सत्य को परखना
5 अक्टूबर 2021यीशु सत्य बताने वाला
11 अक्टूबर 2021नौवीं आज्ञा और सत्य का परमेश्वर
सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का दूसरा अध्याय है: सत्य
हाई स्कूल में, मेरे मित्रों के एक समुह ने लुकआउट माउंटेन जॉर्जिया की चोटी पर घूमने जाने का निर्णय लिया। इन मित्रों में, जिनमें लगभग दस थे, लड़कों और लड़कियों का एक मिश्रित समूह था। मैं जानता था कि मेरे माता-पिता इस प्रकार की मिली-जुली संगति में घूमने जाने नहीं देंगे, इसलिए मैंने उन्हें नारी मित्रों की उपस्थिति के विषय में बताने की “उपेक्षा” की। हमने बहुत अच्छा समय व्यतीत किया— कोई गड़बड़ी नहीं— परन्तु जब मैं घर वापस आया, मेरे माता-पिता ने मुझसे सीधे-सीधे बात की, और जब मैंने सच्चाई को और अधिक विकृत करके इससे बचने का प्रयास किया, तो उन्होंने मुझे दण्डित किया। और यह सही था।
इस प्रकार के छोटे-छोटे “श्वेत झूठ” हानिरहित लगते हैं, परन्तु हम कितनी बार सच को टालते हैं, सच को छिपाते हैं, या सच बोलने की उपेक्षा करते हैं? वास्तविकता यह है कि परमेश्वर सत्य से प्रेम करता है, सत्य से प्रसन्न होता है, और सत्य को बनाए रखता है क्योंकि वह सत्य का परमेश्वर है। सब बातों के सम्प्रभु सृष्टिकर्ता के रूप में, उसने सत्य की स्थापना की और अपने सत्य को सृष्टि में सामान्य रूप से और अपने वचन में विशेष रूप से प्रकट किया है (भजन 19)।
प्रेरित यूहन्ना लिखता है, “परमेश्वर ज्योति है, और उसमें अन्धकार नहीं” (1 यूहन्ना 1:5)। परमेश्वर की यह “ज्योति” सत्य, सत्यनिष्ठा और धार्मिकता के नैतिक गुणों को प्रकट करती है। परमेश्वर न केवल सच्चा और जीवित परमेश्वर है—इस संसार के सभी झूठे देवताओं के विपरीत— वह सभी बातों को वैसे ही जानता है जैसे वे वास्तव में हैं। दूसरे शब्दों में, वह पथभ्रष्ठ या भ्रमित नहीं है, परन्तु सभी बातों का सिद्ध और पूर्ण ज्ञान रखता है।
सत्य का यह परमेश्वर हमें सत्य से प्रेम करने, सत्य में प्रसन्न होने, सत्य बोलने और सत्य पर चलने के लिए बुलाता है। यदि कलीसिया को “सत्य का स्तम्भ और आधार” बनना है (1 तीमुथियुस 3:15), तो हमें सत्य को जानने और झूठ के संसार में सत्य को बनाए रखने के नैतिक साहस को विकसित करने की आवश्यकता है।
हमारे आदि माता-पिता “झूठ का पिता” शैतान के झूठ के द्वारा परीक्षाओं में आए (यूहन्ना 8:44)। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि परमेश्वर अपने वचन में सच्चाई के लिए अपनी चिन्ता को स्थापित करेगा। मार्टिन लूथर ने अपने प्रसिद्ध गीत “हमारा परमेश्वर एक दृढ़ गढ़ है” (“A Mighty Fortress Is Our God”) में लिखा:
वस्तुएं और सम्बन्धों को जाने जो,
और साथ में इस पार्थिव जीवन को भी;
शरीर को वे मार सकते हैं:
परमेश्वर का सत्य फिर भी बना रहता है,
उसका राज्य सर्वदा के लिए है।
