“कोरम डेओ ” का अर्थ क्या है? - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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“कोरम डेओ ” का अर्थ क्या है?

मुझे स्मरण है कि मम्मी मेरे सामने खड़ी थी, उनके हाथ उनकी कमर पर थे, उनकी आँखें आग के गर्म अंगारों जैसे चमक रही थीं और उन्होंने उच्च स्वर में कहा, “क्या बड़ा विचार है, हे जवान?”

स्वाभाविक रीति से मैं जानता था कि मेरी माता मुझसे सिद्धांत के विषय में अमूर्त प्रश्न नहीं पूछ रही थी। उनका प्रश्न, एक प्रश्न बिल्कुल भी नहीं था—वह एक पतली परत में छिपा हुआ दोषारोपण था। उनके शब्दों का अनुवाद सरलता से इस अर्थ के लिए किया जा सकता था कि “तुम जो कर रहे हो वह क्यों कर रहे हो?” वह एक उचित विचार के साथ मेरे व्यवहार को सही ठहराने के लिए मुझे चुनौती दे रही थी। मेरे पास ऐसा विचार नहीं था।

हाल ही में एक मित्र ने मुझसे बड़ी सत्यनिष्ठा से वही प्रश्न पूछा। उसने पूछा, “मसीही जीवन का बड़ा विचार क्या है?” वह इच्छुक था मसीही जीवन के बड़े, अन्तिम लक्ष्य में।

उसके प्रश्न का उत्तर देने के लिए, मैंने ईश्वरविज्ञानी होने का कर्तव्य निभाया और मैंने उसे एक लतीनी वाक्यांश दिया। मैंने कहा, “मसीही जीवन का बड़ा विचार कोरम डेओ है। कोरम डेओ  मसीही जीवन के तत्व को प्रकट करता है।”

यह कथन शाब्दिक रूप से उस बात को संदर्भित करता है जो परमेश्वर की उपस्थिति या परमेश्वर के मुख के सम्मुख होता है। कोरम डेओ  में जीने का अर्थ है कि अपने सम्पूर्ण जीवन को परमेश्वर की उपस्थिति में, परमेश्वर के अधिकार के अधीन तथा परमेश्वर की महिमा के लिए जीना।

परमेश्वर की उपस्थिति में जीने का अर्थ है इस बात को समझना कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं और जहाँ भी कर रहे हैं, हम परमेश्वर की दृष्टि की में कार्य कर रहे हैं। परमेश्वर सर्वोपस्थित है। ऐसा कोई भी छिपा हुआ स्थान नहीं है जहाँ हम उसकी तीव्र दृष्टि से बच सकें।

परमेश्वर की उपस्थिति के विषय में अवगत होना वास्तविक रीति से उसकी सम्प्रभुता के बारे में पूरी रीति से अवगत होना है। संतों का एक समान अनुभव इस बात को पहचानना है कि यदि परमेश्वर, परमेश्वर है, तो वह वास्तव में सम्प्रभुता रखता है। जब दमिश्क की ओर जाने वाले मार्ग पर जीवित मसीह के प्रकाशमान महिमा से शाऊल का सामना हुआ, तो उसका तात्कालिक प्रश्न यह था, “प्रभु, तू कौन है?” वह नहीं जानता था कि कौन उससे बात कर रहा है, किन्तु वह जानता था कि यह जो भी है, निश्चित रूप से उसकी प्रभुता मेरे जीवन पर है।

परमेश्वर की सम्प्रभुता के अधीन जीने का अर्थ दण्ड के भय से प्रेरित होकर हिचकिचाते हुए परमेश्वर के अधीन जीना नहीं है। इसमें यह पहचानना सम्मिलित है कि परमेश्वर को महिमा देने से बढ़कर कोई और बड़ा लक्ष्य नहीं है। हमारे जीवन को जीवित बलिदान होना चाहिए, ऐसे बलिदान जो प्रशंसा और कृतज्ञता में चढ़ाए गए हों।

अपने जीवन भर कोरम डेओ  के लिए जीना, खराई से जीवन जीना है। यह सम्पूर्णता का जीवन है जो परमेश्वर के ऐश्वर्य में अपनी एकता और सुसंगति पाता है। खण्डित जीवन विघटन का जीवन है। यह अस्थिरता, असामंजस्य, भ्रम, मतभेद, विरोधाभास तथा गड़बड़ी के द्वारा चिह्नित है।

जो मसीही अपने जीवन को धार्मिक और गैर-धार्मिक के दो भागों में बांटता है, वह बड़े विचार को समझने में विफल रहा है। बड़ा विचार यह है कि या तो सम्पूर्ण जीवन धार्मिक है या फिर जीवन में कुछ भी धार्मिक नहीं है। धार्मिक और गैर-धार्मिक के बीच में जीवन को विभाजित करना स्वयं पवित्रता का उल्लंघन है।

इसका अर्थ यह है कि यदि व्यक्ति अपने व्यवसाय को एक स्टील का काम करने वाले, अधिवक्ता या गृहिणी को कोरम डेओ  होता हुए पूरा करता है, तो वह व्यक्ति उतना ही धार्मिक है जैसे आत्मा को जीतने वाले सुसमाचार प्रचारक जो अपने कार्य को पूरा करता है। इसका अर्थ है कि दाऊद तब भी उतना ही धार्मिक था, जब उसने चरवाहा बनने के लिए परमेश्वर की बुलाहट को स्वीकार किया, और जब वह राजा के लिए विशेष अनुग्रह के साथ अभिषिक्त किया गया। इसका अर्थ यह है कि यीशु तब भी पूरी तरह से धार्मिक था जब उसने अपने पिता के बढ़ई की दुकान पर कार्य किया, जितना वह गतसमनी के बगीचे में था।

खराई वहाँ पाई जाती है जहाँ पुरुष और महिलाएं अपने जीवन को स्थिरता के ढांचे में जीते हैं। यह एक ऐसा प्रतिरूप है जो कलीसिया में और कलीसिया के बाहर एक ही मूल प्रकार से कार्य करता है। यह एक ऐसा जीवन है जो परमेश्वर के सामने खुला है। यह एक ऐसा जीवन है जिसमें सब कुछ ऐसा किया जाता है जैसा कि वह प्रभु के लिए किया जाता है। यह सिद्धांत द्वारा जीया गया जीवन है, न कि सुविधा के लिए, परमेश्वर के सम्मुख नम्रता के साथ जीया गया जीवन है, न कि अनादर करते हुए। यह एक ऐसा जीवन है जो ऐसे विवेक के संरक्षण के अधीन जीया जाता है जो परमेश्वर के वचन के अधिकार के अधीन होता है।

कोरम डेओ . . . परमेश्वर के सम्मुख होना। यह बड़ा विचार है। इस विचार के आगे हमारे अन्य लक्ष्य और महत्वाकांक्षाएँ मात्र तुच्छ वस्तु बन जाती हैं।

आगे के अध्ययन के लिए कुछ खण्ड: मत्ती 24:13, रोमियों 8:31-36, 2 कुरिन्थियों 4:7-16, इब्रानियों 6:9-12, 10:35-39।

भजन 22 मानव इतिहास में सबसे व्यथित पुकार से आरम्भ होता है; “हे मेरे परमेश्वर, हे मेरे परमेश्वर, तू ने मुझे क्यों छोड़ दिया?” ये वे वचन हैं जो यीशु ने अपने होंठो पर लिए अपनी पीड़ा की गहराई के समय क्रूस पर। उसकी पीड़ा उस समय अनोखी थी जब उसने अपने लोगों के पापों के लिए स्वयं को चढ़ा दिया। और इस कारण, हम अधिकाँशतः इस पुकार को अनोखे रूप से यीशु ही समझते हैं। परन्तु इन शब्दों के साथ ऐसा करना स्पष्ट रूप से त्रुटीपूर्ण है। यीशु ने अपनी पीड़ा की व्याख्या करने के लिए अनोखे शब्दों का आविष्कार नहीं किया था। इसके स्थान पर, वह भजन 22:1 को उद्धरित कर रहा था। ये शब्द पहले दाऊद द्वारा कहे गए थे, और दाऊद परमेश्वर के सभी लोगों के लिए बोल रहा था। इनको पूर्ण रीति से समझने के लिए हमें इन शब्दों को तथा पूरे भजन पर मनन करने की आवश्यकता है कि वे कैसे मसीह और उसके सभी लोगों से जुड़े हुए हैं।

भजन का आरम्भ एक ऐसे भाग से होता है जिसमें दाऊद की कष्टदायी प्रार्थना प्रमुख है (पद 1-21)। दाऊद सब से पहले परमेश्वर द्वारा त्याग दिए जाने की अपनी भावना के अनुभव को व्यक्त कर रहा है। यहाँ पर सबसे अधिक दुख है जिसे परमेश्वर का सेवक जान सका—न केवल शत्रु उसे घेरे हुए हैं (पद 7, 12–13) और उसका शरीर भयानक पीड़ा में है (पद 14-16), किन्तु उसे लगता है कि परमेश्वर उसकी नहीं सुनता है और उसकी पीड़ा पर ध्यान नहीं देता है। और यह केवल दाऊद का अनुभव नहीं है। यह परमेश्वर के उन सब लोगों का अनुभव है जो भयंकर कष्ट का सामना करते हैं । हमें आश्चर्य होता है कि जब हम इस प्रकार के संकट में होते हैं तो हमारा प्रेमी स्वर्गीय पिता कैसे बिना कुछ किए खड़ा रहता है।

