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— जैरड जेटर
“अपने आप को परमेश्वर के ग्रहणयोग्य ऐसा कार्य करनेवाला ठहराने का प्रयत्न कर जिस से लज्जित होना न पड़े, और जो सत्य के वचन को ठीक ठीक काम में लाए” (2 तीमुथियुस 2:15)। प्रेरित पौलुस द्वारा अपने शिष्य तीमुथियुस को कहे गए ये शब्द हमें परमेश्वर के वचन की ठीक से व्याख्या करने की हमारे उत्तरदायित्व को स्मरण कराते हैं। आख़िरकार, परमेश्वर ने हमसे अपने वचन के माध्यम से बात की है, और यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि हम समझें कि वह क्या कहता है। यही कारण है कि हमें सुदृढ़ व्याख्याशास्त्र (hermeneutics) की आवश्यकता है।
व्याख्याशास्त्र बाइबल की व्याख्या करने का विज्ञान और कला है। यह एक विज्ञान है क्योंकि पवित्रशास्त्र की व्याख्या करने के लिए इसके अपने नियम हैं, जैसे गाड़ी चलाने के लिए नियम हैं। यदि आप नियमों को नहीं जानते हैं, तो आप ठीक से गाड़ी चलाना नहीं जान पाएँगे। परन्तु, सिद्धान्तों को जानने के साथ-साथ, आपको यह भी जानना चाहिए कि उन्हें कब लागू करना है। इस कारण व्याख्याशास्त्र को उचित रूप से एक कला भी कहा जा सकता है। क्योंकि पवित्रशास्त्र अखण्ड नहीं है परन्तु इसमें कई शैलियाँ निहित हैं और इसे कई लेखकों के द्वारा, विभिन्न भाषाओं में, एक विशाल अवधि में लिखा गया था, इसलिए यह जानने के लिए परख की आवश्यकता होती है कि किसी दिए गए स्थल का आशयित अर्थ खोजने के लिए व्याख्या के कौन से नियम लागू किए जाएँ। आख़िरकार, व्याख्याशास्त्र का लक्ष्य यही है: यह समझना कि स्थल का आशयित अर्थ खोजने के लिए उसकी व्याख्या कैसे की जाए।
बाइबल की व्याख्या करते समय प्राथमिक लक्ष्य लेखक का आशयित अर्थ ढूँढना है। बाइबल का अध्ययन करने की एक बहुत ही सामान्य पद्धति है पाठ को पढ़ना और फिर स्वयं से यह प्रश्न पूछना कि, “इस पाठ का मेरे लिए क्या अर्थ है?” जबकि स्थल को अपने जीवन में लागू करने की खोज करना महत्वपूर्ण है, परन्तु यह कभी भी पवित्रशास्त्र से पूछा जाने वाला पहला प्रश्न नहीं होना चाहिए। इसके विपरीत, पहला प्रश्न यह होना चाहिए, “लेखक क्या संचार करना चाहता था?” इस प्रश्न को छोड़ देने से मिथ्याबोध उत्पन्न हो सकती हैं और पाठ का त्रुटिपूर्ण उपयोग हो सकता है। इस लेख में नीचे कुछ मूलभूत व्याख्याशास्त्रीय अवधारणाएँ दी गई हैं जो पवित्रशास्त्र के स्थल में लेखक के आशयित अर्थ को खोजने में सहायता करेगी।
ऐतिहासिक-व्याकरणिक विधि
ऐतिहासिक रूप से, कई शास्त्रसम्मत मसीहियों में, जिनमें धर्मसुधारवादी परम्परा के लोग भी सम्मिलित हैं, पवित्रशास्त्र में लेखक के अभिप्राय को समझने के लिए ऐतिहासिक-व्याकरणिक पद्धति का उपयोग किया है। इस पद्धति की जड़ें व्याख्या के प्राचीन एंटिओकीन (Antiochene) विद्यालय से जुड़ी हैं, 16वीं शताब्दी के धर्मसुधार आन्दोलन के समय में इसका भारी उपयोग किया गया था, और आज भी कलीसिया में इसका व्यापक उपयोग जारी है। यह ऐतिहासिक सन्दर्भ और बाइबलीय स्थल के व्याकरणिक रूपों पर ध्यान केन्द्रित करता है।
ऐतिहासिक सन्दर्भ के सम्बन्ध में, पाठक को स्वयं से कुछ प्रश्न पूछने चाहिए जैसे: लेखक कौन है? मूल श्रोता कौन थे? क्या स्थल में किसी सांस्कृतिक संकेत के लिए आगे की जाँच की आवश्यकता है? व्याकरणिक रूपों पर ध्यान देने में शब्दों के अर्थ का अध्ययन करना, वाक्यात्मक सम्बन्धों को समझना और स्थल के साहित्यिक निर्माण को समझना इसमें निहित है। इन विषयों का अध्ययन करने से व्याख्याकार को न केवल एक विशिष्ट खण्ड को समझने में सहायता मिलेगी, परन्तु यह भी पूछने पर बाध्य करेगा कि वह खण्ड प्रासंगिक रूप से उसके पहले या बाद में आने वाले विषयों से कैसे सम्बन्धित है। स्थल को उसकी उचित ऐतिहासिक और व्याकरणिक समायोजन में देखने के महत्व को सारांशित करने के लिए, कोई सम्भवतः यह कह सकता है कि बाइबल की व्याख्या करते समय स्मरण रखने योग्य तीन सबसे महत्वपूर्ण शब्द हैं: सन्दर्भ, सन्दर्भ, सन्दर्भ।
