धर्मीकरण का साधन कारण - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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धर्मीकरण का साधन कारण

धर्मसुधार (Reformation) के धर्मीकरण (justification) के सिद्धान्त को प्रायः सोला फिडे (sola fide) नारे में सारांशित किया जाता है, जिसका अर्थ है “केवल विश्वास के द्वारा।” सोला फिडे  वाक्याँश इस शिक्षा के लिए उपयोग किया जाता है कि धर्मीकरण केवल विश्वास के द्वारा है।

ऐतिहासिक रीति से, रोमन कैथोलिक कलीसिया ने भी सिखाया है कि धर्मीकरण केवल विश्वास के द्वारा है। वे कहते हैं कि विश्वास धर्मीकरण का आरम्भिक पड़ाव है। यह हमारे धर्मीकरण की नींव और उसकी जड़ है। धर्मीकरण के लिए विश्वास की आवश्यकता पर रोम बल देता है। इस प्रकार से रोम सोला फिडे  के फीडे  भाग की तो पुष्टि करता है। परन्तु रोम सोला  की पुष्टि नहीं करता है, क्योंकि यद्यपि विश्वास धर्मीकरण का आरम्भ, उसकी नींव और उसकी जड़ है, धर्मीकरण को प्रभावी करने के लिए मात्र उसकी उपस्थिति पर्याप्त नहीं है। हमारे धर्मी ठहराए जाने के लिए विश्वास से पृथक कुछ और भी होना चाहिए—एक आवश्यक प्रतिबन्ध। आवश्यक प्रतिबन्ध वह होता है जिसका होना किसी प्रभाव या परिणाम के लिए अनिवार्य है, परन्तु मात्र उसकी उपस्थिति उस परिणाम को सुनिश्चित नहीं करती है।

उदाहरण के लिए, समान्य परिस्थितियों में, ऑक्सीजन आग के लिए एक आवश्यक प्रतिबन्ध या स्थिति (condition) है। परन्तु, यह अच्छी बात है कि केवल ऑक्सीजन की उपस्थिति ही आग को आरम्भ करने के लिए पर्याप्त नहीं है। यदि ऐसा होता, तो हर बार जब हम श्वास लेते, तो हम जलने लगते। इस प्रकार से हम एक आवश्यक प्रतिबन्ध और एक पर्याप्त प्रतिबन्ध के बीच में भेद करते हैं। एक पर्याप्त प्रतिबन्ध यह सुनिश्चित करता है कि परिणाम तो अवश्य ही होगा।

इस भेद को समझते हुए, हम विश्वास और धर्मीकरण के सम्बन्ध में रोमन कैथोलिक दृष्टिकोण और धर्मसुधार के दृष्टिकोण में अन्तर देख सकते हैं। रोमन कैथोलिक दृष्टिकोण में, विश्वास धर्मीकरण के लिए एक आवश्यक प्रतिबन्ध है, किन्तु एक पर्याप्त प्रतिबन्ध नहीं है। प्रोटेस्टेन्ट दृष्टिकोण में, विश्वास न केवल एक आवश्यक प्रतिबन्ध है, किन्तु यह धर्मीकरण के लिए एक पर्याप्त प्रतिबन्ध भी है। अर्थात्, जब हम ख्रीष्ट पर विश्वास और भरोसा करते हैं, तो परमेश्वर अवश्य ही घोषणा करेगा कि हम उसकी दृष्टि में धर्मी ठहराए गए हैं। धर्मसुधार का दृष्टिकोण, जो कि बाइबल का दृष्टिकोण है, और वह यह है कि यदि विश्वास उपस्थित है, तो धर्मीकरण भी स्वतः ही उपस्थित है।

धर्मसुधार के दृष्टिकोण में बात अकल्पनीय बात यह है कि हमारे पास बिना धर्मीकरण का विश्वास हो सकता है। हमारे पास विश्वास के बिना धर्मीकरण नहीं हो सकता है, और न ही धर्मीकरण के बिना हमारे पास विश्वास हो सकता है। रोम कहता है कि हमारे पास विश्वास के बिना धर्मीकरण नहीं हो सकता है, परन्तु धर्मीकरण के बिना विश्वास हो सकता है। हम अपने विश्वास को बनाए रखते हुए भी कोई प्राणघातक पाप (mortal sin) कर सकते हैं, जिससे कि (बिना उपयुक्त कायाक्लेश (penance) के) हमें नाश किया जाएगा। किन्तु धर्मसुधारकों के लिए, धर्मीकरण के अनुग्रह और स्थान को बनाए रखने के लिए, केवल वास्तविक विश्वास की स्थिति ही आवश्यक है।

वेस्टमिन्स्टर अंगीकार कहता है:

विश्वास, ख्रीष्ट और उसकी धार्मिकता को ग्रहण करना और उस पर निर्भर होना, एकमात्र धर्मीकरण का साधन है।