फिर भी, इस चरम संकट में भी, दाऊद कभी भी विश्वास नहीं खोता है या पूरी निराशा में नहीं गिर जाता है। उसकी पीड़ा उसे प्रार्थना की ओर ले जाती है, और प्रार्थना के पहले शब्द “हे मेरे परमेश्वर” हैं। उसके दुख और परमेश्वर के मार्गों के विषय में सोचते हुए भी, वह अपने इस ज्ञान को नहीं खोता है कि परमेश्वर ही उसका परमेश्वर है। वह इस्राएल के इतिहास में हुए परमेश्वर के पिछली विश्वासयोग्यता को स्मरण करता है: “तुझ ही पर हमारे पूर्वजों ने भरोसा रखा; उन्होंने भरोसा रखा और तू ने उन्हें छुड़ाया। उन्होंने तेरी दुहाई दी, और वे छुड़ा लिए गए; तुझ पर उन्होंने भरोसा किया; और वे लज्जित न हुए” (4-5)। फिर, दाऊद अतीत में अपने व्यक्तिगत जीवन में परमेश्वर द्वारा सम्भाले जाने को स्मरण करता है: “तू ने ही मुझे गर्भ से निकाला; जब मैं दूध-पीता बच्चा ही था, तू ने मुझे भरोसा रखना सिखाया। जन्म से ही मैं तुझ पर छोड़ दिया गया था; मेरी माता के गर्भ से ही तू मेरा परमेश्वर है” (पद 9–10)। भजनों में बार-बार आत्मिक उपाय परमेश्वर द्वारा अतीत की विश्वासयोग्यता का स्मरण करना हमें उसके वर्तमान विश्वासयोग्यता का निश्चयता देता है।

हम दाऊद की वर्तमान सहायता के लिए उसकी प्रार्थना में भी आशा देखते हैं। वह जानता है कि परमेश्वर सहायता कर सकता है, और वह परमेश्वर की ओर फिरता है क्योंकि केवल वह ही सहायता करेगा: “अब, हे यहोवा, तू दूर न रह, हे मेरे सहायक, मेरी सहायता के लिए फुर्ती कर!” (पद 19)। हमें कभी भी प्रार्थना करना  बन्द नहीं करना चाहिए, यहाँ तक कि हमारे भयंकर निराशा में भी।

जॉन कैल्विन ने अपनी टीका में निष्कर्ष निकाला कि परमेश्वर द्वारा त्याग दिए जाने की भावना, मसीह के लिए अनोखे या विश्वासियों के लिए दुर्लभ होने से बहुत दूर, एक नियमित और लगातार संघर्ष है। उसने लिखा, “ईश्वरभक्त में से कोई भी नहीं है जो स्वयं में उसी बात का प्रतिदिन अनुभव नहीं करता है। शरीर के न्याय के अनुसार, वह सोचता है कि वह परमेश्वर द्वारा फेंका गया तथा छोड़ दिया गया है, जबकि अभी भी वह विश्वास से परमेश्वर के अनुग्रह को देखता है, जो भाव और तर्क की दृष्टि से छिपा है।” हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि मसीही जीवन जीना सरल है या कि हमें प्रतिदिन क्रूस नहीं उठाना पड़ेगा।

यह भजन न केवल प्रत्येक विश्वासी का अनुभव है, पर यह यीशु के दुख उठाने की एक बहुत ही उल्लेखनीय और विशिष्ट भविष्यवाणी है। हम क्रूसीकरण के दृश्य को विशेष रीति से इन वचनों में स्पष्टता से देखते हैं, “क्योंकि कुत्तों ने मुझे घेर लिया है; दुष्टों के एक झुण्ड ने मुझे चारों ओर से घेर लिया है, उन्होंने मेरे हाथों और मेरे पैरों को छेदा है—मैं अपनी सब हड्डियां गिन सकता हूँ। लोग मुझे देखकर घूरते हैं। वे आपस में मेरे वस्त्रों को बांटते हैं और मेरे कपड़ों के लिए चिट्टी डालते हैं”(पद 16–18)। यहाँ हम देखते हैं कि वास्तव में इस भजन की अपनी पूर्ण पूर्ति मसीह में आती है।

यीशु इस भजन को जानता था और उसने हमारे दुख में हमारे साथ अपनी पहचान कराते हुए उसके आरम्भिक शब्दों को उद्धरित किया, क्योंकि उसने क्रूस पर हमारे कष्टों और पीड़ा को उठा लिया। “अत: जिस प्रकार बच्चे मांस और लहू में सहभागी हैं, तो वह आप भी उसी प्रकार उनमें सहभागी हो गया, कि मृत्यु के द्वारा उसको जिसे मृत्यु पर शक्ति मिली है, अर्थात शैतान को शक्तिहीन कर दे”(इब्रानियों 2:14)। यीशु हमें छुड़ाता है हमारा स्थान लेने के द्वारा और पापों के लिए बलि बनने के द्वारा।

इस भजन के दूसरे भाग में, भाव और ध्वनि नाटकीय रीति बदलते हैं। पीड़ा की प्रार्थना तीव्र प्रशंसा की ओर फिरती है। भजनकार स्तुति से भर जाता है: “सभा के बीच में तेरी स्तुति करूँगा” (पद 22)। वह अपने भाइयों से स्तुति में उसके साथ जुड़ने के लिए बुलाता है: “तुम जो यहोवा का भय मानते हो, उसकी स्तुति करो!” (पद 23)।

यह उत्साही प्रशंसा परमेश्वर के पक्ष की सफलता के लिए है। भजन के आरम्भ में जो पराजय निश्चित लग रही थी उसको अब विजय ने निगल लिया है। यह सफलता केवल निजी या व्यक्तिगत नहीं होगी वरन् संसार भर में होगी। प्रशंसा प्रचुर प्रतिज्ञा पर टिकी हुई है: “पृथ्वी के छोर छोर से लोग यहोवा का स्मरण करेंगे और उसकी ओर फिरेंगे; और जाति जाति के सारे घराने तेरे सम्मुख दण्डवत करेंगे।… पृथ्वी के सब हष्ट-पुष्ट लोग खाएंगे और आराधना करेंगे; वे सब जो मिट्टी में मिल जाते हैं, हां, वे जो अपना प्राण बचा नहीं सकते, उसके सम्मुख घुटने टेकेंगे”(पद 27, 29)। दुख उठाने के बाद एक विश्वव्यापी राज्य की महिमा आती है।

परमेश्वर की सफलता न केवल पूरे संसार को प्रभावित करेगी, परन्तु पीढ़ियों को भी प्रभावित करेगी: “एक वंश उसकी सेवा करेगा, और भावी पीढ़ी से प्रभु का वर्णन किया जाएगा” (पद 30)। यहाँ का चित्रण प्रभु द्वारा सफलता का एक संक्षिप्त समय नहीं है, किन्तु यह आश्वासन कि दुख के समय के बाद पृथ्वी भर में परमेश्वर के ज्ञान के महान प्रसार का समय होगा। और निश्चित रूप से, पिन्तेकुस्त के समय से, हमने इस प्रतिज्ञा की पूर्ति देखी है। आज संसार भर में, यीशु को जाना गया है और उसकी आराधना होती है। इस संसार में कष्ट के बने रहते हुए भी हमने मसीह की प्रतिज्ञा को पूर्ण होते देखा है: “मैं अपनी कलीसिया बनाऊंगा, और अधोलोक के फाटक उस पर प्रबल न होंगे” (मत्ती 16:18)।

यह सफलता प्रभु का कार्य है, “राज्य यहोवा ही का है, और वही देश देश पर शासन करता है” (पद 28)। वह सक्रिय जन है जो अन्ततः अपने कार्य को विजयी करता है। प्रभु अपने विजय को उसके द्वारा उपयोग किए जाने वाले साधन के माध्यम से करता है। और दाऊद स्वयं को देखता है एक साधन के रूप में, विशेष रूप से अपने परमेश्वर की भलाई और दया की घोषणा करने में: “मैं अपने भाइयों में तेरे नाम का प्रचार करूँगा;” (पद 22)। पद 22 में यीशु भी वह वक्ता है, जिसे हमें इब्रानियों 2:12 में बताया गया है (यह उद्धरण पुनः दिखाता है कि कैसे नया नियम पूर्ण रीति से यीशु को भजन में बोलते हुए देखता है)।

भजनकार, वास्तव में, परमेश्वर के नाम का प्रचार करता है, विशेषकर उसके बचाने वाली दया के संदर्भ में: “क्योंकि उसने दुखी के दुख को न तो तुच्छ जाना और न उस से घृणा की, न ही उसने उस से अपना मुँह छिपाया, परन्तु जब उसने सहायता के लिए उसे पुकारा तो उसकी सुन ली” (पद 24)। इस प्रकार की घोषणा संसार में परमेश्वर के सुसमाचार के कार्य (mission) के लिए महत्वपूर्ण है। जैसा कि कैल्विन ने लिखा, “परमेश्वर केवल वचन के माध्यम से अपनी कलीसिया को उत्पन्न करता और बढ़ाता है।” जिन लोगों ने परमेश्वर की दया का अनुभव किया है, उन्हें दूसरों को इसके विषय में बताना चाहिए।

