भजन 22 का दुख और महिमा - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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भजन 22 का दुख और महिमा

भजन 22 मानव इतिहास में सबसे व्यथित पुकार से आरम्भ होता है; “हे मेरे परमेश्वर, हे मेरे परमेश्वर, तू ने मुझे क्यों छोड़ दिया?” ये वे वचन हैं जो यीशु ने अपने होंठो पर लिए अपनी पीड़ा की गहराई के समय क्रूस पर। उसकी पीड़ा उस समय अनोखी थी जब उसने अपने लोगों के पापों के लिए स्वयं को चढ़ा दिया। और इस कारण, हम अधिकाँशतः इस पुकार को अनोखे रूप से यीशु ही समझते हैं। परन्तु इन शब्दों के साथ ऐसा करना स्पष्ट रूप से त्रुटीपूर्ण है। यीशु ने अपनी पीड़ा की व्याख्या करने के लिए अनोखे शब्दों का आविष्कार नहीं किया था। इसके स्थान पर, वह भजन 22:1 को उद्धरित कर रहा था। ये शब्द पहले दाऊद द्वारा कहे गए थे, और दाऊद परमेश्वर के सभी लोगों के लिए बोल रहा था। इनको पूर्ण रीति से समझने के लिए हमें इन शब्दों को तथा पूरे भजन पर मनन करने की आवश्यकता है कि वे कैसे मसीह और उसके सभी लोगों से जुड़े हुए हैं।

भजन का आरम्भ एक ऐसे भाग से होता है जिसमें दाऊद की कष्टदायी प्रार्थना प्रमुख है (पद 1-21)। दाऊद सब से पहले परमेश्वर द्वारा त्याग दिए जाने की अपनी भावना के अनुभव को व्यक्त कर रहा है। यहाँ पर सबसे अधिक दुख है जिसे परमेश्वर का सेवक जान सका—न केवल शत्रु उसे घेरे हुए हैं (पद 7, 12–13) और उसका शरीर भयानक पीड़ा में है (पद 14-16), किन्तु उसे लगता है कि परमेश्वर उसकी नहीं सुनता है और उसकी पीड़ा पर ध्यान नहीं देता है। और यह केवल दाऊद का अनुभव नहीं है। यह परमेश्वर के उन सब लोगों का अनुभव है जो भयंकर कष्ट का सामना करते हैं । हमें आश्चर्य होता है कि जब हम इस प्रकार के संकट में होते हैं तो हमारा प्रेमी स्वर्गीय पिता कैसे बिना कुछ किए खड़ा रहता है।

फिर भी, इस चरम संकट में भी, दाऊद कभी भी विश्वास नहीं खोता है या पूरी निराशा में नहीं गिर जाता है। उसकी पीड़ा उसे प्रार्थना की ओर ले जाती है, और प्रार्थना के पहले शब्द “हे मेरे परमेश्वर” हैं। उसके दुख और परमेश्वर के मार्गों के विषय में सोचते हुए भी, वह अपने इस ज्ञान को नहीं खोता है कि परमेश्वर ही उसका परमेश्वर है। वह इस्राएल के इतिहास में हुए परमेश्वर के पिछली विश्वासयोग्यता को स्मरण करता है: “तुझ ही पर हमारे पूर्वजों ने भरोसा रखा; उन्होंने भरोसा रखा और तू ने उन्हें छुड़ाया। उन्होंने तेरी दुहाई दी, और वे छुड़ा लिए गए; तुझ पर उन्होंने भरोसा किया; और वे लज्जित न हुए” (4-5)। फिर, दाऊद अतीत में अपने व्यक्तिगत जीवन में परमेश्वर द्वारा सम्भाले जाने को स्मरण करता है: “तू ने ही मुझे गर्भ से निकाला; जब मैं दूध-पीता बच्चा ही था, तू ने मुझे भरोसा रखना सिखाया। जन्म से ही मैं तुझ पर छोड़ दिया गया था; मेरी माता के गर्भ से ही तू मेरा परमेश्वर है” (पद 9–10)। भजनों में बार-बार आत्मिक उपाय परमेश्वर द्वारा अतीत की विश्वासयोग्यता का स्मरण करना हमें उसके वर्तमान विश्वासयोग्यता का निश्चयता देता है।

हम दाऊद की वर्तमान सहायता के लिए उसकी प्रार्थना में भी आशा देखते हैं। वह जानता है कि परमेश्वर सहायता कर सकता है, और वह परमेश्वर की ओर फिरता है क्योंकि केवल वह ही सहायता करेगा: “अब, हे यहोवा, तू दूर न रह, हे मेरे सहायक, मेरी सहायता के लिए फुर्ती कर!” (पद 19)। हमें कभी भी प्रार्थना करना  बन्द नहीं करना चाहिए, यहाँ तक कि हमारे भयंकर निराशा में भी।

