हमारा सर्व-महिमामय मसीहा - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ %
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हमारा सर्व-महिमामय मसीहा

ख्रीष्ट की महिमा पर प्रायः तब अधिक ध्यान दिया जाता है जब हम स्वयं को अन्धकार की तराइयों में पाते हैं। यीशु के शिष्यों ने अपने जीवन में इस वास्तविकता को अनुभव किया क्योंकि जब यीशु ने अपने क्रूसीकरण की भविष्यद्वाणी की (मरकुस 8:31) तो उनकी जीवन भर की मसीहाई अपेक्षाएँ नष्ट हो गई थीं। उनकी समझ में यीशु को मरने के स्थान पर राज्य करना चाहिए था। अपने स्वामी की आने वाली मृत्यु के समाचार से वे निराश और हताश हो गए थे, और यीशु ने उनको सान्त्वना देने के लिए ऐसी वास्तविकताओं की बात की जो कि सैन्य सामर्थ्य के स्थान पर ईश्वरीय महिमा पर आधारित थीं।

यह कहने के छः दिन पश्चात् कि “मनुष्य का पुत्र बहुत दुःख उठाएगा” (31 पद), यीशु प्रार्थना करने के लिए पतरस, याकूब, और यूहन्ना को हेर्मोन पर्वत पर ले गया (9:2)। इस लम्बी प्रार्थना सभा में शिष्य सो गए, और जब वे जागे, तो यीशु का मुख और उसके वस्त्र अति श्वेत थे। मरकुस हमें बताता है कि यीशु का उनके सामने “रूपान्तर हुआ।” यीशु की सच्ची ईश्वरीय महिमा को मानवता के उस आवरण के मध्य में से चमकने का अवसर दिया गया जिसे उसने पहना था। लूका कहता है कि यीशु का वस्त्र “श्वेत होकर चमकने लगा,” और मत्ती कहता है कि उसका मुख “सूर्य के समान चमक उठा” (मत्ती 17:2; लूका 9:29)। यह वैभवशाली महिमा उसके स्वयं के भीतर से चमक रही थी। और वहाँ पतरस, याकूब, और यूहन्ना थे—अवाक्, स्तब्ध, और निष्प्राण खड़े रहे—जैसे कि ईश्वरीय महिमा का भव्य प्रकाश उनकी आँखों में भर गया हो।

शिष्यों के मस्तिष्क में यह विध्वंसकारी वास्तविकता थी जो यीशु ने कहा था कि जब वे यरूशलेम पहुँचेंगे, तो उसको पकड़ा जाएगा और क्रूस पर चढ़ाया जाएगा। रूपान्तरण का उद्देश्य कि उन घटनाओं को टालना नहीं था, परन्तु शिष्यों के लिए सान्त्वना का बना रहने वाला स्रोत बनना था। यीशु की इच्छा थी ये निकटतम शिष्य अपने हृदय में उन बातों को लें जिसे वे देख रहे थे, सुन रहे थे, और अनुभव कर रहे थे, और जब उसके दुःख भोग का आरम्भ हो तो वे इस आनन्द से प्रोत्साहन पाएँ। रूपान्तरण उनके सबसे अन्धकारमय तराई में ज्योति थी। यूहन्ना 1:14 में यूहन्ना इस क्षण के विषय में आँखो देखी साक्षी देता है: “हमने उसकी ऐसी महिमा देखी जैसी पिता के एकलौते की महिमा।”

इस महिमामय दर्शन की पुष्टि मूसा और एलिय्याह द्वारा की जाती है, जो कि पुराने नियम के दो प्रतिनिधि हैं, जो यीशु से उसकी आने वाली मृत्यु के विषय में बात कर रहे हैं (लूका 9:31)। और यदि यह स्वीकार करने के लिए पर्याप्त नहीं था, तो जब परमेश्वन ने आकर शिष्यों को आज्ञा दी कि “इसकी सुनो” (मरकुस 9:7) तो परमेश्वर की शिकायना (shekinah) महिमा ने पर्वत को ईश्वरीय तापदीप्ति से ढक दिया। दूसरे शब्दों में, जब यीशु अपनी मृत्यु की बात करता है, उसके शिष्यों को “इसकी [सुनना]” था और उसे एक दुःख उठाने वाले सेवक के रूप में ग्रहण करना था।

इस भव्य घटना के प्रत्येक पहलू को एक अथाह कुण्ड होना था जिससे वे साहस प्राप्त कर सकते थे। यीशु अपने शिष्यों को, और प्रत्येक विश्वासी को स्मरण दिला रहा था कि हमें कभी भी अपने अति-महिमामय मसीहा की वास्तविकता को अपने अन्धकारमय क्षणों में नहीं भूलना चाहिए। यद्यपि शिष्यों की अपेक्षाओं को ध्वस्त किया गया था, यीशु ने स्वयं को उससे कहीं अधिक प्रमाणित किया जो उनके माँगने, सोचने, या कल्पना करने की क्षमता से परे था। रूपान्तरण का प्रत्येक पहलू घोषणा करता है: “कदाचित् रात को रोना पड़े, परन्तु प्रातःकाल आनन्द से भरा होता है” (भजन 30:5)।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

डस्टिन डब्ल्यू. बेन्ज
डस्टिन डब्ल्यू. बेन्ज
डॉ. डस्टिन डब्ल्यू. बेन्ज लुईविल, केन्टकी के द सदर्न बैप्टिस्ट थियोलॉजिकल सेमिनरी में बाइबलीय आत्मिकता और ऐतिहासिक ईश्वरविज्ञान के सहायक प्राध्यापक हैं। वे कई पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें द अमेरिकन प्युरिटन्स, स्वीट्ली सेट ऑन गॉड, और द लवलिएस्ट प्लेस सम्मिलित हैं।