आज्ञा का प्रतिरोध नहीं कर सकती, जो संसार और उसमें की प्रत्येक वस्तु को अस्तित्व में लाई है।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

आर.सी. स्प्रोल
आर.सी. स्प्रोल
डॉ. आर.सी. स्प्रोल लिग्नेएर मिनिस्ट्रीज़ के संस्थापक, सैनफर्ड फ्लॉरिडा में सेंट ऐन्ड्रूज़ चैपल के पहले प्रचार और शिक्षण के सेवक, तथा रेफर्मेशन बाइबल कॉलेज के पहले कुलाधिपति थे। वह सौ से अधिक पुस्तकों के लेखक थे, जिसमें द होलीनेस ऑफ गॉड भी सम्मिलित है।