भविष्य का आनन्द - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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भविष्य का आनन्द

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का छठवां अध्याय है: आनन्द

थिस्सलुनीके शहर में मसीहियों को लिखते समय, प्रेरित पौलुस उन्हें निर्देश देता है, “सर्वदा आनन्दित रहो, निरन्तर प्रार्थना करो, प्रत्येक परिस्थिति में धन्यवाद दो, क्योंकि ख्रीष्ट यीशु में तुम्हारे लिए परमेश्वर की यही इच्छा है” (1 थिस्सलुनीकियों 5:16-18)। ये शब्द निर्देश हैं एक ऐसी कलीसिया के लिए जो कुछ ही समय पहले पौलुस के द्वारा स्थापित किया गया था, जिसमें ऐसे लोग थे जिन्होंने यूनानी-रोमी मूर्तिपूजा को छोड़कर यीशु ख्रीष्ट को ग्रहण किया था। सभी परिस्थितियों में आनन्दित होना, प्रार्थना करना और धन्यवाद देने को इन नए मसीहियों के जीवन को चिन्हित करना चाहिए उन लोगों के द्वारा कठोर विरोध का सामना करते हुए जो नहीं समझते हैं कि लोग दूर पलस्तीन के एक ऐसे यहूदी रब्बी की आराधनना क्यों करेंगे जिसने परमेश्वर का पुत्र होना का दावा किया परन्तु जिसे रोमियों के द्वारा मार डाला गया।

कठिन परिस्थितियों में मसीहियों को आनन्दित होने की आज्ञा देना सन्दर्भ के बिना समझना कठिन है। हम समझ सकते हैं कि क्यों विरोध का सामना कर रहे लोगों को प्रार्थना करने की आवश्यकता होगी—उन्हें अपने परिक्षाओं के समय बने रहने के लिए परमेश्वर के अनुग्रह हेतु प्रार्थना करना चाहिए। हम समझ सकते हैं कि क्यों उन्हें परमेश्वर की दया के लिए सर्वदा धन्यवाद देना चाहिए जिसे वे निरन्तर प्राप्त करते रहते हैं। परन्तु परमेश्वर के लोगों को क्यों परीक्षा और सताव के समय में अवश्य ही आनन्दित होना चाहिए?

यीशु के विषय में पौलुस की शिक्षा प्रेरित को यूनानी स्टोइकवाद के आलोचक के रूप में प्रकट करती है, एक ऐसा जीवन का दर्शनशास्त्र जिसने लोगों को प्रकृति के निश्चित नियमों के अनुसार दृढ़ता से जीना सिखाया। फिर भी, पहले अवसर में, परिक्षाओं के मध्य आनन्दित होने के लिए पौलुस की आज्ञा कुछ ऐसी प्रतीत होती है जैसे यूनानी लोग एक स्टोइकवाद दर्शनशास्त्री से अपेक्षा कर सकते थे। पौलुस यह आज्ञा क्यों देता है यदि वह स्वयं एक स्टोइकवादी नहीं है? 

इसका उत्तर भविष्य और प्रत्येक मसीही को प्रतिज्ञा की गई आशा की ओर देखने से प्राप्त होता है, जो कि कष्ट सहने वालों के लिए कठिन परिस्थितियों में आनन्दित रहने की आज्ञा के सन्दर्भ में है। रोमियों 12:9-21 में, पौलुस एक सच्चे मसीही के चिन्हों को सम्बोंधित कर रहा है— उन लोगों के जीवन में नए धार्मिक प्रेम की अभिव्यक्ति, जिन्हें यीशु में विश्वास के द्वारा धर्मी ठहराया गया है, जो पवित्र आत्मा के चलाए चलते हैं, और जो अपने उद्धारकर्ता के स्वरूप में बनते जा रहे हैं। मुख्य अभिव्यक्ति यीशु के लिए और उसके द्वारा छुड़ाए गए लोगों के लिए प्रेम है (पद 9)। ऐसा प्रेम बुराई से घृणा करते हुए भलाई की ओर अग्रसर होता है। इसे देखा जा सकता है भाईचारे के स्नेह और सम्मान में (पद 10), साथ ही साथ प्रभु की सेवा में उत्साह और सच्चाई में ( पद 11)। 