जॉन कैल्विन ने अपनी टीका में निष्कर्ष निकाला कि परमेश्वर द्वारा त्याग दिए जाने की भावना, मसीह के लिए अनोखे या विश्वासियों के लिए दुर्लभ होने से बहुत दूर, एक नियमित और लगातार संघर्ष है। उसने लिखा, “ईश्वरभक्त में से कोई भी नहीं है जो स्वयं में उसी बात का प्रतिदिन अनुभव नहीं करता है। शरीर के न्याय के अनुसार, वह सोचता है कि वह परमेश्वर द्वारा फेंका गया तथा छोड़ दिया गया है, जबकि अभी भी वह विश्वास से परमेश्वर के अनुग्रह को देखता है, जो भाव और तर्क की दृष्टि से छिपा है।” हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि मसीही जीवन जीना सरल है या कि हमें प्रतिदिन क्रूस नहीं उठाना पड़ेगा।

यह भजन न केवल प्रत्येक विश्वासी का अनुभव है, पर यह यीशु के दुख उठाने की एक बहुत ही उल्लेखनीय और विशिष्ट भविष्यवाणी है। हम क्रूसीकरण के दृश्य को विशेष रीति से इन वचनों में स्पष्टता से देखते हैं, “क्योंकि कुत्तों ने मुझे घेर लिया है; दुष्टों के एक झुण्ड ने मुझे चारों ओर से घेर लिया है, उन्होंने मेरे हाथों और मेरे पैरों को छेदा है—मैं अपनी सब हड्डियां गिन सकता हूँ। लोग मुझे देखकर घूरते हैं। वे आपस में मेरे वस्त्रों को बांटते हैं और मेरे कपड़ों के लिए चिट्टी डालते हैं”(पद 16–18)। यहाँ हम देखते हैं कि वास्तव में इस भजन की अपनी पूर्ण पूर्ति मसीह में आती है।

यीशु इस भजन को जानता था और उसने हमारे दुख में हमारे साथ अपनी पहचान कराते हुए उसके आरम्भिक शब्दों को उद्धरित किया, क्योंकि उसने क्रूस पर हमारे कष्टों और पीड़ा को उठा लिया। “अत: जिस प्रकार बच्चे मांस और लहू में सहभागी हैं, तो वह आप भी उसी प्रकार उनमें सहभागी हो गया, कि मृत्यु के द्वारा उसको जिसे मृत्यु पर शक्ति मिली है, अर्थात शैतान को शक्तिहीन कर दे”(इब्रानियों 2:14)। यीशु हमें छुड़ाता है हमारा स्थान लेने के द्वारा और पापों के लिए बलि बनने के द्वारा।

इस भजन के दूसरे भाग में, भाव और ध्वनि नाटकीय रीति बदलते हैं। पीड़ा की प्रार्थना तीव्र प्रशंसा की ओर फिरती है। भजनकार स्तुति से भर जाता है: “सभा के बीच में तेरी स्तुति करूँगा” (पद 22)। वह अपने भाइयों से स्तुति में उसके साथ जुड़ने के लिए बुलाता है: “तुम जो यहोवा का भय मानते हो, उसकी स्तुति करो!” (पद 23)।

यह उत्साही प्रशंसा परमेश्वर के पक्ष की सफलता के लिए है। भजन के आरम्भ में जो पराजय निश्चित लग रही थी उसको अब विजय ने निगल लिया है। यह सफलता केवल निजी या व्यक्तिगत नहीं होगी वरन् संसार भर में होगी। प्रशंसा प्रचुर प्रतिज्ञा पर टिकी हुई है: “पृथ्वी के छोर छोर से लोग यहोवा का स्मरण करेंगे और उसकी ओर फिरेंगे; और जाति जाति के सारे घराने तेरे सम्मुख दण्डवत करेंगे।… पृथ्वी के सब हष्ट-पुष्ट लोग खाएंगे और आराधना करेंगे; वे सब जो मिट्टी में मिल जाते हैं, हां, वे जो अपना प्राण बचा नहीं सकते, उसके सम्मुख घुटने टेकेंगे”(पद 27, 29)। दुख उठाने के बाद एक विश्वव्यापी राज्य की महिमा आती है।

परमेश्वर की सफलता न केवल पूरे संसार को प्रभावित करेगी, परन्तु पीढ़ियों को भी प्रभावित करेगी: “एक वंश उसकी सेवा करेगा, और भावी पीढ़ी से प्रभु का वर्णन किया जाएगा” (पद 30)। यहाँ का चित्रण प्रभु द्वारा सफलता का एक संक्षिप्त समय नहीं है, किन्तु यह आश्वासन कि दुख के समय के बाद पृथ्वी भर में परमेश्वर के ज्ञान के महान प्रसार का समय होगा। और निश्चित रूप से, पिन्तेकुस्त के समय से, हमने इस प्रतिज्ञा की पूर्ति देखी है। आज संसार भर में, यीशु को जाना गया है और उसकी आराधना होती है। इस संसार में कष्ट के बने रहते हुए भी हमने मसीह की प्रतिज्ञा को पूर्ण होते देखा है: “मैं अपनी कलीसिया बनाऊंगा, और अधोलोक के फाटक उस पर प्रबल न होंगे” (मत्ती 16:18)।

