यूहन्ना में प्रेम - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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यूहन्ना में प्रेम

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का नौवां अध्याय है: नए नियम की पत्रियाँ

अपने सुसमाचार में, यूहन्ना ने अपने पाठकों को उस “वचन” यीशु ख्रीष्ट के विषय में बताया, जो आदि में परमेश्वर के साथ था और जो देहधारी हुआ था और जिसने हमारे मध्य निवास किया (यूहन्ना 1:1, 14)। अब, अपने प्रथम पत्र में, प्रेरित कठिनाई से अपनी उत्तेजना को रोक पाता है जब वह लिखता है, “उस जीवन के वचन के सम्बन्ध में जो आदि से था, जिसे हमने सुना, जिसे हमने अपनी आँखों से देखा, वरन् जिसे ध्यानपूर्वक देखा और हमारे हाथों से स्पर्श किया, वह जीवन प्रकट हुआ . . . जिसे हमने देखा और सुना, उसी का सुसमाचार हम तुम्हें भी सुनाते हैं (1 यूहन्ना 1:1, 3)। यीशु की पृथ्वी पर की सेवकाई में सबसे निकट के रूप में (यूहन्ना 13:23 देखें), जब्दी का पुत्र, यूहन्ना, यीशु की प्रत्यक्ष साक्षी देता है।

जबकि उसने “ख्रीष्ट, परमेश्वर के पुत्र” यीशु (20:31) के प्रस्तुतिकरण  के रूप में सुसमाचार को सामान्य श्रोताओं के लिए लिखा था,, यूहन्ना ने, अपने सासमाचार के प्रकाशन के बाद, अपने प्रथम पत्र को लिखा क्योंकि, ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोगों ने उसके शब्दों के अर्थ को तोड़ृ-मरोड़ दिया था और उन्होंने यूहन्ना की मण्डली के सदस्यों को अस्थिर कर दिया था।  यूहन्ना के प्रथम पत्र के लिखने से ठीक पूर्व, ऐसा प्रतीत होता है कि ये झूठे शिक्षक कलीसिया से बाहर निकाल गए थे (1 यूहन्ना 2:19), जिसके कारण पीछे रह गए विश्वासियों को प्रेरिताई निर्देश और आश्वासन की आवश्यकता थी। जब हम यूहन्ना के प्रथम पत्र को इस प्रकाश में पढ़ते हैं, हम प्रेरित के सकारात्मक बलों से यथोचित झूठी शिक्षाओं का अनुमान लगा सकते हैं।

पहला, ऐसा प्रतीत होता है झूठे शिक्षकों का यह कहना था कि मसीही जीवन को नैतिक “स्वतन्त्रता”—अनैतिकता— में जीना सम्भव है और ऐसी “स्वतन्त्र” जीवन शैली उनकी आत्मिकता को कम नहीं करती। यूहन्ना इस बात का यह स्पष्ट करते हुए प्रत्युत्तर देता है कि परमेश्वर ज्योति है (1:5), जिससे कि कोई भी जो कहता है कि वह परमेश्वर के साथ संगति रखता है उसे ज्योति में जीवन जीना भी चाहिए (अर्थात्, पवित्रता और शुद्धता का विकास करना) (पद 6,7)। परमेश्वर पर विश्वास को दिखाना और फिर भी एक अनैतिक जीवन जीना यह पूर्णतया असम्भव है।

दूसरा, ऐसा प्रतीत होता है कि झूठे शिक्षकों ने अपनी पापी होने की स्थिति को भी नकार दिया है। उसी प्रकार, कभी-कभी आज मसीही भी यह विश्वास या ऐसे कार्य करते हैं जैसे कि, क्योंकि वे ख्रीष्ट में परमेश्वर के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध में प्रवेश कर चुके हैं, अब उन्हें अपने पापों के अंगीकार की कोई आवश्यकता नहीं है। यद्यपि, यह भावना पूर्ण रूप से अबाइबलीय है, क्योंकि यूहन्ना स्पष्टतः कहता है, “यदि हम कहें कि हम में पाप नहीं, तो अपने आप को धोखा देते हैं, और हम में सत्य नहीं है” (पद 8)। वरन्, हमें परमेश्वर से शुद्धता और क्षमा प्राप्त करने के लिए अपने पापों का अंगीकार करना चाहिए (पद 9)।

