ईश्वरीय आकांक्षा का स्थान - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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ईश्वरीय आकांक्षा का स्थान

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का चौवथा अध्याय है: सिद्धतावाद एवं नियंत्रण

“ये पहाड़ी क्षेत्र मुझे दे.. और मैं उन्हें निकाल भगाऊंगा।” ये छियासी वर्षीय कालेब के शब्द हैं, जिनका वर्णन यहोशू की पुस्तक में पाया जाता है, जब इस्राएली भूमि पर चढ़ गए और अपने शत्रुओं से लड़ने के लिए तैयार हो रहे थे (यहोशू 14:12)। कालेब के सामने बाधाओं और उनके द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले संकटों के प्रकाश में, कोई भी उसे महत्वाकांशी से कम कुछ भी नहीं समझेगा।

परन्तु कालेब की आकांक्षाएं अच्छी थी या बुरी? बहुत बार आकांक्षा  शब्द धनी और लालची निवेश करने वाले बैंक कर्मचारी की नकारात्मक छवियों को उत्पन्न करता है जो स्वार्थी लालच सही ठहराते हैं। या, आप इस शब्द को किसी को किसी ऐसे प्रेरणादायक चित्र पर छपा हुआ पा सकते हैं जिसमें एक पर्वतारोही पहाड़ पर चढ़ाई करने का प्रयास कर रहै है। परन्तु कौन सा सही है? क्या आकांक्षा रखना बुरा है, या क्या हमें इसे स्वयं में और अपने बच्चों में विकसित करना चाहिए? क्या बाइबल आकांक्षा को बढ़ावा देती है?

जब हम बाइबल में आकांक्षा  शब्द की खोज करते हैं—विभिन्न अनुवादों को देखते हुए— हम इस शब्द को विभिन्न स्थलों में कई यूनानी शब्दों से अनुवाद किए हुए देखते हैं। आकांक्षा  शब्द सकारात्मक और नकारात्मक दोनों सन्दर्भों में उपयोग किया जाता है। नकारात्मक रूप से, याकूब उन लोगों की निन्दा करता है जो “कटु ईर्ष्या और स्वार्थी आकांक्षा” रखते हैं (याकूब 3:14)। सकारात्मक रूप से, पौलुस “सुसमाचार प्रचार करने इसे [अपनी] आकांक्षा बनाता है” (रोमियों 15:20)। स्पष्ट रूप से, बाइबल अच्छी और बुरी दोनों आकांक्षाओं का वर्णन करती है। हम इन दोनों में अन्तर कैसे जान सकते हैं? 

आइए स्वयं को स्मरण दिलाएं कि आकांक्षा क्या है। शब्दकोश परिभाषा केवल एक विशेष लक्ष्य प्राप्त करने की इच्छा है। परन्तु यह परिभाषा सम्भवतः बहुत ही दुर्बल है—इसे प्रतिदिन के जीवन के निर्णयों में लागू किया जा सकता है जिन्हें आकांक्षी होना नहीं माना जाएगा। इसलिए, मैं आकांक्षा की निम्नलिखित परिभाषा का सुझाव देता हूँ: एक दृढ़ इच्छा जो एक विशेष लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बाधाओं को दूर करने की इच्छा की ओर ले जाती है। यहाँ पर विचार करने के लिए दो महत्वपूर्ण अवलोकन हैं। पहला, “इच्छा” और “लक्ष्य” का सम्बन्ध है।  दूसरा, ध्यान दें कि परिभाषा में “बाधाओं पर विजय पाने” और “प्राप्त करने” शब्द भी निहित हैं, यह सुक्षाव देते हुए कि कुछ स्तर तक प्रयास की आवश्यकता होगी और इसका अर्थ है कि ऐसा करने के लिए उपयोग किया जाएगा। आइए इनमें से प्रत्येक अवलोकन पर अधिक विस्तार से विचार करें। 

इच्छाएं और लक्ष्य
हम सभी की इच्छाएं होती हैं: मन और शरीर की इच्छाएँ। इच्छा रखना एक प्राणी होने का एक पहलू है, मन और शरीर होने का एक उपज है। समस्या यह है कि पाप इस सम्बन्ध को कई प्रकार से विकृत करता है। सबसे पहले, पाप का परिणाम त्रुटिपूर्वक लक्ष्यों (वासना, भोग-विलास, कामुकता) के लिए इच्छाए हैं। अर्थात, हमारा पापी स्वभाव हमारे विचार को इस प्रकार विकृत कर देता है कि हम उन लक्ष्यों को पूरा करना चाहते हैं जो परमेश्वर को प्रसन्न नहीं करते हैं (याकूब 4:1-3)।