जबकि परमेश्वर अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए साधनों का उपयोग करता है, महिमा केवल उसी की है, क्योंकि वह ही उनके माध्यम से कार्य करता है और उनकी सफलता को सुनिश्चित करता है। इस कारण से, यह भजन इस दृढ़ निश्चय के साथ समाप्त होता है: “उसने यह सब किया है” (पद 31)। हमारा परमेश्वर हमारी प्रार्थनाओं को सुनता है, अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा करता है, और हमें प्रशंसा के भाव भर देता है। “क्योंकि उसी की ओर से, उसी के द्वारा और उसी के लिए सब कुछ है। उसी की महिमा युगानुयुग होती रहे। आमीन”(रोमियो 11:36)।

जैसा कि हम भजन 22 को समझना चाहते हैं ताकि हम इसे ले सकें और इसका उपयोग कर सकें, हमें इसे कलीसिया के इतिहास की दिशा में देखने की आवश्यकता है: पहले दुख उठाना और फिर महिमा। हमें कलीसिया के लिए और व्यक्तिगत मसीही के लिए ईश्वरभक्ति के कुछ उदाहरण को भी देखने की आवश्यकता है। उदाहरण यह है: इस पतित संसार में जीवन की वास्तविक और निश्चित समस्याओं को हमारी अगुवाई प्रार्थना के लिए करनी चाहिए। प्रार्थना को हमारी अगुवाई परमेश्वर के प्रतिज्ञाओं को स्मरण करने और मनन करने की ओर करनी चाहिए, दोनों, वे जो अतीत में पूरी हुईं तथा वे जिन पर हम भरोसा रखते है कि वे भविष्य में पूरी होंगी। परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं को स्मरण रखना हमें उसकी स्तुति करने में सहायता करेगी जैसा हमें करना चाहिए। जैसे हम उसकी प्रशंसा करते हैं, हम अनुग्रह और विश्वास के साथ अपने जीवन में प्रतिदिन के आने वाली समस्याओं का सामना लगातार कर सकते हैं।

मार्टिन लूथर, हेनरिक बुलिंगर और जॉन कैल्विन को छोड़कर, सबसे महत्वपूर्ण आरम्भिक धर्मसुधारक, उलरिक ज़्विग्ली थे। एक पहली पीढ़ी के धर्मसुधारक के रूप में, उन्हें स्विट्ज़रलैण्ड प्रोटेस्टेंटवाद का संस्थापक माना जाता है। इसके साथ, इतिहास उन्हें पहले धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञानी के रूप में स्मरण करता है। यद्यपि कैल्विन बाद में, एक ईश्वरविज्ञानी के रूप में ज़्विग्ली से आगे निकल गए, वह ज़्विंग्ली के चौड़े कन्धों के आधार पर खड़े थे।

लूथर के संसार में आने के दो महीने से भी कम समय बाद, ज़्विंग्ली का जन्म 1 जनवरी, 1484 को, आधुनिक समय के स्विट्ज़रलैण्ड के पूर्वी भाग में ज़्यूरिक से चालीस मील दूर एक छोटे से गाँव वाइल्डहाउस में हुआ था। उनके पिता, उलरिक सीनियर, कृषि कार्य से बढ़कर एक साधन वाले उच्च-मध्यम-वर्ग के पुरुष, सफल किसान और चरवाहा और साथ ही जिले के मुख्य मजिस्ट्रेट बन गए थे। इस समृद्धि ने उन्हें अपने बेटे को एक उत्कृष्ट शिक्षा प्रदान करने के लिए सशक्त किया। उन्होंने एक ऐसे घर की अगुवाई की, जहाँ युवा उलरिक में विशिष्ट स्विट्ज़रलैण्ड सम्बन्धी मूल्यों को मस्तिष्क में बैठाया गया था: प्रबल स्वतंत्रता, दृढ़ देशभक्ति, धर्म के प्रति धुन और ज्ञान में वास्तविक रुचि।

बड़े उलरिक ने अपने बेटे की बौद्धिक क्षमताओं को शीघ्र पहचान लिया और उसे पढ़ना और लिखना सिखाने के लिए उसके चाचा, एक पूर्व पादरी के पास भेज दिया। अपनी समृद्धि के कारण, ज़्विंग्ली के पिता अपने पुत्र को आगे की शिक्षा प्रदान करने में सक्षम थे। 1494 में, उन्होंने दस वर्षीय उलरिक को बासेल के हाई स्कूल में भेजा, जहाँ उन्होंने लतीनी, तर्क-विर्तक और संगीत का अध्ययन किया। उन्होंने इतनी तीव्रता से प्रगति किया कि उनके पिता ने उन्हें 1496 या 1497 में बर्न में स्थानांतरित कर दिया, जहाँ उन्होंने एक प्रसिद्ध मानवतावादी हेनरिक वोफ्लिन के अधीन अपनी पढ़ाई जारी रखी। यहाँ ज़्विंग्ली को पुनर्जागरण के विचारों और विद्वानी साधनों का विशेष समय प्राप्त हुआ। उनकी प्रतिभा को डोमिनिकन मठवासियों ने पहचाना, जिन्होंने उन्हें अपने धर्मसंघ में लेने का प्रयास किया, किन्तु ज़्विंग्ली के पिता नहीं चाहते थे कि उनका पुत्र सन्यासी बने।

वियना और बासेल के विश्वविद्यालय

1498 में, ज़्विंग्ली के पिता ने उन्हें वियना विश्वविद्यालय भेजा, जो शास्त्रीय अध्ययन का एक केन्द्र बन गया था जब मानववाद (humanist) अध्ययन ने मतवाद (Scholasticism) के विस्थापित किया। वहाँ उन्होंने दर्शनशास्त्र, खगोल विज्ञान, भौतिकी और प्राचीन उत्कृष्ट साहित्य का अध्ययन किया। 1502 में, उन्होंने बासेल विश्वविद्यालय में भरती लिया और अच्छी मानववाद की शिक्षा प्राप्त की। कक्षा में, वह ईश्वरविज्ञान के प्रोफेसर, थॉमस विटनबैक के प्रभाव में आए, और कलीसिया में हो रहे दुर्व्यवहारों से अवगत होने लगे। जैसे उन्होंने आगे उत्कृष्ट साहित्य का अध्ययन किया और लतीनी भी सिखाई। उन्होंने उस विद्यालय से अपनी स्नातक (1504) और पर-स्नातक की (1506) डिग्री प्राप्त की।

ज़्विंग्ली को रोमन कैथोलिक कलीसिया में पुरोहित का कार्य करने के लिए ठहराया गया था और उन्होंने तुरन्त अपने बचपन की कलीसिया, ग्लैरस में एक पादरी का पद मोल लिया। धर्मसुधार से पहले किसी राजकुमार को पैसा देकर कलीसिया में पद प्राप्त करना एक सामान्य बात थी। उनका समय प्रचार करने, शिक्षा देने, लोगों की देख-भाल में बीतता था। उन्होंने स्वयं को बहुत व्यक्तिगत अध्ययन के लिए समर्पित किया, स्वयं को यूनानी सिखाते और कलीसियाई पिता और प्राचीन उत्कृष्ट लेखों का अध्ययन करते हुए। वह अन्यजाति के दार्शनिकों और प्राचीन कवियों से आसक्त हो गया। सबसे महत्वपूर्ण रूप से, उन्होंने डेसिडेरियस इरास्मस के मानवतावादी लेखन को पढ़ना आरम्भ किया और उनकी विद्वता और भक्ति से गहराई से प्रभावित हुए। यह इरास्मस के साथ एक बहुमूल्य पत्राचार का कारण बना।

ग्लैरस में अपनी सेवा के समयकाल में, 1506 से 1516 तक, ज़्विंग्ली ने दो बार युवा स्विस किराए के सैनिकों के पादरी के रूप में कार्य किया। किराये के लिए स्विस सैनिक यूरोप भर में बहुत मांग में थे और स्विस क्षेत्रों के लिए आय का एक प्रमुख स्रोत थे। यहां तक ​​कि पोप के चारों ओर स्विस सैनिक थे। किन्तु इस कार्य में कई उत्तम स्विस युवकों का जीवन बलिदान हुआ। एक पादरी के रूप में, ज़्विंग्ली ने उनमें से कई को एक-दूसरे से लड़ते देखा, स्विस लोगों को विदेशी शासकों के लिए विदेशी धरती पर स्विस लोगों की हत्या करते हुए। उन्हें अनगिनत बार अन्तिम संस्कार का प्रबन्ध करना पड़ा। मारिग्नानो की लड़ाई (1515) ने लगभग दस हज़ार स्विस जीवन ले लिया। ज़्विंग्ली इस प्रणाली से घृणा करने लगे और इसके विरुद्ध प्रचार करने लगे।