तीसरा, ऐसा प्रतीत होता है कि झूठे शिक्षकों ने पाप के लिए ख्रीष्ट के प्रायश्चित की आवश्यकता को नकार दिया था। यह अनुग्रह को अनैतिकता के लिए अनुमति मानने और और मानवीय पापमयता को नकारने के परिणामस्वरूप होता है। इससे पहले से लोग उद्धारकर्ता की आवश्यकता को समझ सकें, उन्हें अपनी पापमयता और क्षमा की आवश्यकता के प्रति कायल होना चाहिए। ऐसे लोगों के लिए, शुभ समाचार है, क्योंकि, जैसा यूहन्ना लिखता है, “यीशु ख्रीष्ट जो धर्मी है . . . वह हमारे पापों का कोप-सन्तुष्टि [प्रायश्चित का बलिदान जो परमेश्वर के क्रोध को दूर करता है] है” (2:1,2)।

साथ ही साथ, जो लोग सच में अपनी पापमयता और उद्धारकर्ता की आवश्यकता को समझ गए हैं, वे अनैतिक जीवन जीकर परमेश्वर के अनुग्रह का मूल्य कम नहीं करते हैं। ऐसे लोग इस बात के लिए अत्यधिक आभारी होते हैं जिसे परमेश्वर ने यीशु ख्रीष्ट में जो उनके लिए किया और अपना जीवन दीन निर्भरता के साथ ख्रीष्ट पर और अन्य लोगों के प्रति विश्वासयोग्य सेवा के लिए जीते हैं।

अन्त में, इसलिए, यूहन्ना बल देते हुए कहता है कि एक व्यक्ति की मसीहियत मात्र अंगीकार नहीं परन्तु वह जो व्यक्ति वास्तव में करता है उसके प्रदर्शन की बात है: क्या आप एक पापी, अनैतिक जीवन जीते हैं? या आप परमेश्वर के वचन का पालन करते हैं? (2:5) और अपने भाई (आपका साथी विश्वासी, पद 10) ) से प्रेम करते हैं? संक्षेप में, “जो कहता है कि मैं उसमें बना रहता हूँ तो वज स्वयं भी वैसा ही चले जैसा की यीशु चलता था” (पद 6)। यह परीक्षण निर्दयतापूर्वक यथार्थवादी और गहन रूप से व्यवहारिक दोनों है। यह मसीहियत की बौद्धिक स्वीकृति से पृथक खोखली नाटक के रूप में विश्वासयोग्य मसीही आज्ञाकारिता का भेद प्रकट करता है, और यह हमें मात्र कलीसिया में उपस्थिति और बाइबल अध्ययन से आगे बढ़कर संसार में ख्रीष्ट के कार्य में सक्रिय भागीदारी के लिए चुनौती देता है।

अपने पहले पत्र सहित, सभी लेखनों में यूहन्ना द्वारा किया गया सबसे शक्तिशाली योगदानों में से एक है, आत्मिक युद्ध और वैश्विक संघर्ष पर उसका बल जिसमें भले हमें आभास हो या न हो हम सभी व्यस्त हैं। इस बात के विपरीत कि हम अपना जीवन मात्र एक क्षैतिज, मानव तल पर जीते हैं, यूहन्ना सबसे महत्वपूर्ण लम्बवत् आयाम (vertical dimension) पर बल देता है। संसार शैतान के नियन्त्रण के अधीन है—“इस संसार का शासक” (यूहन्ना 12:31; 14:30; 16:11)। झूठे शिक्षक ख्रीष्ट-विरोधी आत्मा से भरे हुए हैं, जो इस बात से प्रकट होता है कि वे नकारते हैं कि यीशु ही मसीहा है (1 यूहन्ना 2:18, 22; 4:2-3), और विश्वासियों को प्रोत्साहित किया जाता है “आत्माओं को परखने कि वे परमेश्वर की ओर से हैं या नहीं” (4:1)। यीशु शैतान के कार्यों को नष्ट करने के लिए आया था (3:8), और वह विजय जिसने संसार पर जय प्राप्त की है हमारा विश्वास है (5:4)।