दूसरा, पाप इच्छा और लक्ष्य के सम्बन्ध के अनुपात को विकृत करता है, जिससे हमें सही लक्ष्यों के लिए त्रुटिपूर्वक इच्छा की मात्रा रखते हैं (सर्वोत्तम बातों के लिए निर्बल इच्छा, साधारण या तुच्छ बातों के लिए दृढ़ इच्छा)। मत्ती 23:23 में यीशु के द्वारा फरीसियों को कहे गए वचनों को स्मरण करें:

हे पाखण्डी, शास्त्रियों-फरीसियों, तुम पर हाय! तुम पोदीने, सौंफ और जीरे का दसवां अंश तो देते हो, परन्तु व्यवस्था की गंभीर बातों अर्थात न्याय, दया और विश्वास की उपेक्षा करते हो, परन्तु चाहिए था कि इन बातों को करते हुए अन्य बातों की भी उपेक्षा न करते।

इस प्रकार, पवित्रशास्त्र से हमें अनेकों बार अवश्य स्मरण दिलाया जाना चाहिए कि हम अपने मन को नया बनाने के लिए ताकि हम उन बातों को महत्व दें जिन्हें परमेश्वर महत्व देता है और उन बातों से घृणा करें जिनसे परमेश्वर घृणा करता है। हमें अपने मनों को (और इसी प्रकार अपनी भावनाओं) उन बातों से प्रेम करने के लिए अनुशासित करना चाहिए जिनसे परमेश्वर प्रेम करता है। ध्यान दें, रोमियों 12:2: “इस संसार के अनुरूप न बनो, परन्तु अपने मन के नए हो जाने से तुम परिवर्तित हो जाओ कि परमेश्वर की भली ग्रहणयोग्य और सिद्ध इच्छा को तुम अनुभव से मालूम करते रहो”; और भजन 37:4: “यहोवा में मग्न रह, और वह तेरे मनोरथों को पूरा करेगा।”

साधन
आकांक्षा की परिभाषा का दूसरा भाग अभिलाषित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए साधनों का उपयोग करना है। पाप हमें लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए परमेश्वर द्वारा प्रकट साधनों को विकृत करने की ओर ले जाता है; हम उन्हें प्राप्त करने के लिए प्रायः पापपूर्ण पद्धतियों का उपयोग करेंगे। परन्तु उपयोग किए गए साधनों को भी परमेश्वर के वचन के अनुसार होने चाहिए। पवित्रशास्त्र ऐसे आदेशों और सिद्धांतों से भरा हुआ है जो हमें साधनों के उपयोग में मार्गदर्शन करते हैं, जो हमें बताते हैं कि क्या उचित है और क्या नहीं। यद्यपि इच्छा अच्छी है और हमारे उद्देश्य परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं, फिर भी हमें उस इच्छा को पूरा करने के लिए अनुचित साधनों को उपयोग नहीं करना चाहिए। हम एक बच्चा उत्पन्न करने की इच्छा कर सकते हैं, और यह परमेश्वर को प्रसन्न करेगा, परन्तु इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किसी के बच्चे को अपहरण करने के साधन के रूप में उपयोग करना पाप होगा।

ईश्वरीय आकांक्षा के लिए निहितार्थ
इसलिए, आइए इन अवलोकनों को एक साथ रखें और आकांक्षा पर बाइबल आधारित दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़े। पहला, हमें ईश्वरीय आकांक्षाएं रखनी चाहिए। पौलुस स्वयं को आकांक्षी के रूप में वर्णन करता है, और निश्चित रूप से, हमारा प्रभु आकांक्षी था (उपरोक्त अपनी परिभाषा का उपयोग करते हुए)  नबी, याजक, और राजा के रूप में अपनी बुलाहट को पूर्ण करने के विषय में। दूसरा, ईश्वरीय आकांक्षा के लिए ऐसी इच्छाओं की आवश्यकता होती है जो उचित रूप से धर्मी लक्ष्यों से सम्बन्धित हों। तीसरा, ईश्वरीय आकांक्षा उन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए धर्मी साधनों का उपयोग करती है। परन्तु हम ईश्वरीय आकांक्षा को कैसे विकसित करें?