जबकि शैतान परमेश्वर के सत्य को नष्ट करने का प्रयास करता है और संसार उसे दबाने का प्रयास करता है, हमारे सम्प्रभु और पवित्र परमेश्वर का प्रकोप ऐसे मनुष्यों की अधार्मिकता पर प्रकट हुआ है, “जो अपने अधर्म से सत्य को दबाए रखते है” और जिन्होंने “परमेश्वर की सच्चाई के बदले झूठ को अपनाया” (रोमियों 1:18, 25)। परन्तु परमेश्वर की सच्चाई बनी रहेगी, उसका राज्य सर्वदा के लिए है।
नौवीं आज्ञा
दस आज्ञाएं बताती हैं कि हमें कैसे परमेश्वर (1-4) और पड़ोसी (5-10) से प्रेम करना है। मन्ना और हारून की लाठी के साथ, दस आज्ञाएं वाचा के सन्दूक के अन्दर रखी गईं— जो इस्राएलियों के जीवन और पहचान के लिए उनके महत्व को प्रकट करती हैं— और वे परमेश्वर की अन्य सभी नियमों और आज्ञाओं की नींव भी बनीं। वे उस जीवन का एक चित्रण प्रदान करते हैं जो परमेश्वर को प्रसन्न करता है।
परमेश्वर ने दस आज्ञाएं वाचा के सन्दर्भ में दीं जिसे उसने अपने लोगों के साथ सीनै पर्वत पर स्थापित किया था। परमेश्वर ने इस्राएल की ओर से कार्य किया था, जो उसके लोगों के रूप में उनकी स्थिति का आश्वासन देता था: “मैं तुम्हारा परमेश्वर यहोवा हूं जो तुम्हें मिस्र देश अर्थात दासत्व के घर से निकाल ले आया” (निर्गमन 20:2; व्यवस्थाविवरण 5:6)। इसलिए, परमेश्वर के द्वारा छुटकारा और उद्धार. परमेश्वर के आदेश और व्यवस्था की पृष्ठभूमि बन गए। वे उसके लोग थे, और वह उनका परमेश्वर था।
नौवीं आज्ञा हमें सच्चाई के महत्व के विषय में निर्देश देती है: “तू अपने पड़ोसी के विरुद्ध झूठी साक्षी न देना” (निर्गमन 20:16)। व्यवस्था सम्बन्धी सुनवाई इस आज्ञा की पृष्ठभूमि बनाता है जिसमें एक झूठा गवाह अपने पड़ोसी के लिए कठोर दण्ड का कारण बन सकता है। प्राचीन संसार में साक्षियों का बहुत महत्व था। व्यवस्थाविवरण 17:6 वर्णन करता है, “जो प्राण -दण्ड के योग्य हो वह दो या तीन साक्षियों की गवाही पर मारा जाए, वह एक साक्षी की गवाही पर न मारा जाए।” इसलिए एक झूठी साक्षी में निर्दोष पक्ष के साथ बड़ा अन्याय करने की क्षमता थी। परन्तु नौवीं आज्ञा इस विशेष लागूकरण से कहीं अधिक बात करती है।
मांग की गईं कर्तव्य और वर्जित किए गए पाप
वेस्टमिंस्टर की बड़ी प्रश्नोत्तरी (The Westminster Larger Catechism) नौवीं आज्ञा (143-45) के लिए तीन प्रश्नों को समर्पित करती है, जो आज्ञा का मूलतत्व के साथ-साथ इसके द्वारा “मांग की गईं कर्तव्य” (सकारात्मक) और “वर्जित किए गए पाप” (नकारात्मक) प्रदान करते हैं।