इस वैश्वविक संघर्ष में, कोई भी निष्पक्ष नहीं रह सकता। क्या आपने अपने पापों से पश्चाताप और ख्रीष्ट पर भरोसा किया है? यदि हाँ, तो आपका आत्मिक रूप से पुनः जन्म हुआ है, “परमेश्वर से उत्पन्न” (2:29; 3:9; यूहन्ना 1:12-13; 3:3-5 भी देखें), और यूहन्ना आपको यीशु के समान जीने के लिए कहता है—पाप से बचकर तथा औरों से प्रेम कर के। यदि नहीं, तो आप अभी भी अपने पापों में हैं, और आप “शैतान की सन्तान” में से हैं क्योंकि आप उसके द्वारा शासित हैं और अपने पाप में जकड़े हुए हैं (3:8, 10)।

सुसमाचार पर अपने बल को दोहराते हुए, यूहन्ना प्रेम के गुण की मसीही जीवन में सर्वोच्च के रूप में सराहना करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर स्वयं प्रेम है (4:16), और इसलिए परमेश्वर ने अपने प्रेम में, पापों के लिए प्रायश्चित के बलिदान के रूप में (पद 10; यूहन्ना 3:16 देखें) अपने पुत्र को भेजा। औरों के लिए अपना जीवन देने के द्वारा, यीशु ने न केवल पाप के लिए प्रायश्चित प्रदान किया, उसने यह भी दिखया कि औरों से कैसे प्रेम किया जाना चाहिए (1 यूहन्ना 3:16)। इसलिए, वे लोग जो वैसे चलेंगे जैसा यीशु चलता था वे अत्याधिक रूप से प्रेम की विशेषता वाला जीवन जीएंगे।

क्या वे लोग जो आपको जानते हैं, विशेषकर वे जो आपके अच्छे से जानते हैं, कहते हैं कि आप प्रेम के पुरुष या स्त्री हैं? या वे कहते हैं कि सिद्धान्त पर आपकी पकड़ त्रुटिहीन है परन्तु आप प्रायः दूसरों के प्रति अपने कार्यों में निष्ठुर और ठण्डे दिखायी देते हैं? यदि बाद वाली स्थिति है, तो परमेश्वर से सच्चे, हार्दिक प्रेम के विकास के लिए सहायता माँगे जो केवल इस आभास से आता है कि आप स्वयं एक व्यक्ति जो परमेश्वर द्वारा अत्यन्त प्रेम किए गए हैं, और एक व्यक्ति जिसके लिए ख्रीष्ट मरा, और ऐसे ही अन्य लोग भी हैं।

तो, यूहन्ना के अनुसार, मसीहियों के लिए दायित्व अनिवार्य रूप से दोहरा वर्णित किया जा सकता है: उन्हें परमेश्वर के पुत्र, यीशु ख्रीष्ट पर विश्वास करना चाहिए, और उन्हें अन्य लोगों से प्रेम करना चाहिए, विशेषकर अन्य विश्वासियों से (3:23)। यूहन्ना के दूसरे पत्र का मुख्य उद्देश्य विश्वासियों को निर्देश देना था कि यात्रा करने वाले झूठे शिक्षकों की पहुनाई या सहयोग न करें (2 यूहन्ना 9-11)। क्योंकि वे लोग जो “सत्य को जानते हैं” (पद 1), उन्हें सक्रिय रूप से उन लोगों के विरुद्ध इसकी रक्षा करनी चाहिए जो इसकी त्रुटिपूर्वक व्याख्या करते हैं और यह ध्यान रखना चाहिए कि वे अनजाने में विधर्मी सिद्धान्त का प्रसारण न करने लगें। इसका अर्थ है कि मसीहियों के रूप में, हमें मसीही सिद्धान्त में शिक्षित होना चाहिए। हमें पर्याप्त मात्रा में सत्य का पता होना चाहिए जिससे कि इससे हट कर किसी भी बात को समझा जा सके।

