आत्मिक अवसाद : प्राण का घोर अन्धकार - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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आत्मिक अवसाद : प्राण का घोर अन्धकार

प्राण का घोर अन्धकार। यह अनुभव एक ऐसी गम्भीर व्यथा का वर्णन करता है जिसका सामना महान ख्रिष्टियों ने समय-समय पर किया है । यह व्यथा ही थी जो दाऊद को आंसुओं से अपने तकिए को भिगोने का कारण थी। यह वह व्यथा थी जिसके कारण यिर्मयाह को “विलाप करने वाले नबी” की उपाधि दी गई। यह वह व्यथा थी जिसने मार्टिन लूथर को इतना पीड़ित किया कि उसकी उदासी ने उसे नाश के खतरे की स्थिति में ला दिया। यह अवसाद कोई सामान्य अवसाद का दौरा नहीं है, किन्तु यह एक ऐसी अवसाद है जो विश्वास के संकट से जुड़ा है, एक ऐसा संकट जो तब आता है, जब व्यक्ति परमेश्वर की अनुपस्थिति का अनुभव करता है या जो परमेश्वर द्वारा त्याग दिए जाने की भावना को उत्पन्न करता है।

आत्मिक अवसाद वास्तविक है और तीव्र हो सकती है। हम पूछते हैं कि कोई भी विश्वास का जन कैसे अनुभव कर सकता है इस प्रकार के आत्मिक निरुत्साह को, परन्तु वह चाहे जिस कारण भी होता है वह इसकी वास्तविकता को कम नहीं करता है। हमारा विश्वास एक स्थिर कार्य नहीं है। यह परिवर्तनशील है। यह बदलता रहता है। हम विश्वास से विश्वास की ओर बढ़ते हैं, और इसके मध्य में हम सन्देह के समय में से होकर जा सकते हैं, जब हम पुकारते हैं “प्रभु, मैं विश्वास करता हूँ, मेरे अविश्वास का उपचार कर।”

हम यह भी सोच सकते हैं कि प्राण का घोर अन्धकार आत्मा के फल के साथ पूरी तरह से असंगत है, न केवल विश्वास का, किन्तु आनन्द का भी। जब पवित्र आत्मा ने हमारे हृदयों को एक अवर्णनीय आनन्द से भर दिया है, तो इस प्रकार के अन्धेरे के लिए उस कक्ष में कोई स्थान कैसे हो सकता है? हमारे लिए महत्वपूर्ण है आनन्द के आत्मिक फल तथा खुशी की सांस्कृतिक अवधारणा के मध्य अन्तर करना। एक ख्रीष्टीय के हृदय में तब भी आनन्द हो सकता है जब उसके मस्तिष्क में आत्मिक अवसाद हो। जो आनन्द हमारे पास है वह हमें बनाए रखता है इन अन्धेरी रातों में बुझता नहीं है और आत्मिक अवसाद से। ख्रीष्टीय का आनन्द वह है जो जीवन में सभी निराशाजनक घटनाओं में बना रहता है।

अपने दूसरे पत्र में कुरिन्थियों को लिखते हुए, पौलुस अपने पाठकों को प्रचार करने और लोगों को सुसमाचार सुनाने के महत्व के बारे में बताता है। किन्तु इसके मध्य में, वह कलीसिया को स्मरण दिलाता है कि हमारे पास परमेश्वर का जो धन है, वह एक ऐसा धन है, जो सोने और चाँदी के बर्तन में नहीं है, किन्तु प्रेरित के अनुसार “मिट्टी के पात्र” में रखा गया है। इस कारण से वह कहता है, “यह कि सामर्थ्य की असीम महानता हमारी ओर से नहीं वरन् परमेश्वर की ओर से ठहरे।” यह स्मरण कराने के तुरन्त बाद, प्रेरित जोड़ता है, “हम चारों ओर से क्लेश सहते हैं, परन्तु मिटाए नहीं जाते; निरुपाय तो हैं, परन्तु निराश नहीं होते; सताए तो जाते हैं, परन्तु त्यागे नहीं जाते; गिराए तो जाते हैं, परन्तु नष्ट नहीं होते। हम यीशु की मृत्यु को सदा अपनी देह में लिए फिरते हैं कि यीशु का जीवन हमारी देह में प्रकट हो” (2 कुरिन्थियों 4:7-10)।