ग्लैरस में उनका अन्तिम वर्ष बहुत महत्वपूर्ण प्रमाणित हुआ। यह उस समय था जब ज़्विंग्ली पवित्रशास्त्र के एक सुसमाचारीय समझ में आए। इरास्मस ने उस वर्ष अपना यूनानी नया नियम प्रकाशित किया, और ज़्विंग्ली ने इसे बड़ी धुन के साथ पढ़ा; यह कहा जाता है कि उन्होंने पौलुस की पत्रियों को मूल भाषा में याद किया। यह लूथर द्वारा अपने पंचान्नवे थिसिस के वेटनबर्ग कासल चर्च के द्वार पर ठोकने के एक वर्ष से कुछ अधिक समय पहले घटित हुआ। अपने पवित्रशास्त्र के अध्ययन के कारण, लूथर के विचारों के बारे में कोई जानकारी न होते हुए, ज़्विंग्ली ने उसी संदेश का प्रचार करना आरम्भ किया, जो लूथर शीघ्र ही घोषणा करने वाला था। उसने लिखा: “इससे पहले कि क्षेत्र में किसी ने भी लूथर के बारे में सुना हो, मैंने 1516 में मसीह के सुसमाचार का प्रचार करना आरम्भ किया…। मैंने सुसमाचार का प्रचार करना आरम्भ कर दिया, इससे पहले कि मैंने लूथर का नाम भी सुना था…। लूथर ने, जिसका नाम मैं कम से कम दो और वर्ष तक नहीं जानता था, निश्चित रूप से मुझे निर्देश नहीं दिया था। मैंने केवल पवित्र शास्त्र का अनुसरण किया।”

आइन्सीडेल्न में प्रसिद्ध प्रचारक

राजनैतिक दबाव और किराए के सैनिकों की लड़ाई के विरुद्ध उनके उपदेशों के कारण, ज़्विंग्ली को 1516 में ग्लैरस छोड़ना पड़ा। उन्होंने 1518 तक आइन्सीडेल्न के बेनेडिक्ट मठ में एक पादरी के रूप में कार्य किया। आइन्सीडेल्न एक सैरगाह शहर था जो कुंवारी मरियम के लिए अपने तीर्थस्थान के लिए जाना जाता था। यह तीर्थस्थल स्विट्ज़रलैण्ड और उससे आगे के हिस्सों से बड़ी संख्या में तीर्थयात्रियों को आकर्षित करता था। इस व्यापक दर्शकों ने ज़्विंग्ली के उपदेश को सुना, जिसने उनकी प्रसिद्धि और प्रभाव को बढ़ाया।

आइन्सीडेल्न ग्लारस से छोटा था, इसलिए उसके कर्तव्य कम थे। इसने उनको पवित्रशास्त्र और कलीसियाई पिताओं के अध्ययन के लिए अधिक समय दिया। उन्होंने ऐम्ब्रोस, जेरोम, क्रिसोस्टोम और ऑगस्टीन के लेखों के साथ-साथ इरास्मस के लेखों को भी पढ़ा। इसके अतिरिक्त, उसने इरास्मस के यूनानी नये नियम को हाथ से लिखा। जब उन्होंने स्वयं को एक लोकप्रिय उपदेशक के रूप में प्रतिष्ठित किया, तो उन्होंने कलीसिया के कुछ दुरुपयोग पर भी आक्रमण करना आरम्भ कर दिया, विशेष रूप से पाप क्षमा के लिए पत्रों की बिक्री, और उनके उपदेश ने एक दृढ़ सुसमाचारीय प्रचार की ध्वनि लेना आरम्भ किया। हालाँकि, ज़्विंग्ली ने अभी तक कलीसिया के विश्वास में परिवर्तन की आवश्यकता नहीं देखी थी। किन्तु, उनको लगा कि सुधार को मुख्य रूप से संस्थागत और नैतिक होना चाहिए। इसके साथ, वह अपने शिक्षण में पवित्रशास्त्र से अधिक कलीसियाई पिताओं पर निर्भर रहे। वे अभी तक सुधार के कार्य के लिए तैयार नहीं थे।

दिसम्बर 1518 में, ज़्विंग्ली के बढ़ते प्रभाव ने उनके लिए ज़्यूरिक में ग्रोसमुन्स्टर (बड़ा कैथीड्रल) में “लोगों के पादरी” के पद को प्राप्त कराया। यह पास्टर का कार्य एक महत्वपूर्ण स्थान था। ज़्विंग्ली ने तुरन्त कलीसिया के तिथिपत्र के अनुसार प्रचार करने के सामान्य अभ्यास को बन्द किया। इसके स्थान पर, उन्होंने घोषणा की कि वह बाइबल की पूरी पुस्तकों को क्रम से प्रचार करेंगे। 1 जनवरी, 1519 को, उनके पैंतीसवें जन्मदिन को, ज़्विंग्ली ने मत्ती में व्याख्यात्मक प्रचार की एक श्रृंखला आरम्भ किया, जो यूनानी स्थल के उनके व्याख्या से तैयार किए गए थे। उन्होंने इस निरंतर शैली को तब तक जारी रखा जब तक कि उन्होंने पूरे नए नियम का प्रचार नहीं कर लिया। इस महत्वाकांक्षी योजना में छह वर्ष लगे और इसने सुधार के कार्य के लिए नींव तैयार की गई जो आने वाला था।

1519 में, पतझड़ के समय, ज़्यूरिक को प्लेग का प्रकोप झेलना पड़ा। इसके सात हज़ार नागरिकों में से दो हज़ार की मृत्यु हो गई। ज़्विंग्ली ने बीमार और मर रहे लोगों की देखभाल के लिए शहर में रहने का निर्णय किया। इस प्रक्रिया में, वह स्वयं इस बीमारी की चपेट में आ गए और लगभग मरने पर थे। उनके तीन महीने की स्वास्थ्य में सुधार होने के समय ने उन्हें परमेश्वर पर भरोसा करने के बारे में बहुत कुछ सिखाया। इस व्यक्तिगत बलिदान ने भी लोगों के मध्य उनकी लोकप्रियता को बढ़ाया।

सुधार का परिचय

जैसे-जैसे ज़्विंग्ली ने बाइबल का क्रमबद्ध प्रचार किया, उसने स्थल में सामने आई सच्चाइयों को उजागर किया, भले ही वे कलीसिया की ऐतिहासिक परम्परा से भिन्न हों। इस प्रकार का प्रत्यक्ष प्रचार बिना चुनौतियों के नहीं था। 1522 में, उनके कुछ सदस्यों ने चालीस दिन के उपवास (lent) के समय मांस खाने के बारे में कलीसिया के नियम की अवहेलना की। ज़्विंग्ली ने मसीही स्वतंत्रता की बाइबलीय सच्चाइयों पर आधारित उनके अभ्यास का समर्थन किया। उन्होंने ऐसे प्रतिबन्धों को मानव निर्मित के रूप में देखा। उसी वर्ष, उन्होंने अपने बहुतों में से प्रथम धर्मसुधार लेखन की रचना की, जिसने पूरे स्विट्ज़रलैण्ड में उनके विचारों को प्रसारित किया।

नवम्बर 1522 में, ज़्विंग्ली ने कलीसिया और राज्य में बड़े सुधार लाने के लिए अन्य धार्मिक अगुवों और नगर समिति के साथ कार्य करना आरम्भ किया। जनवरी 1523 में, उन्होंने सरसठ थिथिस  लिखे, जिसमें उन्होंने कई मध्ययुगीन विचार-धाराओं को नकार दिया, जैसे कि बलपूर्वक उपवास, पादरियों का ब्रह्मचर्य, शोधन स्थान, मिस्सा, तथा पादरी मध्यस्थता। इसके साथ, उन्होंने कलीसिया में चित्रों के उपयोग पर प्रश्न उठाना आरम्भ किया। जून 1524 में, ज़्यूरिक शहर ने, उसके अगुवाई का अनुसरण करते हुए निर्णय लिया कि सभी धार्मिक चित्र कलीसियाओं से हटाए जाएं। और 1524 में ही, ज़्विंग्ली ने सुधार का एक और कदम उठाया—उसने एक विधवा ऐना रेइनहार्ड से विवाह किया। यह सब प्रतीत होता है कि ज़्विंग्ली के लूथर के बारे में सुनने से पहले हुआ था। यह वास्तव में परमेश्वर का एक स्वतंत्र काम था।

1525 तक, ज़्यूरिक में धर्मसुधार आंदोलन ने महत्वपूर्ण गति को प्राप्त किया था। 14 अप्रैल, 1525 को, मिस्सा (कैथलिक प्रभु-भोज) को आधिकारिक रूप से समाप्त कर दिया गया और ज़्यूरिक में और उसके आसपास प्रोटेस्टेन्ट आराधना सभाओं का आरम्भ किया गया। ज़्विंग्ली ने केवल वही लागू करने के लिए चुना जो पवित्रशास्त्र में सिखाया गया था। उन सब को अस्वीकार कर दिया गया जिनके लिए स्पष्ट पवित्रशास्त्र का समर्थन नहीं था। पवित्रशास्त्र के वचनों को लोगों की भाषा में पढ़ा और प्रचार किया गया था। पूरी मण्डली ने, न केवल पादरियों ने, एक साधारण प्रभु-भोज सेवा में रोटी और दाखरस दोनों प्राप्त किया। सेवक ने भाषण के स्थान में पाए जाने वाले कपड़े पहना न कि जो  कैथोलिक वेदी पर पहने जाते थे। मरियम और सन्तों की उपासना निषिद्ध थी, पापमुक्ति पत्र पर प्रतिबंध लगा दिया गया, और मृतकों के लिए प्रार्थनाओं को रोक दिया गया। रोम से अलगाव पूरा हो गया था।