कोई भी साधन एक ऐसा उपकरण होता है जिसे किसी विशेष उद्देश्य के लिए उपयोग किया जाता है। जब वेस्टमिन्स्टर अंगीकार के लेखकों ने लिखा कि केवल विश्वास ही धर्मीकरण का साधन है, वे धर्मीकरण के साधन कारण के सम्बन्ध में हुए सोलहवीं शताब्दी के विवाद के विषय में जानते थे। इस सिद्धान्त की—अर्थात् धर्मीकरण के साधन कारण की— स्पष्ट समझ होना आवश्यक है क्योंकि यह इस बात से सम्बन्धित है कि हम कैसे बचाए जाते हैं।

साधन कारण वाक्यांश इतिहास में ख्रीष्ट से चार शताब्दी पूर्व, अरस्तु के दर्शनशास्त्र में जाता है। वे गति और परिवर्तन को समझाने का प्रयास कर रहे थे। उस प्रक्रिया में, उन्होंने किसी वस्तु की स्थिति के परिवर्तन में योगदान करने वाले विभिन्न कारणों में भेद करने का प्रयास किया। यह बात हमारे प्रश्न से कैसे सम्बन्धित है? हम स्वभाव से धर्मी नहीं ठहराए गए हैं। हम अधर्मी हैं, और परमेश्वर के सामने हमारी स्थिति यह है कि हम उसके अबाधित प्रकोप के योग्य हैं। हमारी स्थिति में परिवर्तन की हमें आवश्यकता है, अर्थात् नरकदण्ड की स्थिति से धर्मीकरण की स्थिति में।

अरस्तु ने चार प्रकार के कारणों में भेद किया: आकारिक (formal) कारण, निमित्त (efficient) कारण, अन्तिम (final) कारण, और उपादान (material) कारण। उन्होंने साधन (instrumental) कारण को सम्मिलित नहीं किया। परन्तु उनके चार कारण, साधन कारण के विचार के लिए आधार बन गए।

उन्होंने मूर्ति के उदाहरण का उपयोग किया, जिसका आरम्भ खदान में पत्थर के टुकड़े के रूप में होता है। अरस्तु ने पत्थर के टुकड़े को उपादान कारण कहा, अर्थात् वह पदार्थ जिससे किसी वस्तु का निर्माण होता है। आकारिक कारण मूर्तिकार के मस्तिष्क का विचार, या उसकी रूपरेखा या प्रारूप है, कि वह क्या चाहता है कि अन्त में मूर्ति कैसी दिखे। परिणाम निकलने से पहले एक विचार का होना आवश्यक है। निमित्त कारण वह है जिसके द्वारा पत्थर मूर्ति बन जाती है, और इस प्रकरण में यह मूर्तिकार है। वही है जो उस कार्य को करता है। अन्तिम कारण वह उद्देश्य है जिसके लिए वस्तु बनाई जाती है, जो इस प्रकरण में किसी उद्यान की शोभा बढ़ाना हो सकता है।

इन चार कारणों में, हम साधन कारण के विचार को जोड़ सकते हैं, जो कि वह साधन है जिसके द्वारा परिवर्तन होता है। यदि मूर्तिकार पत्थर के टुकड़े को मूर्ति में बदलना चाहता है, तो उसे पत्थर को आकार देने और चमकाने के लिए उसको ठोकना होगा। उसकी छेनी और उसका हथौड़ा उस परिवर्तन को लाने वाले साधन हैं। हिन्दी में हम साधन दिखाने के लिए ‘से’ और ‘के द्वारा’ शब्दों का उपयोग करते हैं।

जब धर्मसुधारकों ने कहा कि धर्मीकरण विश्वास से या विश्वास के द्वारा है, तो उन्होंने पुष्टि की कि विश्वास और केवल विश्वास ही वह साधन या यन्त्र है जिसके द्वारा हम धर्मी ठहराए जाते हैं। विश्वास वह एकमात्र यन्त्र है जिसकी हमें आवश्यकता है, अर्थात् वह एकमात्र उपकरण जो हमें नरकदण्ड की स्थिति से धर्मीकरण की स्थिति में ले जाने के लिए आवश्यक है, परन्तु धर्मी ठहराए जाने के लिए हमें केवल विश्वास ही की आवश्यकता नहीं है। धर्मी ठहराए जाने के लिए हमें ख्रीष्ट की भी आवश्यकता है। अर्थात्, धर्मी ठहराए जाने के लिए हमें उसकी सिद्ध धार्मिकता की और क्रूस पर उसके प्रायश्चित्त की आवश्यकता है। ख्रीष्ट के कार्य के द्वारा वह सब कुछ जिसकी माँग परमेश्वर अपनी धार्मिकता और न्याय के स्तर को पूरा करने के लिए करता है वस्तुनिष्ठ रीति से पूरा किया गया है। उसने सब कुछ कर दिया है। धर्मीकरण के विषय में रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेन्ट के मध्य का पूरा विवाद ख्रीष्ट के वस्तुनिष्ठ कार्य के विषय में नहीं, वरन् इस बात पर है कि उसके कार्य के लाभ को हम कैसे प्राप्त करते हैं। ख्रीष्ट के वस्तुनिष्ठ कार्य को व्यक्तिनिष्ठ रीति से कैसे अपनाया जा सकता है? धर्मसुधारकों का उत्तर, जो प्रेरित पौलुस की शिक्षा पर आधारित था, वह था, “केवल विश्वास में और केवल विश्वास के द्वारा, या केवल विश्वास से और केवल विश्वास के द्वारा।” परन्तु केवल विश्वास हमें नहीं बचाता है। जब हम कहते हैं कि धर्मीकरण केवल विश्वास से होता है, तब हम कह रहे हैं कि धर्मीकरण केवल ख्रीष्ट पर हमारे विश्वास से और विश्वास के द्वारा होता है।