पद 12 में, पौलुस हमें परीक्षा के समय आनन्दित होने का सन्दर्भ देता है: “आशा में आनन्दित रहो।” अब यह स्पष्ट हो गया है कि क्यों मसीहियों को परीक्षाओं, कष्टों और सताव के मध्य आनन्दित होने के लिए आज्ञा दी गई है। भविष्य की ओर देखते हुए, मसीही जानते हैं कि उनकी परीक्षाएं, चाहे कितनी भी कठिन हों, अस्थाई हैं, और जब सब कुछ कहा और किया जाता है, तो परमेश्वर प्रत्येक वर्तमान परीक्षा को हमारे अनन्त भलाई के लिए परिवर्तित कर देता है (रोमियों 8:28)। वास्तविक आनन्द व्यक्तिगत मनोभाव या भावनाओं पर आधारित नहीं है (“मैं आनन्दित अनुभव करता हूँ”), न ही भविष्य को वीरता से सामना करने के लिए दृढ़ संकल्प में है। इसके स्थान पर, यह इस तथ्य पर आधारित है कि क्रूस पर चढ़ाया गया उद्धारकर्ता, जो हमारे पापों के लिए मर गया ताकि परमेश्वर के क्रोध को दूर किया जा सके, शारीरिक रूप से मृतकों में से जी भी उठा और अपने सभी प्रतिज्ञाओं को पूरा करते हुए पुनः आएगा।

मसीही परीक्षा और कष्ट के समय में भी आनन्दित होते हैं क्योंकि ऐसा करना यीशु के उद्धार के कार्य का अनुसरण करना है, जो पहले दुख उठाकर मर गया, और उसके बाद ही मृतकों में से जी उठा और पिता के दाहिने हाथ पर विराजमान हुआ, जहाँ से सब बातों पर राज्य करता है। यीशु द्वारा स्थापित प्रणाली— महिमा से पहले दुख— उन सभी लोगों के लिए सत्य है जो उस पर भरोसा करते हैं और पवित्र आत्मा द्वारा उसमें एक हैं। जिस प्रकार यीशु ने दुख उठाया और जी उठा, उसी प्रकार हमसे भी प्रतिज्ञा किया गया है। हमारे कष्ट, परीक्षा, और सताव उन सभी आशीषों का मार्ग प्रशस्त करेंगे जिनके लिए यीशु ने हमसे प्रतिज्ञा की है—भविष्य की आशा जिसके विषय में पौलुस प्रायः बात करता है (देखें 1 कुरिन्थियों 15:19; 1 थिस्सलुनीकियों 5:8; 2 थिस्सलुनीकियों 2:16-17)।

परीक्षा के समय में आनन्दित होना कोई अर्थहीन धार्मिक विधि नहीं है जिसमें हम इस बात पर ध्यान केन्द्रित करते हैं कि हम कैसा अनुभव करते हैं या जिसमें हम साहसी बनने का संकल्प लेते है। इसके स्थान पर, हम यीशु द्वारा उसके जीवन, मृत्यु और पुनरुत्थान में निर्धारित उदाहरण का अनुसरण कर रहे हैं। दुख और परीक्षाएं हमारे देह के पुनरुत्थान, भविष्य की महिमा और अनन्त जीवन का मार्ग प्रशस्त करते हैं। पौलुस इस बिन्दु को पहले रोमियों के पुस्तक में स्पष्ट करता है:

और न केवल यह, परन्तु स्वयं हम भी जिनके पास आत्मा का प्रथम फल है, अपने आप में कराहते हैं और अपने लेपालक पुत्र होने और देह के छुटकारे की बड़ी उत्कण्ठा से प्रतीक्षा कर रहे हैं। क्योंकि आशा में हमारा उद्धार हुआ है, परन्तु आशा जो दिखाई देती है, आशा नहीं; क्योंकि जो किसी वस्तु को देखता है वह उसकी आशा क्यों करेगा? यदि हम उसकी आशा करते हैं जिसे नहीं देखते तो धीरज से उत्सुकतापूर्वक उसकी प्रतीक्षा करते हैं। (रोमियों 8:23-25)

मसीही अपने कष्टों के मध्य में ख्रीष्ट के कारण आनन्दित हो सकते हैं, जिसने हमें भय से छुड़ाया है और अब उन सभी के लिए भविष्य के आनन्द की निश्चयता देता है जिन्हें वह छुड़ाता है। 

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया।
किम रिडलबर्गर
किम रिडलबर्गर
डॉ. किम रिडलबर्गर अनाहाइम, कैलिफ़ोर्निया में क्राइस्ट रिफॉर्म्ड चर्च के वरिष्ठ पास्टर और व्हाइट हॉर्स इन रेडियो कार्यक्रम के सह आयोजक हैं। वह लेक्टियो कॉन्टिनुआ ( Lectio Continua) श्रृंखला में सहस्त्रवर्षीयहीनवाद का पक्ष (A Case for Amillennialism) और पहला कुरिन्थियों (First Corinthians) के लेखक हैं।