ऐनाबैप्टिस्ट: अतिवादी धर्मसुधारक

ज़्विंग्ली ने एक नए समूह के साथ वाद-विवाद में भी प्रवेश किया, जिसे ऐनाबैप्टिस्ट्स (Anabaptists) या रीबैपेटाइज़र्स (Rebaptizers) के रूप में जाना जाता है, एक और अधिक कट्टरपंथी सुधार आंदोलन जो 1523 में ज़्यूरिक में आरम्भ हुआ था। हालाँकि ज़्विंग्ली ने बहुत बदलाव किए थे, वह इन विश्वासियों के लिए पर्याप्त रूप से आगे तक नहीं गया था। ऐनाबैप्टिस्टों के लिए, केवल विश्वासियों को बपतिस्मा देने का विषय रोमन कैथोलिक कलीसिया से कम महत्व का था। ऐनाबैप्टिस्टों ने कलीसिया के सम्पूर्ण पुनर्निर्माण की मांग की जो एक क्रान्ति के समान था।

ज़्विंग्ली ने ऐनाबैप्टिस्ट के प्रस्तावों को मौलिक अतिवादी के रूप से देखा। ऐनाबैप्टिस्ट द्वारा कलीसिया और समाज के तत्काल कायापलट की मांग के प्रतिउत्तर में, उन्होंने रोम से परिवर्तन में संयम और धैर्य का आग्रह किया। उन्होंने सलाह दी कि ऐनाबैप्टिस्ट को निर्बल भाइयों की सहना चाहिए जो धीरे-धीरे धर्मसुधारकों के शिक्षण को स्वीकार कर रहे थे। हालाँकि, इस दृष्टिकोण ने ज़्विंग्ली और कट्टरपंथियों के बीच संघर्ष को बड़ा ही करने का कारण बना।

शहर में सभी शिशुओं के बपतिस्मा के लिए ज़्यूरिक के अधिकारियों द्वारा आदेश बहुत विस्फोटक प्रमाणित हुआ। ऐनाबैप्टिस्टों ने भारी विरोध में ज़्यूरिक की सड़कों में जुलूस निकालने के द्वारा प्रतिउत्तर दिया। अपने शिशुओं को बपतिस्मा देने के स्थान पर, उन्होंने 1525 में एक-दूसरे को पानी उँडेलकर या डुबोकर बपतिस्मा दिया। उन्होंने ज़्विंग्ली के कलीसियाई विषयों पर नगर समिति के अधिकार की पुष्टि को भी अस्वीकार किया और कलीसिया और राज्य से पूर्णत: अलगाव की पैरवी की।

ऐनाबैप्टिस्ट अगुवों को क्रांतिकारी शिक्षण के आरोप में पकड़ा गया और दोष लगाया गया। कुछ की डुबोकर मौत हो गई। यह ज्ञात नहीं है कि ज़्विंग्ली मृत्यु दण्ड से सहमत थे, किन्तु उन्होंने उनका विरोध नहीं किया 

प्रभु-भोज विवाद

इस बीच, प्रभु-भोज को लेकर ज़्विंग्ली और लूथर के बीच विवाद होना आरम्भ हुआ। लूथर द्वितत्त्ववाद (consubstantiation) को मानते थे, यह विश्वास कि मसीह की देह और लहू, तत्वों में, उनके माध्यम से, या उनके नीचे उपस्थित थे। उन्होंने कहा कि उन तत्वों में मसीह की एक वास्तविक उपस्थिति थी, हालाँकि वह तत्व परिवर्तन (transubstantiation) के रोमन कैथोलिक शिक्षण से अलग थे, जो मानते हैं कि मिस्सा के समय पादरी द्वारा आशीर्वाद दिए जाने पर तत्व मसीह के शरीर और रक्त में परिवर्तित हो जाते हैं। ज़्विंग्ली ने इस मत को अपनाया प्रभु-भोज मुख्य रूप से मसीह की मृत्यु का स्मरण है—एक प्रतीकात्मक स्मरण।

धर्मसुधार आंदोलन में एकता लाने के प्रयास में, अक्टूबर 1529 में मारबर्ग वार्तालाप को बुलाया गया था। दो धर्मसुधारक आमने सामने हुए, मार्टिन ब्यूसर, फिलिप मेलान्कथन, जोहान्स ईकोलैम्पेडियस और अन्य प्रोटेस्टेन्ट अगुवे के साथ। वे उनके सामने रखे गए पंद्रह विषयों में से चौदह के सिद्धान्त में सहमत थे: कलीसिया-राज्य का सम्बन्ध, शिशु बपतिस्मा, कलीसिया की ऐतिहासिक निरन्तरता, और बहुत कुछ। किन्तु प्रभु-भोज के सम्बन्ध में कोई समझौता नहीं किया जा सका। लूथर ने कहा कि “ज़्विंग्ली एक ‘बहुत अच्छा पुरुष’ था, किन्तु ‘एक अलग आत्मा’ के साथ, और इसलिए उसने आँसू के साथ संगति के लिए बढ़ाये गए उसके हाथ को स्वीकार करने से मना कर दिया।” सहयोगियों के लिए, लूथर ने ज़्विंग्ली और उनके समर्थकों के बारे में टिप्पणी की, “मुझे लगता है कि परमेश्वर ने उन्हें अंधा कर दिया है।”

इतिहास के विचित्र विडंबनाओं में से एक में, ज़्विंग्ली, जिसने पहले किराए के सैनिकों के प्रयोग करने की प्रथा का विरोध किया था, 1531 में युद्ध भूमि में मर गए। प्रोटेस्टेन्ट और कैथोलिकों के बीच बढ़ते संघर्ष के कारण राज्यों के मध्य युद्ध छिड़ गया। ज़्यूरिक शहर दक्षिण से पांच आक्रमणकारी कैथोलिक राज्यों के विरुद्ध बचाव के लिए लड़ाई में गया। ज़्विंग्ली  ज़्यूरिक की सेना के साथ पादरी के रूप में युद्ध में जुड़ गया। कवच पहनकर और एक युद्ध-कुल्हाड़ी से लैस होकर, वह 11 अक्टूबर, 1531 को गम्भीर रूप से घायल हो गया। जब शत्रु सैनिकों ने उसे घायल पड़ा पाया, तो उन्होंने उसे मार डाला। दक्षिणी सेनाओं ने उसके शव के साथ अपमानजनक व्यवहार किया। उन्होंने उसके चार टुकड़े किए, उसके अवशेषों को टुकड़े-टुकड़े किए, और उन्हें जला दिया, फिर उसकी राख को गोबर में मिलाया और उन्हें देश से बाहर बिखेर दिया।

आज, ज़्विंग्ली की एक प्रतिमा ज़्यूरिक के वाटर चर्च में प्रमुख रूप से प्रदर्शित किया गया है। वह एक हाथ में बाइबल और दूसरे हाथ में तलवार लेकर खड़े हैं। यह प्रतिमा स्विस धर्मसुधार में ज़्विंग्ली के दृढ़ और अटल प्रभाव का प्रतिनिधित्व करती है। यद्यपि ज़्यूरिक में उसकी सेवकाई अपेक्षाकृत छोटी थी, फिर भी उन्होंने बहुत कुछ किया। सत्य के लिए अपने वीरतापूर्ण कदम के माध्यम से, ज़्विंग्ली ने ज़्यूरिक में कलीसिया का सुधार किया और अन्य धर्मसुधारकों के लिए मार्ग की अगुवाई की।