रोम के अनुसार, धर्मीकरण के साधन कारण बपतिस्मा और कायाक्लेश हैं। रोम की परिभाषा के अनुसार किसी व्यक्ति के धर्मी ठहराए जाने के लिए ये संस्कार ही यन्त्र हैं। अन्तर पुरोहितवादी (sacerdotal) रीति से पूरे किए उद्धार (अर्थात्, कलीसिया द्वारा संस्कारों के किए जाने के द्वारा) और केवल ख्रीष्ट पर विश्वास के द्वारा अनुभव किए गए उद्धार के मध्य है। यह एक विशाल अन्तर है। वेस्टमिन्स्टर अंगीकार कहता है कि विश्वास धर्मीकरण का एकमात्र साधन है क्योंकि केवल विश्वास के द्वारा ही हम ख्रीष्ट की धार्मिकता पर निर्भर होते हैं और उसे ग्रहण करते हैं। किसी भी विश्वास करने वाले व्यक्ति को ख्रीष्ट की धार्मिकता, उसके प्रायश्चित्त के लाभ, और हमारे धर्मीकरण का वस्तुनिष्ठ आधार सेंतमेंत में प्रदान किया जाता है। “धर्मी मनुष्य विश्वास से जीवित रहेगा” (रोमियों 1:17)। हम विश्वास के और कार्यों के द्वारा नहीं, वरन् केवल विश्वास के द्वारा धर्मी ठहराए जाते हैं। परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लिए केवल ख्रीष्ट के कार्य पर विश्वास या भरोसा ही आवश्यक है।

विश्वास हमारे धर्मीकरण का आधार नहीं है। हमारे धर्मीकरण का आधार ख्रीष्ट की धार्मिकता है, उसकी योग्यता (merit)। धर्मसुधारकों ने कहा कि हमारे धर्मीकरण का सराहनीय (meritorious) कारण केवल ख्रीष्ट की धार्मिकता है। हमारे धर्मीकरण का साधन कारण विश्वास है, किन्तु जब हम कहते हैं कि हम केवल विश्वास के द्वारा धर्मी ठहराए जाते हैं, तो हमारे कहने का अर्थ यह नहीं है कि विश्वास वह सहायनीय कार्य है जो हमारे धर्मीकरण के आधार में कुछ जोड़ता है।

व्यावहारिक रीति से इसका क्या प्रभाव पड़ता है? ऐसे लोग हैं जो कहते तो हैं कि वे केवल विश्वास के द्वारा धर्मीकरण पर विश्वास करते हैं परन्तु वे अपने विश्वास पर इस रीति से निर्भर होते हैं मानो वह सराहनीय है या एक ऐसा भला कार्य है जो परमेश्वर के न्याय की माँगों को पूरा करता हो। यह तथ्य कि किसी व्यक्ति में विश्वास है, उसके पक्ष में कोई भी योग्यता नहीं बढ़ाता है। यह अभ्यारोपण (imputation) के द्वारा असीम योग्यता बढ़ाता है, परन्तु यह तो ख्रीष्ट की योग्यता है जो अभ्यापोपित की जाती है। हम केवल विश्वास के द्वारा ही ख्रीष्ट की योग्यता को प्राप्त कर सकते हैं, और ऐसे करने के लिए किसी योग्यता की आवश्यकता नहीं है। केवल एक ही है जो हमें बचा सकता है वह है ख्रीष्ट, और केवल एक रीति से हम उस तक पहुँच सकते हैं वह है विश्वास। हम अपने उद्धार के लिए ख्रीष्ट और उसकी धार्मिकता को छोड़ अपने जीवन की किसी अन्य बात पर निर्भर नहीं होते हैं।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

आर.सी. स्प्रोल
आर.सी. स्प्रोल
डॉ. आर.सी. स्प्रोल लिग्नेएर मिनिस्ट्रीज़ के संस्थापक, सैनफर्ड फ्लॉरिडा में सेंट ऐन्ड्रूज़ चैपल के पहले प्रचार और शिक्षण के सेवक, तथा रेफर्मेशन बाइबल कॉलेज के पहले कुलाधिपति थे। वह सौ से अधिक पुस्तकों के लेखक थे, जिसमें द होलीनेस ऑफ गॉड भी सम्मिलित है।