शोकितों के सदृश्य परन्तु सदैव आनन्द मनाते हैं - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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शोकितों के सदृश्य परन्तु सदैव आनन्द मनाते हैं

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का आठवां अध्याय है: आनन्द

जिसे मैं “मसीही सुखवाद” कहता हूँ, वह जीवन का एक मार्ग है जिसकी जड़ें इस दृढ़ विश्वास में निहित हैं कि परमेश्वर सबसे अधिक हममें महिमा पाता है जब हम सबसे अधिक परमेश्वर में सन्तुष्ट होते हैं। इस दृढ़ विश्वास के आशय सर्वव्यापी और उत्साहजनक हैं, इस आश्चर्यजनक सत्य के साथ कि सभी सच्चे गुण और वास्तविक आराधना में अनिवार्य रूप से परमेश्वर में सुख की खोज करना सम्मिलित है।

इसका कारण यह है कि सभी सच्चे गुण और वास्तविक आराधना में परमेश्वर की महिमा करने का अभिप्राय निहित होना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम परमेश्वर की महिमा करने के लिए सृजे गए थे (यशायाह 43:7), और क्योंकि पौलुस ने कहा, “जो कुछ तुम करो, सब परमेश्वर की महिमा के लिए करो” (1 कुरिन्थियों 10:31)। इसलिए परमेश्वर की महिमा करने के अभिप्राय के बिना किसी भी अच्छे कार्य या आराधना के कार्य का पीछा करना पाप है।

परन्तु परमेश्वर की महिमा वहाँ नहीं होती है जहाँ पर हमें उससे अधिक अन्य वस्तुएं आनन्ददायक लगने लगती हैं। उसका अनादर होता है। इस बात को जानते हुए, हम इस बात के प्रति निरुत्सुक नहीं हो सकते हैं कि जिस कार्य का हम अनुसरण करते हैं उसमें परमेश्वर को प्रसन्न कर पाते हैं या नहीं। उन सब कार्यों में, यदि हम परमेश्वर को प्रसन्न करना चाहते हैं, तो हमें उसे किसी भी वस्तु से अधिक आनन्ददायक मानने का लक्ष्य रखना चाहिए। 

जब यीशु ने कहा, “लेने से देना धन्य है” (प्रेरितों के काम 20:35), उसका कहने का अर्थ यह नहीं था कि हमें इस तथ्य पर ध्यान नहीं देना चाहिए जब हम देते हैं। वस्तुतः, उसी स्थल में जहाँ पौलुस यीशु को उद्धरित करता है, प्रेरित कहता है कि जब हमें देते समय “स्मरण” रखना चाहिए। दूसरों को देने में धन्य होने की इच्छा केवल तब स्वार्थी और लोभी होती है जब हम जिस धन्यता की इच्छा रखते हैं स्वयं परमेश्वर नहीं है और उसका लक्ष्य दूसरो कों अपने साथ इस आनन्द में ले जाना नहीं है।

एक प्रिय वाक्यांश
परन्तु यह सब पूर्णतया मसीही सुखवाद के उस मूल भाव को—भावना, आत्मा, भाव-दशा, स्वर को— 

नहीं समझाते है। इस स्वर को व्यक्त करने के लिए मैंने जिस बाइबलीय वाक्यांश को सबसे अधिक उपयोग किया, वह 2 कुरिन्थियों 6:10 से लिया गया है: “शोकितों के सदृश परन्तु सदैव आनन्द मनाते हैं।” परन्तु दुर्लभ ही कभी मैं इस पर व्याख्यात्मक रूप से टिप्पणी करता हूँ या उदाहरण देता हूँ। मैं दोनों बाते संक्षेप में करना चाहता हूँ।

2 कुरिन्थियों 6:3-10 में, पौलुस समझा रहा है कि कैसे वह अपने आचरण के द्वारा किसी के मार्ग में ठोकर का कारण नहीं बनता है (पद 3); किन्तु, वह प्रत्येक सम्भव रीति से स्वयं को आदर्श के रूप में प्रस्तुत करता है— तीस प्रकार के अनुभव के साथ।

इन तीस में से “शोकितों के सदृश परन्तु सदैव आनन्द मनाना” भी सम्मिलित है। यह कई समान जोड़ों के मध्य होता है: धोखा देने वालों के सदृश फिर भी सच्चे हैं, अनजाने के सदृश फिर भी प्रसिद्ध, मरते हुओं के सदृश फिर भी देखो हम जीवित हैं, ताड़ना पाने वालों के सदृश फिर भी जान से मारे नहीं जाते, शोकितों के सदृश परन्तु सदैव आनन्द मनाते हैं, कंगालों के सदृश परन्तु बहुतों को धनी बना देते हैं, ऐसों के सदृश समझे जाते हैं जिनके पास कुछ नहीं, फिर भी हम सब कुछ रखते हैं” (2 कुरिन्थियों 6:8-10)।