जब हम धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान (Reformed Theology) को समझने लगते हैं, तो न केवल हमारे उद्धार की समझ में परिवर्तन होता है, परन्तु प्रत्येक बात की समझ में। इसी कारण से जब लोग धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान के प्रारम्भिक सिद्धान्तों से संघर्ष करते हैं और जब वे उसे समझने लगते हैं, तो वे प्राय: अनुभव करते हैं कि उनका दोबारा हृदय परिवर्तित हो रहा है। वास्तव में, जैसा कि कई लोगों ने मुझसे स्वीकार किया है, वास्तविकता यह है कि कुछ लोग पहली बार ही परिवर्तित हुए हैं। ऐसा उनके धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान के अवलोकन के द्वारा हुआ जब उनका आमना-सामना अपनी सम्पूर्ण भ्रष्टता और पाप में मृतक स्थिति, परमेश्वर द्वारा अपने लोगों का अप्रतिबंधित चुनाव और अन्य लोगों के दोषी ठहराये जाने, मसीह के द्वारा अपने लोगों के लिए वास्तविक छुटकारा कमाया (हासिल किया) जाना, पवित्र आत्मा का प्रभावशाली अनुग्रह, उनके अन्त तक बने रहने का कारण, अन्त तक बनाए रखने वाला परमेश्वर का अनुग्रह, एवं सम्पूर्ण इतिहास में अपनी महिमा के लिए परमेश्वर का वाचाओं के आधार पर कार्य करने के साथ हुआ। जब लोग समझते हैं कि अन्ततः उन्होंने परमेश्वर को नहीं चुना, परन्तु परमेश्वर ने उन्हें चुना है, तो वे स्वाभाविक रूप से उनके प्रति परमेश्वर के अद्भुत अनुग्रह के कार्य को नम्रता पूर्वक ग्रहण करने की स्थिति पर पहुँच जाते हैं। तब ही, जब हम पहचानते हैं कि हम वास्तविक रीति से कितने घिनौने हैं, “कितना अद्धभुत अनुग्रह” (Amazing Grace) गीत को गा सकते हैं। और धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान ठीक यही करता है: यह हमें अन्दर से लेकर बाहर तक परिवर्तित करता है और हमें गीत गाने के लिए अगुवाई करता है—यह हमें जीवन भर सार्वभौमिक और त्रिएक, अनुग्रहकारी, तथा प्रेमी परमेश्वर की आराधना करने के लिए अगुवाई करता है, केवल रविवार के दिन ही नहीं परन्तु प्रत्येक दिन और जीवन भर। धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान केवल एक चिह्न नहीं है जिसे हम तब पहनते है जब धर्मसुधारवादी होना लोकप्रिय और बढ़िया होता है, यह एक ईश्वरविज्ञान है जिसे हम जीते हैं और सांस लेते हैं, अंगीकार करते हैं, और जब इस पर आक्रमण होता है तो इसका बचाव भी करते हैं।

सोलहवीं शताब्दी में प्रोटेस्टेन्ट धर्मसुधारकों ने, और साथ में उनके पंद्रहवीं शताब्दी के पूर्वजों तथा सत्रहवीं शताब्दी के उनके वंशजों ने, इसलिए अपने सिद्धान्तों को नहीं सिखाया और बचाव नहीं किया क्योंकि वे बहुत प्रसिद्ध या लोकप्रिय थे, परन्तु इसलिए क्योंकि यह बाइबलीय था, और उन्होंने अपने जीवन को उसके लिए दांव पर लगा दिया। वे न केवल पवित्रशास्त्र के ईश्वरविज्ञान के लिए मरने को तैयार थे, वे इसके लिए जीने के लिए, इसके लिए दुख उठाने के लिए तथा इसके लिए मूर्ख माने जाने के लिए भी तैयार थे। इस बात में भ्रमित न हों: धर्मसुधारक निडर और साहसी थे अपने आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता के कारण नहीं किन्तु इस तथ्य के कारण कि वे सुसमाचार के द्वारा दीन किए गए थे। वे साहसी थे क्योंकि पवित्र आत्मा उनमें था और वे तैयार थे कि झूठ के एक अँधेरे युग में सत्य के प्रकाश की घोषणा करने के लिए। जिस सत्य का उन्होंने प्रचार किया वह नया नहीं था; वह प्राचीन था। यह सिद्धान्त शहीदों, पिताओं, प्रेरितों और प्राचीन पिताओं का था—यह पवित्रशास्त्र में वर्णन परमेश्वर के सिद्धान्त थे।

धर्मसुधारकों ने अपना ईश्वरविज्ञान नहीं बनाया; वरन् उनके ईश्वरविज्ञान ने उन्हें वह बनाया जो वे थे। पवित्रशास्त्र के ईश्वरविज्ञान ने उन्हें धर्मसुधारक बनाया था। क्योंकि वे धर्मसुधारक बनने के लिए नहीं निकले थे, वे परमेश्वर तथा परमेश्वर के वचन के प्रति विश्वासयोग्य बनने के लिए निकले। न तो धर्मसुधार के पाँच सोला (solas) और न तो अनुग्रह के सिद्धान्त (केल्विन के पाँच बिन्दु) धर्मसुधारकों के द्वारा खोज किए गए, न ही वे धर्मसुधार के ईश्वरविज्ञान का पूर्ण सार हैं। किन्तु वे आधारभूत सिद्धान्त बन गए जिन्होंने आने वाली कलीसिया की सहायता करने की सेवा की कि वह क्या विश्वास करती है।  आज भी कई ऐसे हैं जो सोचते हैं कि वे धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान को अपनाते हैं, किन्तु उनका धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान केवल धर्मसुधार के पाँच सोला तथा अनुग्रह के सिद्धान्त की गहराई तक ही जाता है। इससे बढ़कर, कई ऐसे हैं जो कहते हैं कि वे धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान का अनुसरण करते हैं किन्तु कोई भी नहीं जानता कि वे धर्मसुधारवादी हैं। इस प्रकार के “गुप्त कैल्विनवादी” न तो सोलहवीं या सत्रहवीं शताब्दी के किसी भी ऐतिहासिक धर्मसुधारवादी अंगीकार को स्वीकार किया और न ही धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञानीय भाषा को स्पष्ट रूप से प्रयोग में लाते हैं।

हालाँकि, यदि हम वास्तव में ऐतिहासिक धर्मसुधारवादी अंगीकार के अनुसार धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान पालन करते हैं, तो हम अवश्य ही धर्मसुधारवादी के रूप में पहचाने जाएंगे। वास्तव में, “गुप्त केल्विनवादी” बने रहना असम्भव है, और बिना किसी को पता लगाए धर्मसुधारवादी बने रहना असम्भव है—यह अनिवार्य रूप से एक न एक दिन सामने आएगा। ऐतिहासिक रूप से धर्मसुधारवादी होने के लिए व्यक्ति को किसी धर्मसुधारवादी अंगीकार का पालन अवश्य करना चाहिए, और न केवल पालन करना परन्तु अंगीकार, उद्घोषणा और उसका बचाव भी करना चाहिए। धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान मूल रूप से अंगीकार करने वाला ईश्वरविज्ञान है।

धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान एक व्यापक भी है। यह न केवल उसको बदलता है जो हम जानते हैं, परन्तु इस बात को बदलता है कि कैसे जानते हैं जो हम जानते हैं। यह न केवल परमेश्वर के बारे में हमारी समझ को बदलता है, परन्तु साथ ही साथ यह हमारे स्वयं के बारे में हमारी समझ को बदलता है। निश्चित ही, यह न केवल हमारे उद्धार के दृष्टिकोण को बदलता है, यह बदलता है कि हम कैसे आराधना करते हैं, हम कैसे सुसमाचार प्रचार करते हैं, हम कैसे अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं, हम कैसे कलीसिया के साथ व्यवहार करते हैं, कैसे हम प्रार्थना करते हैं, कैसे हम पवित्रशास्त्र का अध्ययन करते हैं— यह बदलता है कि हम कैसे जीते हैं, चलते फिरते हैं तथा कैसे अस्तित्व रखते हैं। धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान एक ऐसा ईश्वरविज्ञान नहीं है जिसे हम छिपा सकते हैं, और यह एक ऐसा ईश्वरविज्ञान नहीं है जिसे हम केवल मुंह से बोलते हैं। क्योंकि यह सम्पूर्ण इतिहास में विधर्मियों तथा ईश्वरविज्ञानीय प्रगतिवादियों की आदत रही है। वे अपने धर्मसुधारवादी अंगीकार का पालन करने का दावा करते हैं, लेकिन वे वास्तव में कभी अंगीकार नहीं करते हैं। वे केवल तभी धर्मसुधारवादी होने का दावा करते हैं जब वे रक्षात्मक स्थिति में होते हैं—जब उनके प्रगतिवादी (यद्यपि लोकप्रिय) ईश्वरविज्ञान पर प्रश्न उठाया जाता है, और, यदि वे पास्टर हैं, तो केवल तभी जब उनकी नौकरियाँ खतरे में होती हैं। जबकि ईश्वरविज्ञानीय उदारवादी लोग सम्भवतः ऐसी कलीसियाओं और मतों (denominations) में हो सकते हैं और ऐसे वर्ग जो “धर्मसुधारवादी” के रूप में पहचाने जाते हैं, वे इस प्रकार से पहचाने जाने से लज्जित होते हैं और यह विश्वास पर पहुँचे हैं कि “धर्मसुधारवादी” के रूप में पहचाना जाना कुछ लोगों के लिए ठोकर तथा अन्य लोगों के लिए अपमान का कारण है। इसके अतिरिक्त, कलीसिया के ऐतिहासिक, साधारण चिह्नों के अनुसार—परमेश्वर के वचन का खरा प्रचार, परमेश्वर के वचन के अनुसार प्रार्थना, बपतिस्मा तथा प्रभु भोज की कलीसियाई विधि का सही उपयोग, और कलीसियाई अनुशासन का लगातार अभ्यास करना—ऐसी “धर्मसुधारवादी” कलीसियाए प्रायः सच्ची कलीसियाएं ही नहीं होती हैं। आज, कई सामान्य विश्वासी तथा पास्टर हैं जो परम्परागत रीति से धर्मसुधारवादी और प्रोटेस्टेन्ट कलीसियाओं और मतों में हैं, जिन्होंने वर्षों पहले अपनी कलीसियाओं और मतों के साथ धर्मसुधारवादी स्थिति को छोड़ दिया है और अपने अंगीकार को अस्वीकृत किया है।