सकारात्मक रूप से, वेस्टमिंस्टर के ईश्वरविज्ञानियों ने सिखाया कि हमें मनुष्य और मनुष्य के बीच सत्य, और अपने पड़ोसी तथा अपने स्वयं के अच्छे नाम, को बनाए रखना है और उनको बढ़ावा देना है।। हमें सत्य के लिए प्रकट होना और खड़ा होना है, सत्य बोलना है, और जो जो बातें सत्य हैं, आदरणीय हैं, न्यायसंगत हैं उन्हीं का अध्ययन और लागू करना है (फिलिप्पियों 4:8)। नकारात्मक रूप से, वेस्टमिंस्टर के ईश्वरविज्ञानियों ने सिखाया कि हमें सच्चाई या अपने पड़ोसी, या अपने स्वयं के अच्छे के नाम को बिगाड़ने की परीक्षा में नहीं पड़ना चाहिए। हमें झूठी साक्षी नहीं देनी चाहिए, अन्यायपूर्ण न्याय की घोषणा नहीं देनी चाहिए, सत्य को छिपाना नहीं चाहिए, जब सत्य बोलना हो तो हमें चुप नहीं रहना चाहिए, या बिना कारण, दुर्भावना से, या इस रीति से सच नहीं बोलना चाहिए जो इसे दूसरे अर्थ में बदल देता है। इसके अतिरिक्त, हमें झूठ बोलने, झूठी निन्दा करने, पीठ पीछे बुराई करने, उपहास करने, गाली देने, झूठी बातें फैलाना और झूठ के अन्य पापों के आगे झुकना नहीं है। इस प्रकार, हमें अपने पड़ोसियों के प्रति एक परोपकारी सम्मान रखना चाहिए, यह सोचते हुए कि वे अच्छे हैं, जब तक उनके विरुद्ध कोई स्पष्ट प्रमाण न हों, बिना गपशप पर ध्यान दिए।
जबकि नौवीं आज्ञा का स्थल विशेषकर यही कहता है कि हमें झूठी साक्षी नहीं देना है, यह उस बड़े महत्व को व्यक्त करता है जिसे परमेश्वर सत्य के आधार पर रखता है, जैसा कि वेस्टमिंस्टर मण्डली के लागूकरण में देखा गया है। तर्क बड़े से छोटे की ओर है: यदि अपने पड़ोसी के विरुद्ध झूठी साक्षी देना निषिद्ध है— जिससे उसकी मृत्यु हो सकती है (बड़ा) — तो निश्चित रूप से अन्य सभी प्रकार के असत्य को मना किया जाता है (छोटा)।
बड़ी प्रश्नोत्तरी पर अपनी टिप्पणी में, योहानेस वोस समझाते हैं, “नौवीं आज्ञा का सामान्य व्यापकता मानव समाज में सच्चाई और सत्यनिष्ठा की पवित्रता है, और हमारे अपने और हमारे पड़ोसी के अच्छे नाम को बनाए रखने का कर्तव्य है।” क्योंकि सत्य परमेश्वर का एक गुण है, और क्योंकि हम उसके स्वरूप में बनाए गए हैं, इसलिए हमें अपने जीवन, अपने घरों, अपनी कलीसियाओं और अपने समाज में सत्य का समर्थन, बचाव और पुष्टि करना है।
सत्य में जीने के तीन मार्ग
इस तथ्य के प्रकाश में कि परमेश्वर सत्य का परमेश्वर है और सत्य के प्रति वह रुचि रखता है— जो विशेष रूप से नौवीं आज्ञा में देखा गया है — कुछ व्यावहारिक उपाय क्या हैं जिनके द्वारा हम उस सत्य में दैनिक जीवन जी सकते हैं? मैं आपको तीन उपाय बताता हूं।
पहले, जीभ के द्वारा किए जाने वाले पापों पर तत्परतापूर्वक ध्यान दें। जैसा कि याकूब कहता है, “जीभ एक अग्नि और अर्धम का लोक है” (3:6)। यह चित्रण आगे जाता है, यह बताते हुए कि आग कितनी शीघ्रता से फैल सकती है। हमें पवित्रशास्त्र की चेतावनियों पर ध्यान देना चाहिए: “झूठा गवाह दण्ड पाए बिना न रहेगा, और झूठ बोलने वाला नष्ट हो जाएगा” (नीतिवचन 19:9)। स्वभाव से हम सत्य के विरुद्ध हैं और हमें उन रीतियों के प्रति सतर्क रहना चाहिए जिनसे हम सत्य को विकृत करते रहें। झूठी बातें— गपशप, निन्दा, झूठ, झूठी साक्षी आदि पापों का हमारे होठों पर कोई स्थान नहीं होना चाहिए, क्योंकि ये न केवल सत्य के परमेश्वर के हृदय को दुखी करते हैं, किन्तु वे सरलता से फैल सकते हैं और हमारे पड़ोसी की बड़ी क्षति पहुँचा सकते हैं। इसके स्थान पर, हमें “प्रेम में सत्य” बोलना चाहिए (इफिसियों 4:15) और अपने पड़ोसियों के अच्छे नाम को बढ़ावा देना चाहिए।