ऐतिहासिक-व्याकरणिक पद्धति पवित्रशास्त्र को उसके शाब्दिक अर्थ के अनुसार व्याख्या करने पर बल देती है। यह भाषा तब तक उपयोगी है जब तक हम समझते हैं कि “शाब्दिक” का अर्थ स्थल की साहित्यिक प्रकृति का महत्व घटाना नहीं है। क्योंकि पवित्रशास्त्र साहित्य है, इसमें प्रायः अलंकार, प्रतीकवाद, रूपक और अन्य साहित्यिक उपकरण उपयोग किए जाते हैं। पवित्रशास्त्र की उसके शाब्दिक अर्थ के अनुसार व्याख्या करने का अर्थ है इन साधनों को सही ढंग से समझना और स्थल की साहित्यिक शैली के सामान्य नियमों के अनुसार उन्हें समझना। इसलिए, जब पवित्रशास्त्र कविता या नबूवत के स्थलों में प्रतीकवाद का उपयोग करता है, तो हमें इसकी प्रतीकात्मक व्याख्या करनी चाहिए, अन्यथा हम लेखक के आशयित अर्थ के प्रति निरादर भाव अपना रहे हैं।
विश्वास की सादृश्यता
क्योंकि बाइबल में एक ईश्वरीय लेखक के साथ-साथ मानवीय लेखक भी सम्मिलित हैं, इसलिए ईश्वरीय लेखक की मनसा पर भी विचार किया जाना चाहिए। इसके प्रकाश में, एक मूलभूत व्याख्यात्मक सिद्धान्त विश्वास की सादृश्यता, या विश्वास का नियम है, जो कहता है कि पवित्रशास्त्र को स्वयं पवित्रशास्त्र की व्याख्या करनी देनी चाहिए। वेस्टमिंस्टर का विश्वास अंगीकार (Westminster Confession of Faith) के अध्याय 1 में बताया गया है, “पवित्रशास्त्र की व्याख्या का अचूक नियम स्वयं पवित्रशास्त्र है: और इसलिए, जब किसी भी खण्ड के सच्चे और पूर्ण अर्थ के विषय में कोई प्रश्न उठे (जो कई सारे नहीं है, वरन् एक है), तो इसे बाइबल में ही अन्य स्थानों पर खोजा और जाना जाना चाहिए जो अधिक स्पष्ट रूप से बोलते हैं” (1.9)।
इस बात की पुष्टि करने के साथ-साथ कि पवित्रशास्त्र का केवल एक अर्थ है (शाब्दिक अर्थ, जैसा कि ऊपर परिभाषित किया गया है), यह अंगीकार मानती है, जैसा कि बाइबल स्वयं 2 पतरस 3:16 में करती है, कि पवित्रशास्त्र में कुछ स्थानों को दूसरों की तुलना में समझना अधिक कठिन है। क्योंकि परमेश्वर स्वयं का खण्डन नहीं करता, न ही उसके वचन में विरोधाभास होता है। इसलिए, जब पवित्रशास्त्र में ऐसे स्थान होते हैं जिन्हें समझना कठिन होता है, तो उनकी व्याख्या करते समय पवित्रशास्त्र के स्पष्ट अंशों को देखना आवश्यक होता है।
सभी धर्मग्रंथों में मसीह निहित हैं
पवित्रशास्त्र के ईश्वरीय लेखकत्व का दूसरा व्याख्यात्मक निहितार्थ यह है कि यद्यपि ईश्वरीय लेखक का उद्देश्य कभी भी मानवीय लेखक के उद्देश्य के साथ संघर्ष में नहीं होता है, यह मानवीय लेखक की पूर्ण समझ से परे विस्तारित हो सकता है। इस प्रकार, जब वेस्टमिंस्टर का अंगीकार “पवित्रशास्त्र की सच्ची और पूर्ण भावना” के विषय में बात करता है, तो यह मानता है कि परमेश्वर का बाद का प्रकाशन उसके पहले के प्रकाशन पर प्रकाश डालता है।
लूका का सुसमाचार इस वास्तविकता की पुष्टि करता है जब यह इम्माऊस के मार्ग पर दो शिष्यों के साथ पुनर्जीवित यीशु की भेंट को प्रस्तुत करता है। लूका कहता है कि “उसने मूसा से प्रारम्भ करके सब नबियों और समस्त पवित्रशास्त्र में से अपने सम्बन्ध की बातों का अर्थ उन्हें समझा दिया” (लूका 24:27)। कुछ पद के पश्चात्, जब वह शेष ग्यारह प्रेरितों के सामने प्रकट हुआ, तो यीशु ने पवित्रशास्त्र को समझने के लिए उनकी बुद्धि को खोल दिया, जिसमें “उन सब बातों का जो मूसा की व्यवस्था में, नबियों तथा भजनों की पुस्तक में, मेरे विषय में लिखी गई थीं पूरा होना अनिवार्य है” निहित थीं (लूका 24:44)। इब्रानी बाइबिल के तीन भागों में विभाजन का यह स्पष्ट सन्दर्भ इंगित करता है कि यीशु दावा कर रहा है की कैसे पुराने नियम के पवित्रशास्त्र का हर भाग उसकी साक्षी देती हैं। जवाबदेह प्रारूपवाद (प्रकारों और प्रतीकों का अध्ययन और व्याख्या) के माध्यम से, विशेष रूप से उन विषयों और शैली का पता लगाकर, जिन्हें ईश्वरीय लेखक ने अपने पूरे वचन में बुना है, हम देख सकते हैं कि बाइबल में सभी मार्ग कैसे यीशु की ओर जाते हैं।
यह लेख मूलतः लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ ब्लॉग में प्रकाशित किया गया।