इस प्रवृत्ति के विपरीत, हमें सबसे अधिक ऐसे पुरुषों की उपदेश-मंच में आवश्यकता है जो धर्मसुधारवादी होने की हिम्मत रखते हैं—ऐसे पुरुष जो उस विश्वास से नहीं लजाते हैं जो एक ही बार पवित्र लोगों को सौंपा गया था परन्तु उसके लिए यत्नपूर्वक संघर्ष करने के लिए तैयार रहते हैं, केवल कहने के द्वारा नहीं किन्तु अपने पूरे जीवन से तथा अपनी सारी सामर्थ्य से। हमें उपदेश-मंच पर ऐसे पुरुषों की आवश्यकता है जो साहसी हैं तथा सत्य का प्रचार करने में अटल हैं तथा साथ ही साथ अनुग्रहकारी तथा दयालु हैं। हमें ऐसे पुरुषों की आवश्यकता है जो समय और असमय धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान के सरल सत्य का प्रचार करेंगे, अपनी उंगलियों को चेहरे की ओर संकेत करते हुए नहीं, वरन कंधे पर हाथ के साथ। हमें ऐसे पुरुषों की आवश्यकता है जो धर्मसुधारवादी अंगीकार से प्रेम करते हैं क्योंकि वे हमारे प्रभु परमेश्वर तथा उसके अपरिवर्तनीय, प्रेरित तथा आधिकारिक वचन से प्रेम करते हैं। जब हमारे उपदेश-मंच पर ऐसे पुरुष होते हैं जो धर्मसुधारवादी होने का साहस रखते हैं, तब ही कलीसिया में ऐसे लोग होगें जो धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान को और उनके जीवन पर उसके प्रभाव को समझेंगे, ताकि हम परमेश्वर को अपने सारे हृदय, सारी बुद्धि, और सारी शक्ति से प्रेम कर सकें और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम कर सकें। इसी ईश्वरविज्ञान ने सोलहवीं शताब्दी में कलीसिया को सुधारा, और यही एकमात्र ईश्वरविज्ञान इक्कीसवीं शताब्दी में धर्मसुधार तथा बड़ा बदलाव लेकर आएगा। क्योंकि वर्तमान में कट्टर प्रगतिवादी ईश्वरविज्ञानीय उदारवादी (radical progressive theological liberalism) समय में, सबसे अधिकर कट्टर हम शास्त्रसम्मत हो सकते हैं हमारे  धर्मसुधारवादी अंगीकार के अनुसार, किन्तु अहंकार के साथ नहीं वरन् कलीसिया के तथा खोए हुए लोगों के लिए साहस और करुणा के साथ, सब कुछ परमेश्वर की महिमा के लिए, और केवल उसकी महिमा के लिए।

बहुत से मसीही, कलीसियाए और संस्थाए अपने विश्वास का वर्णन करने के लिए नियमित रीति से सुसमाचार  शब्द का उपयोग करते हैं। सुसमाचार के अर्थ पर एवं कौन इसे विश्वासयोग्यता के साथ प्रचार करता है, ईश्वरविज्ञानीय विवाद हुए हैं और होते हैं। उस परिचित शब्द सुसमाचार  का क्या अर्थ है? उस प्रश्न का उत्तर देने के लिए सबसे सही मार्ग है, बाइबल के पास जाना।

यूनानी भाषा के नए नियम में, संज्ञा यूआंग्लियोन (“सुसमाचार”) लगभग सत्तर से अधिक बार आया है। क्योंकि, एक अर्थ में, पूरा नया नियम सुसमाचार के विषय में है, हमें यह अपेक्षा कर सकते थे कि इस शब्द का उपयोग अधिक बार किया गया होगा। और भी आश्चर्यजनक रूप से, इसका उपयोग नए नियम की पुस्तकों के लेखकों में भिन्न रीति से किया गया है। जितनी बार शेष लेखक मिलाकर इस शब्द का उपयोग करते हैं, पौलुस इसे तीन से अधिक बार करता है। इसके शेष अधिकांश उपयोग मत्ती और मरकुस में पाए जाते हैं, तथा बहुत कम यदि कोई हैं तो, लूका, यूहन्ना, पतरस और याकूब में हैं।

सुसमाचार  शब्द का साधारण अर्थ “अच्छा सन्देश” है। यह शब्द मसीही सन्देश में अनोखा नहीं है, परन्तु इसका उपयोग गैर मसीहियों में भी अच्छी उद्घोषणा के लिए किया जाता था। नए नियम में यह उद्धारकर्ता यीशु के अच्छे सन्देश को सन्दर्भित करता है। प्रायः इसे इस धारणा के साथ उपयोग किया जाता है कि पाठक इस शब्द के अर्थ को जानता है।

जब हम नए नियम में सुसमाचार  के उपयोग करने के प्रकारों को और ध्यान से देखते हैं, कई बिन्दु दृढ़ता से सामने आते हैं। पहला, अधिकतर हम एक वाक्यांश पाते हैं  “परमेश्वर का सुसमाचार।” यह वाक्यांश सुसमाचार के स्रोत पर बल देता है कि यह परमेश्वर का एक उपहार है। सुसमाचार का स्रोत परमेश्वरीय है, मानवीय नहीं। दूसरा, सुसमाचार की विशेषता को अनेक रीतियों से दर्शाया गया है। सुसमाचार सच्चा है (गलातियों 2:5; 14; कुलुस्सियों 1:5), अनुग्रहपूर्ण है ( प्रेरितों के काम 20:24), और महिमामय है (2 कुरिन्थियों 4:4; 1 तीमुथियुस 1:11)। तीसरा, हम सुसमाचार के प्रति दो प्रतिउत्तर देखते हैं। मुख्य प्रतिउत्तर विश्वास है (प्रेरितों के काम 15:7; इफिसियों 1:13)। परन्तु आज्ञाकारिता भी एक प्रतिउत्तर है (1 पतरस 4:7; रोमियों 1:5; 10:16; 16:26; 2 थिस्सलुनीकियों 1:8)।

(पौलुस द्वारा रोमियों में विश्वासियों की आज्ञाकारिता के विचार के उपयोग में विडम्बना का एक तत्व है क्योंकि वह उन लोगों को प्रतिउत्तर देता है जिन्होंने उस पर व्यवस्था-विरोधी (antinomianism) होने को दोष लगाया था)। चौथा, हम सुसमाचार के अनेक परिणाम को देख सकते हैं। निस्सन्देह, सुसमाचार उद्धार लाता है (रोमियों 1:16; इफिसियों 1:13)। यह राज्य को भी लाता है (मत्ती 4:23; 9:35; 24:14)। यह परमेश्वर के लोगों में एक आशा को उत्पन्न करता है (कुलुस्सियों 1:23)। सुसमाचार पवित्रीकरण के लिए एक प्रेरणा भी है (मरकुस 8:35; 10:29; 2 कुरिन्थियों 9:13; इफिसियों 6:15; फिलिप्पियों 1:27)।

सुसमाचार  शब्द के उपयोग के ये सब प्रकार उसके विषय वस्तु की ओर संकेत करते हैं, परन्तु नए नियम में ऐसे भी खण्ड हैं जो उसकी विषय वस्तु के अनुसार स्पष्ट हैं। इन खण्डों का अध्ययन करने में, हम पाते हैं कि कभी-कभी सुसमाचार  शब्द बड़े रूप में उद्धार के सभी पहलुओं को और नया जीवन को प्रदर्शित करता है जो यीशु अपने लोगों को देता है। और कभी-कभी इसका उपयोग सकरे रीति से इस बात के लिए किया जाता है कि यीशु हमारे लिए हमारे बाहर क्या करता है। दूसरे शब्दों में, कभी-कभी सुसमाचार  बड़े स्तर पर यीशु का अपने लोगों के लिए और उनके भीतर धर्मी ठहराए जाने और पवित्रीकरण के कार्य को प्रकट करता है, और कभी-कभी यह केवल धर्मी ठहराए जाने को सन्दर्भित करता है। इस भिन्नता को रखने का दूसरा रूप यह है कि, कभी-कभी सुसमाचार  शब्द बड़े रूप में पुराने नियम की सभी प्रतिज्ञाओं को नए नियम में परिपूर्णता को दिखाता है और कभी-कभी सुसमाचार  का उपयोग सकरे रीति से हमारी व्यवस्था को करने के विपरीत यीशु का उसका पूरा करने के लिए किया जाता है।

सुसमाचार  शब्द के सामान्य अर्थ का एक उदाहरण मरकुस 1:1 में देखा जा सकता है, “परमेश्वर के पुत्र यीशु मसीह के सुसमाचार का आरम्भ।” सुसमाचार  शब्द का यह उपयोग उन सब बातों के लिए है जिन्हें मरकुस हमें यीशु के शिक्षा और कार्य के विषय में बताता है। हम एक और विस्तारपूर्ण उपयोग प्रकाशितवाक्य 14:6-7 में देखते हैं: 

फिर मैंने एक और स्वर्गदूत को मध्य आकाश में उड़ते देखा। और उसके पास पृथ्वी पर रहने वाली हर जाति, कुल, भाषा और लोगों को सुनने के लिए अनन्त  सुसमाचार था। उसने ऊँची आवाज़ से कहा, “परमेश्वर से डरो और उसकी महिमा करो; क्योंकि उसके न्याय का समय आ पहुंचा है। उसी की उपासना करो जिसने स्वर्ग, पृथ्वी, समुद्र और जल के सोते बनाए।”  