दूसरा, क्योंकि परमेश्वर सम्प्रभु और सभी सत्यों का स्रोत है, हम उस पर और उसके वचन पर भरोसा रख सकते हैं। वह विश्वसनीय और उसकी प्रतिज्ञाएं कभी विफल नहीं हो सकती हैं। उसके वचन की त्रुटिहीनता, अचूकता और सत्यता एक ठोस आधार प्रदान करती है जिस पर एक सुसंगत और उचित विश्वदृष्टि का निर्माण किया जा सकता है— ऐसा विश्वदृष्टि जो एक अस्थिर संसार में आशा प्रदान करता है और विश्वास जगाता है। यीशु ने अपने शिष्यों के लिए प्रार्थना की, “सत्य के द्वारा उन्हें पवित्र कर; तेरा वचन सत्य है” (यूहन्ना 17:17)। प्रेरित पौलुस ने इफिसुस के विश्वासियों को पवित्र आत्मा द्वारा उन पर छाप लगने का स्मरण दिलाया जब उन्होंने “सत्य का वचन” सुना और उस पर विश्वास किया (इफिसियों 1:13)। हमें सच्चे और जीवित परमेश्वर पर भरोसा रखने के लिए बुलाया गया है, “जो कभी झूठ नहीं बोलता” (तीतुस 1:2)। वास्तविकता यह है कि हमारा सम्प्रभु परमेश्वर सभी सत्य का स्रोत है, जो थके हुए और भटकते प्राणों को विश्राम देता है।
तीसरा, सत्य का अध्ययन करें और उसे जानें, “जो आपको स्वतंत्र करेगा” (यूहन्ना 8:32)। सत्य यीशु ख्रीष्ट के व्यक्ति में सन्निहित है, जो “मार्ग, सत्य, और जीवन” है (यूहन्ना 14:6)। उसे “सच्ची ज्योति” (यूहन्ना 1:9), “सच्ची रोटी” (6:32) और “सच्ची दाखलता” (15:1) कहा जाता है। सत्य के अभिव्यक्ति के रूप में, ख्रीष्ट ने लहू बहाया और मर गया ताकि हमें हमारी सभी झूठी साक्षी और जीभ के द्वारा किए गए पापों के लिए क्षमा किया जा सके। हमें यीशु और उसके सत्य के विषय में एक गहरा ज्ञान विकसित करना चाहिए— उस सत्य पर दिन रात मनन करते हुए, अपने हृदयों में उसे संचित करते हुए ताकि हम उसके विरुद्ध पाप न करें, और परमेश्वर के वचन के नियमित प्रचार के द्वारा इसका लाभ उठाते हुए। “ख्रीष्ट के वचन को अपने हृदयों में बहुतायत से बसने दो” (कुलुस्सियों 3:16)।
यीशु “सत्य की साक्षी देने” के लिए संसार में आया (यूहन्ना 18:37), और संसार ने उसे अस्वीकार कर दिया और उसका उपहास किया। परन्तु उसकी भेड़ें अपने अच्छे चरवाहे की आवाज़ जानती हैं, और वे उसका अनुसरण करती हैं। वह उन्हें अनन्त जीवन देता है, और कोई उन्हें उसके हाथ से नहीं छीनेगा। हम भी, एक ऐसे संसार में सत्य की साक्षी देते हैं, जिसे उद्धारकर्ता की अति आवश्यक है, एक ऐसा संसार जिसे चरवाहे की आवाज़ की आवश्यकता है जो उन्हें अपने परिवर्तनकारी अनुग्रह के हरे चरागाहों की ओर ले जाता है। हम परमेश्वर के सत्य से प्रेम करें, उसे बोलें, और उस में चलें— ताकि हम परमेश्वर की महिमा करें और सर्वदा के लिए उसमें आनन्द उठाएं।