यह खण्ड संकेत करता है अवसाद की सीमाओं की ओर जिसे हम अनुभव करते हैं। अवसाद गहरी हो सकती है, लेकिन यह स्थायी नहीं है, न ही यह प्राणनाशक है। ध्यान दीजिए कि प्रेरित पौलुस कई तरीकों से हमारी स्थिति का वर्णन करता है। वह कहता है कि हम “क्लेश सहने वाले, निरुपाय हैं, सताए गए और गिराए गए हैं।” ये प्रभावशाली चित्र हैं वर्णन करते हैं उस संघर्ष का जिसे ख्रिष्टियों को सहना है, परन्तु इस अनुभव का वर्णन करने वाले प्रत्येक स्थान पर, वह उसी समय उसकी सीमाओं का वर्णन भी करता है। क्लेश सहते हैं, परन्तु मिटाए नहीं जाते। निरुपाय तो हैं, परन्तु निराश नहीं होते। सताए तो जाते हैं, परन्तु त्यागे नहीं जाते; गिराए तो जाते हैं, परन्तु नष्ट नहीं होते।

तो हमारे पास सहन के लिए यह बोझ है, यद्यपि यह बोझ कष्टमय है, फिर भी यह हमें दबा नहीं देता है। हम भ्रमित और चिन्तित हो सकते हैं, किन्तु उस चिन्ता से हम चाहे जितना प्रभावित हों, उसके परिणामस्वरूप हम सम्पूर्णता से अवसाद नहीं होते हैं। सताव में भी, चाहे जितना गम्भीर क्यों न हो, हम त्यागे नहीं गए हैं, और हम व्याकुल हो सकते हैं और गिराए जा सकते हैं यिर्मयाह समान, फिर भी हमारे पास आनन्द के लिए स्थान है। हम हबक्कूक नबी के बारे में सोचते हैं, जो अपने दुख में आश्वस्त था कि असफलताएं होने पर भी, परमेश्वर उसके पैर को हिरणी के पैरों के समान बना देगा, ऐसे पैर जो उसे उच्च स्थानों पर चलने में सक्षम करेंगे।

अन्य स्थान पर, फिलिप्पियों को लिखते हुए प्रेरित पौलुस उन्हें “किसी भी वस्तु के लिए चिन्ता न करने” का निर्देश देता है, यह बताते हुए कि चिन्ता का समाधान व्यक्ति के घुटनों पर पाया जाता है, कि परमेश्वर की शान्ति है जो हमारी आत्मा को शान्त करती है और चिन्ता को दूर करती है। पुन: हम चिन्तित और घबराए हुए और परेशान हो सकते हैं अन्तत: अवसाद से हार माने बिना।

विश्वास और आत्मिक अवसाद का ऐसा सह-अस्तित्व बाइबल में भावनात्मक स्थितियाँ के अन्य कथनों के समान हैं। हमें बताया गया है कि विश्वासियों के लिए दुःख का सामना करने के लिए पूरी तरह से उचित है। हमारा प्रभु स्वयं दुखी था और पीड़ा से उसकी जान-पहचान थी। चाहे दुख हमारी आत्माओं की जड़ों तक पहुँच क्यों न जाए, इसका परिणाम कड़वाहट नहीं होना चाहिए। दुख एक उचित भावना है, कई बार एक गुण भी, किन्तु आत्मा में कड़वाहट के लिए कोई स्थान नहीं होनी चाहिए। इसी रीति से, हम देखते हैं कि शोक करने वाले घर जाना एक अच्छी बात है, परन्तु शोक में भी, उस उदास भावना को घृणा में नहीं बदलनी चाहिए। विश्वास की उपस्थिति आत्मिक अवसाद की अनुपस्थिति की कोई गारंटी नहीं देता है; किन्तु, आत्मा का घोर अन्धकार सदैव परमेश्वर की उपस्थिति की दोपहर की ज्योति की चमक में बदलता है।

यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।
आर.सी. स्प्रोल
आर.सी. स्प्रोल
डॉ. आर.सी. स्प्रोल लिग्नेएर मिनिस्ट्रीज़ के संस्थापक, सैनफर्ड फ्लॉरिडा में सेंट ऐन्ड्रूज़ चैपल के पहले प्रचार और शिक्षण के सेवक, तथा रेफर्मेशन बाइबल कॉलेज के पहले कुलाधिपति थे। वह सौ से अधिक पुस्तकों के लेखक थे, जिसमें द होलीनेस ऑफ गॉड भी सम्मिलित है।