यहां सुसमाचार पश्चात्ताप और परमेश्वर की आराधना करने का आह्वान करता है।

अधिकतर, सुसमाचार शब्द का उपयोग सूक्ष्म रूप से किया जाता है, और इसकी विषयवस्तु विस्तृत है। इसे हम 1 कुरिन्थियों 15:1-4 में देख सकते हैं:

हे भाइयों, अब मैं तुम्हें वही सुसमाचार सुनाता हूं जिसका मैंने तुम्हारे मध्य प्रचार किया, जिसे तुमने ग्रहण भी किया और जिसमें तुम स्थिर हो। जिसके द्वारा तुम उद्धार भी पाते हो, इस शर्त पर कि तुम उस वचन को जिसका मैंने तुम्हारे मध्य प्रचार किया दृढ़ता से थामे रहो—अन्यथा तुम्हारा विश्वास करना व्यर्थ हुआ। मैंने यह बात जो मुझ तक पहुंची थी उसे सबसे मुख्य जानकर तुम तक भी पहुंचा दी, कि पवित्रशास्त्र के अनुसार मसीह हमारे पापों के लिए मरा, और गाड़ा गया, तथा पवित्रशास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा।

यहां, सुसमाचार यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान के द्वारा बचाए जाने का सन्देश है।

दूसरे स्थान पर पौलुस लिखता है, “परमधन्य परमेश्वर का महिमामय सुसमाचार जिसे मुझे सौंपा गया है,” और वह स्पष्ट करता है कि सुसमाचार क्या है:

यह एक विश्वसनीय और हर प्रकार से ग्रहणयोग्य बात है कि मसीह यीशु संसार में पापियों का उद्धार करने आया—जिनमें सब से बड़ा मैं हूं। फिर भी मुझ पर इस कारण दया हुई कि मसीह यीशु मुझ सब से बड़े पापी में अपनी पूर्ण सहनशीलता प्रदर्शित करे कि मैं उनके लिए जो उस पर अनन्त जीवन के निमित्त विश्वास करेंगे, आदर्श बनूं (1तीमुथियुस 1:11, 15-16)

यहां, सुसमाचार पापियों को बचाने के लिए मसीह के कार्य को बता रहा है।

इसी तरह से पौलुस 2 तीमुथियुस में लिखाता है: 

अतः तू न हमारे प्रभु की साक्षी देने से, न मुझ से, जो उसका बंदी हूं, लज्जित हो; परन्तु परमेश्वर के सामर्थ्य के अनुसार सुसमाचार के लिए मेरे साथ दुख उठा। जिसने हमारा उद्धार किया, और पवित्र बुलाहट से बुलाया, हमारे कामों के अनुसार नहीं, परन्तु अपने ही उद्देश्य और अनुग्रह के अनुसार जो मसीह यीशु में अनन्तकाल से हम पर हुआ, परन्तु अब हमारे उद्धारकर्ता मसीह यीशु के प्रकट होने के द्वारा प्रकाशित हुआ है। जिसने मृत्यु का नाश किया और सुसमाचार के द्वारा जीवन और अमरता पर प्रकाश डाला।… मेरे सुसमाचार के अनुसार दाऊद के वंशज मृतकों में से जी उठे यीशु मसीह को स्मरण रख। (2 तीमुथियुस 1:8-10, 2:8)

सोलहवीं शताब्दी के धर्मसुधारकों के लेखन में सुसमाचार शब्द का यह सकरा उपयोग बहुत सामान्य था। इसे हम जॉन कैल्विन के विचारों में देख सकते हैं:

विश्वास शब्द को उपलक्षण के रूप में उपयोग किया गया है (जिसमें एक विचार के नाम का उपयोग दूसरे विचार के लिए किया जाता है) प्रतिज्ञा शब्द के लिए  प्रयोग किया जाता है, अर्थात् ,स्वयं सुसमाचार के लिए, क्योंकि यह विश्वास से सम्बन्धित है। व्यवस्था और सुसमाचार के बीच में अन्तर को समझा जाना चाहिए, और इस अन्तर से हम निष्कर्ष निकालते हैं कि, जिस प्रकार व्यवस्था कार्य की मांग करता है, सुसमाचार केवल यह मांग करता है कि मनुष्य केवल विश्वास लाएं ताकि वह परमेश्वर के अनुग्रह को प्राप्त कर सकें।

यह जै़करायस उर्सिनस (Zacharias Ursinus) में भी स्पष्ट है। हाइडलबर्ग धर्मप्रश्नोत्तरी के अपनी टीका के आरम्भ में ही उर्सिनस सभी सिद्धान्तों को व्यवस्था और सुसमाचार में विभाजित करता है:

कलीसिया के सिद्धान्त में दो भाग हैं: व्यवस्था और सुसमाचार; जिसमें हमने पवित्रशास्त्र के सार और तत्व को समझ लिया  है। व्यवस्था दस आज्ञाएं कहलाती  है, और सुसमाचार मसीह की  मध्यस्थता के विषय में सिद्धान्त है, और विश्वास के द्वारा मुफ्त में पापों की क्षमा मिलती है। 

पवित्रशास्त्र में सुसमाचार पर इस प्रकार के विचार धर्मसुधारवादी ईश्वरविज्ञान में सामान्य  हैं, जैसा कि इसको हम एक महान डच ईश्वरविज्ञानी हरमन बाविंक (Herman Bavinck) के लम्बे, आकर्षक उद्धरण से देखते हैं:

परन्तु परमेश्वर का वचन, व्यवस्था और सुसमाचार दोनों के ही रूप में, परमेश्वर की इच्छा का प्रकाशन है, अर्थात् कार्यों की वाचा और अनुग्रह की वाचा की उद्घोषणा। यद्यपि एक बड़े अर्थ में “व्यवस्था और सुसमाचार” शब्द का उपयोग वास्तव में अनुग्रह की वाचा के पुराने और नए व्यवस्था के लिए किया जा सकता है।,उनके वास्तविक अर्थ में वे निश्चित रीति से परमेश्वरीय इच्छा के दो अलग-अलग प्रकाशन का वर्णन करते हैं [यहाँ बाविंक प्रमाण के लिए नए नियम के कई खण्डों का उद्धरण करता है] . . . । इन खण्डों में व्यवस्था और सुसमाचार को मांग एवं उपकार, पाप एवं अनुग्रह, बीमारी एवं चंगाई, मृत्यु एवं जीवन के रूप में भिन्न दिखाया गया है . . . । व्यवस्था परमेश्वर की पवित्रता से आती है, सुसमाचार परमेश्वर के अनुग्रह से आता है, व्यवस्था को प्रकृति के द्वारा जो जाना जाता है, सुसमाचार केवल विशेष प्रकाशन से; व्यवस्था सिद्ध धार्मिकता की मांग करती है, परन्तु सुसमाचार इसे प्रदान करता है; व्यवस्था लोगों को कार्यों के द्वारा अनन्त जीवन की ओर ले जाती है, और सुसमाचार विश्वास में दिए गए अनन्त जीवन के धन से अच्छे कार्यों को उत्पन्न करता है; व्यवस्था वर्तमान में लोगों को अपराधी ठहराता है, और सुसमाचार लोगों को निर्दोष ठहराता है; व्यवस्था सभी लोगों को सम्बोधित करती है ,और सुसमाचार केवल उन लोगों को सम्बोधित करता है जो उसे सुनते हैं।

सुसमाचार की यह प्रस्तुति कितनी स्पष्ट, विशिष्ट, बाइबलीय और अनमोल है।

कलीसिया को छोटे और बड़े दोनों अर्थों में सुसमाचार प्रचार करने की आवश्यकता है। सुसमाचार के लिए यूनानी शब्द ने अंग्रेजी बोलने वाले लोगों को इवैन्जलिज़म (सुसमाचार प्रचार) शब्द दिया है। सच्चा सुसमाचार प्रचार, मत्ती 28:18-20 में यीशु के द्वारा दिए गए महान आदेश के अनुसार, शिष्य बनाने की बात है: पहले, सूक्ष्म अर्थ में, लोगों को यीशु पर विश्वास करने के लिए बुलाते हुए, और दूसरा, बड़े अर्थ में उनको वे सारी बातें सिखाते हुए जो यीशु ने अपने लोगों को सिखाया था। सुसमाचार के लिए, आइए हम सब सच्चे सुसमाचार प्रचार को बढ़ावा दें।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।

आर.सी. स्प्रोल
आर.सी. स्प्रोल
डॉ. आर.सी. स्प्रोल लिग्नेएर मिनिस्ट्रीज़ के संस्थापक, सैनफर्ड फ्लॉरिडा में सेंट ऐन्ड्रूज़ चैपल के पहले प्रचार और शिक्षण के सेवक, तथा रेफर्मेशन बाइबल कॉलेज के पहले कुलाधिपति थे। वह सौ से अधिक पुस्तकों के लेखक थे, जिसमें द होलीनेस ऑफ गॉड भी सम्मिलित है।