यह सफलता प्रभु का कार्य है, “राज्य यहोवा ही का है, और वही देश देश पर शासन करता है” (पद 28)। वह सक्रिय जन है जो अन्ततः अपने कार्य को विजयी करता है। प्रभु अपने विजय को उसके द्वारा उपयोग किए जाने वाले साधन के माध्यम से करता है। और दाऊद स्वयं को देखता है एक साधन के रूप में, विशेष रूप से अपने परमेश्वर की भलाई और दया की घोषणा करने में: “मैं अपने भाइयों में तेरे नाम का प्रचार करूँगा;” (पद 22)। पद 22 में यीशु भी वह वक्ता है, जिसे हमें इब्रानियों 2:12 में बताया गया है (यह उद्धरण पुनः दिखाता है कि कैसे नया नियम पूर्ण रीति से यीशु को भजन में बोलते हुए देखता है)।

भजनकार, वास्तव में, परमेश्वर के नाम का प्रचार करता है, विशेषकर उसके बचाने वाली दया के संदर्भ में: “क्योंकि उसने दुखी के दुख को न तो तुच्छ जाना और न उस से घृणा की, न ही उसने उस से अपना मुँह छिपाया, परन्तु जब उसने सहायता के लिए उसे पुकारा तो उसकी सुन ली” (पद 24)। इस प्रकार की घोषणा संसार में परमेश्वर के सुसमाचार के कार्य (mission) के लिए महत्वपूर्ण है। जैसा कि कैल्विन ने लिखा, “परमेश्वर केवल वचन के माध्यम से अपनी कलीसिया को उत्पन्न करता और बढ़ाता है।” जिन लोगों ने परमेश्वर की दया का अनुभव किया है, उन्हें दूसरों को इसके विषय में बताना चाहिए।

जबकि परमेश्वर अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए साधनों का उपयोग करता है, महिमा केवल उसी की है, क्योंकि वह ही उनके माध्यम से कार्य करता है और उनकी सफलता को सुनिश्चित करता है। इस कारण से, यह भजन इस दृढ़ निश्चय के साथ समाप्त होता है: “उसने यह सब किया है” (पद 31)। हमारा परमेश्वर हमारी प्रार्थनाओं को सुनता है, अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा करता है, और हमें प्रशंसा के भाव भर देता है। “क्योंकि उसी की ओर से, उसी के द्वारा और उसी के लिए सब कुछ है। उसी की महिमा युगानुयुग होती रहे। आमीन”(रोमियो 11:36)।

जैसा कि हम भजन 22 को समझना चाहते हैं ताकि हम इसे ले सकें और इसका उपयोग कर सकें, हमें इसे कलीसिया के इतिहास की दिशा में देखने की आवश्यकता है: पहले दुख उठाना और फिर महिमा। हमें कलीसिया के लिए और व्यक्तिगत मसीही के लिए ईश्वरभक्ति के कुछ उदाहरण को भी देखने की आवश्यकता है। उदाहरण यह है: इस पतित संसार में जीवन की वास्तविक और निश्चित समस्याओं को हमारी अगुवाई प्रार्थना के लिए करनी चाहिए। प्रार्थना को हमारी अगुवाई परमेश्वर के प्रतिज्ञाओं को स्मरण करने और मनन करने की ओर करनी चाहिए, दोनों, वे जो अतीत में पूरी हुईं तथा वे जिन पर हम भरोसा रखते है कि वे भविष्य में पूरी होंगी। परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं को स्मरण रखना हमें उसकी स्तुति करने में सहायता करेगी जैसा हमें करना चाहिए। जैसे हम उसकी प्रशंसा करते हैं, हम अनुग्रह और विश्वास के साथ अपने जीवन में प्रतिदिन के आने वाली समस्याओं का सामना लगातार कर सकते हैं।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

डब्ल्यू. रॉबर्ट गॉडफ्रे
डब्ल्यू. रॉबर्ट गॉडफ्रे
डॉ. डब्ल्यू. रॉबर्ट गॉडफ्रे लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ के एक सह शिक्षक हैं और कैलिफ़ोर्निया के वेस्टमिन्सटर सेमिनरी में ससम्मान सेवामुक्त अध्यक्ष और प्रोफेसर हैं। वह कलीसिया के इतिहास के सर्वेक्षण के छह-भाग लिग्निएर शिक्षण श्रृंखला के लिए विशेष रूप से शिक्षक हैं और कई पुस्तकों के लेखक, जिसमें सेविंग रिफॉर्मेशन भी सम्मिलित है।