इस सम्बन्ध में पद 9 में यूहन्ना की भाषा विशेषकर शिक्षाप्रद है, जहाँ वह एक ऐसे व्यक्ति की बात करता है जो “बहुत दूर भटक जाता है” और “ख्रीष्ट की शिक्षा में बना नहीं रहता।” आप ऐसे लोगों को “प्रगतिशील” (progressives) या “उदारवादी” (liberals) कह सकते हैं, जो बाइबल की शिक्षा से परे जाने और नये, पवित्र शास्त्र द्वारा बिना समर्थन दिए गए नवीन सिद्धान्तों की ओर जाने में स्वतन्त्रता का आभास करते हैं। जैसा कि यूहन्ना उचित बल देता है, ऐसे शास्त्रसम्मति की कमी सामान्यतः ख्रीष्ट के प्रति एक हीन दृष्टिकोण है। उसी प्रकार, कल के या आज के उदारवादी प्रायः ख्रीष्ट के पूर्ण ईश्वरत्व और/या मानवता, या उसके पुनरुत्थान की वास्तविकता को नकारते हैं। यदि आप किसी व्यक्ति के विश्वास के विषय में निश्चित नहीं हैं, तो उससे पूछें: आप यीशु ख्रीष्ट के विषय में क्या विश्वास करते हैं? साथ ही, यूहन्ना के दूसरे पत्र के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, केवल उन व्यक्तियों, संस्थाओं, और कार्यों का समर्थन करें जो उद्धार के बाइबलीय, प्रमाणिक सुसमाचार का प्रचार करते हैं, जो कि केवल प्रभु यीशु ख्रीष्ट में पाया जाता है।

यूहन्ना का तीसरा पत्र, दूसरे पत्र के समान, यात्रा करने वाले शिक्षकों की पहुनाई से सम्बन्धित है (3 यूहन्ना 7-8)।  इसके अतिरिक्त, यूहन्ना एक विशिष्ट व्यक्ति, दियुत्रिफेस को कठोर फटकार लगाता है, “जो प्रमुख बनने की लालसा रखता है” और “हमारे अधिकार को नहीं मानता” (पद 9)। यह हमें कलीसिया के अगुवों के मध्य तानाशाही प्रवृत्तियों के विरुद्ध चेतावनी देती है जो अपने अधीन लोगों पर “प्रभुता” जताते हैं (1 पतरस 5:3), और जिनमें नम्रता की उचित आत्मा का आभाव है।

यूहन्ना के सुसमाचार की निश्चित नींव पर, उसकी तीनों पत्र इस प्रकार इस तथ्य की साक्षी देती हैं कि सत्य का सदैव विरोध रहेगा और वह उन लोगों की निरन्तर सुरक्षा की आवश्यकता में रहेगा जो प्रेरिताई शिक्षा के प्रति दृढ़ हैं। परमेश्वर हमारी सहायता करे कि मैं और आप प्रेम का जीवन जीएँ, और साहसपूर्वक हम अपने संसार में सुसमाचार के सत्य की सुरक्षा के लिए उठें, जो कि, यूहन्ना के दिन के समान, मूर्तियों से भरा हुआ है (1 यूहन्ना 5:21)।

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया

ऐन्ड्रियास जे. कोस्टेनबर्गर
ऐन्ड्रियास जे. कोस्टेनबर्गर
डॉ. ऐन्ड्रियास जे. कोस्टेनबर्गर कैन्ज़स सिटी, मिज़ोरी में मिडवेस्टर्न बैप्टिस्ट थियोलॉजिकल सेमिनेरी में नए नियम और बाइबलीय ईश्वरविज्ञान के अनुसंधान प्राध्यापक तथा बाइबल अध्ययन केन्द्र के निर्देशक हैं। वे कई पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें सुसमाचारों का यीशु (द जीजस ऑफ द गॉस्पेल्स) और इब्रानियों से प्रकाशितवाक्य पर हस्तपिस्तिका (हैंडबुक ऑन हेब्रूस थ्रू रेवेलेशन) सम्मिलित हैं।