पौलुस के विषय में जो सत्य है
मुझसे एक बार पूछा गया था कि मैं “शोकित” को ऐसे वर्णन क्यों करता हूँ जैसे कि यह पौलुस के विषय में सत्य है जबकि इस सूचि में अन्य बातों के साथ कुछ झूठ होता है जो कि बाद में सुधारा गया (उदाहरण के लिए, “धोखा देने वालों के सदृश समझे जाते हैं फिर भी सच्चे हैं”)। सम्भवतः पौलुस का अर्थ है कि उसे “शोकित” के रूप में देखा जाता है परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है; किन्तु वह सर्वदा आनन्दित रहता है।

जिस कारण सा मैं सोचता हूँ कि पौलुस का कहने का अर्थ यह नहीं है क्योंकि पौलुस उन समरूपों से हटता है जो झूठ और सत्य दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं (जैसे कि “धोखा देने वालों के सदृश समझे जाते हैं फिर भी सच्चे हैं”), उन समरूपों की ओर जिसमें दोनों सत्य हैं (जैसे, “कंगालों के सदृश परन्तु बहुतों को धनी बना देते हैं”)।

पौलुस का विचार करने की रीति में, “अज्ञात,” “ताड़ना पाने,” “शोकित,” “कंगाल,” और “कुछ नहीं होना” सभी उसके विषय में सत्य हैं। इसलिए पद 9 के आरम्भ में, वह झूठे दावों से हटकर सच्चे दावों पर आता है और उन समरूपों को सूचीबद्ध करना आरम्भ कर देता है जो दोनों सत्य हैं परन्तु एक प्रकार के विडम्बना को उत्पन्न करते हैं: अनजान/ प्रसिद्ध, मरते हुए/ जीवित, ताड़ना पाने वाले/ मारे नहीं गए, शोकित/ आनन्दित, कंगाल/ धनी।

इसलिए हाँ, पौलुस वासत्व में स्वयं को “शोकित” के रूप में समझता है। रोमियों 9:2-3 को ध्यान में रखते हुए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है: “मैं अत्यन्त दुखी हूँ और मेरा हृदय निरन्तर शोकित रहता है… जो शरीर के अनुसार मेरे सम्बन्धी हैं।” अत्यन्त दुखी और शोकित। अद्भुत।

यदि यह सत्य था आनन्द महान प्रेरित के विषय में, तो यह हमारे लिए कितना अधिक सत्य है? निश्चित रूप से, हमारे जीवन निरन्तर दुखों (और आनन्द) से भी चिन्हित किये जाएंगे। यदि वे सत्य नहीं है, तो सम्भवतः हम पौलुस के समान खोए हुए लोगों से प्रेम नहीं करते हैं।  

गम्भीर आनन्द
अतः मसीही सुखवाद की प्रकृति कोई ऐसा आनन्द या खुशी नहीं है जो प्रसन्नचित्त, सतही, परिहास-योग्य, तुच्छ, मूर्खतापूर्ण, या हास्यप्रद है। मसीही सुखवाद को पूर्ण रीति से हसी से परिपूर्ण हो सकता है, परन्तु इसका सम्बन्ध उस फैलने वाले चंचलता से नहीं है जिसमें गम्भीर आनन्द के लिए लगभग कोई स्थान नहीं है। 

सी. एस, लूईस ने अपने मैल्कम को पत्रियां (Letters to Malcolm) में कहा, “आनन्द स्वर्ग के लिए गम्भीर बात है।” आमीन। और उन्होंने अपने मसीही मनन (Christian Reflections) में लिखा: “ हमें अवश्य खेलना चाहिए। परन्तु खेल में आने वाला हमारा आनन्द उस प्रकार होना चाहिए (और वास्तव में, यह सबसे आनन्दमय प्रकार का है) जो उन लोगों के मध्य पाया जाता है, जिन्होंने आरम्भ से ही एक दूसरे को गम्भीरता से लिया है— बिना कोई अहंकार, बिना कोई श्रेष्ठता, बिना कोई अनुमान।”

एक कोमल हृदय है जो आनन्दित होने वालों के साथ आनन्दित होता है और रोने वालों के साथ-साथ रोता है—एक ही समय पर। कभी-कभी एक दिखता है; कभी-कभी दूसरा दिखता है। परन्तु प्रत्येक दूसरे के स्वाद को प्रभावित करता है। आप इस आनन्द और इस दुख के विशेष स्वाद का आस्वादन कर सकते हैं। 

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया।
जॉन पाइपर
जॉन पाइपर
डॉ. जॉन पाइपर (@JohnPiper) डिज़ायरिंग गॉड के संस्थापक और शिक्षक हैं और मिनियापोलिस में बेथलहम कॉलेज और सेमिनरी के कुलाधिपती हैं। वह पचास से अधिक पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें परमेश्वर की ओर झुका हुआ हृदय (A Godward Heart) और अस्पताल के बिस्तर से प्राप्त शिक्षाएं (Lessons from a Hospital Bed) सम्मिलित हैं।