अनुशासन, कर्तव्य, और इच्छा
सबसे पहले, हमें उन उपकरणों को पहचानना और लागू करना चाहिए जो परमेश्वर हमें देता है। 1 तीमुथियुस 4:7 में पौलुस लिखता है, “भक्ति के लिए अपने आप को अनुशासित कर।” हमें यह समझने की आवश्यकता है कि अनुशासन की भूमिका है प्रत्येक ख्रीष्टीय के जीवन में आलस पर विजय पाने के लिए तथा धार्मिकता में बढ़ने के लिए कार्य करने के लिए।

दूसरा, कर्तव्य है। कर्तत्व  शब्द का वर्णन करने पर कई ख्रीष्टीय घबराने लगते हैं। परन्तु कर्तव्य को लक्ष्य के साधन के रूप में समझा जाना चाहिए। कर्तव्य अनुशासित आज्ञाकारिता है जिसका उद्देश्य है उस वस्तु के प्रति प्रेम विकसित करना जिसके लिए अभ्यास किया जाता है। कर्तव्य उन बातों में आनन्द का अभ्यास करना है जिसमें परमेश्वर आनन्दित होता है जब तक वह वास्तविक आनन्द का अनुभव नहीं होता है। मैंने और मेरी पत्नी ने अपने बच्चों को घर के दैनिक कार्यों को सौंपे हैं, और वे प्रायः उन्हें करने से पीछे हटते हैं, परन्तु हमारा लक्ष्य उन्हें व्यवस्था और कार्य के प्रति प्रेम विकसित करने में सहायता करना है ताकि उनके लिए कर्तव्य द्वितीय बन जाए। अनुशासन और कर्तव्य आनन्द के लिए मार्ग हैं। 

ख्रीष्टिय पहचान और आकांक्षा
ईश्‍वरीय आकांक्षा में बढ़ने का एक और मार्ग है कि ख्रीष्टीय अपनी पहचान, स्थान और अपने उद्देश्य को समझें।

स्थान के सम्बन्ध में, प्रत्येक ख्रीष्टीय को परमेश्वर के राज्य में अपनी नागरिकता के स्वभाव की स्पष्ट, बाइबलीय समझ होनी चाहिए। यह समझना कि हम सृष्टिकर्ता के सन्तान हैं और उसके साथ वाचा में हैं यह समझने के लिए आधारभूत है कि हम कौन है। राज्य की प्राथमिकताओं और अन्तिम न्याय पर विचार करना हमें ईश्वरीय आकांक्षा को बनाने में सहायता करेंगी।

यह समझने के साथ-साथ कि हम कौन  है (स्थान), हमें यह जानने की आवश्यकता है कि हम क्यों  (उद्देश्य) हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में ही, परमेश्वर आदम और हव्वा को बताता है कि उन्हें क्या करना है—हम इसे सृष्टि का आदेश कहते हैं (उत्पत्ति 1:28)। हमें फूलने और फलने के लिए बुलाया गया है। दुख की बात है कि कई लोगों ने, जो ख्रीष्ट का अंगीकार करते हैं, विवाह करने और बच्चे उत्पन्न करने के उत्तरदायित्व को कम कर दिया है। आधुनिक संस्कृति में, दोनों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आनन्द के लिए कठिन और अनुत्पादक माना जाता है। परन्तु उस रेलगाड़ी के समान जो पटरियों से स्वतंत्र होना चाहती है, वैसे ही वे भी हैं जो अपने स्व-नियुक्त गन्तव्य को उन सृष्टि में निहित उद्धेश्यों के विपरीत पूरा करना चाहते हैं जिसके लिए परमेश्वर ने मनुष्य की सृष्टि की थी। ख्रीष्टियों के रूप में, हमें इस प्रचलन का विरोध करना चाहिए और हमें विवाह को परमेश्वर के द्वारा दिए गए दान के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए। जब तक हमारे पास सेवकाई के लिए अविवाहित होने के लिए दुर्लभ, विशिष्ट बुलाहट नहीं है, हमें विवाहित होने, बच्चे उत्पन्न करने और भक्तिपूर्ण परिवारों को बढ़ाने के लिए महत्वाकांक्षी होना चाहिए।

पृथ्वी पर अधिकार रखने का आदेश व्यवसाय, या बुलाहट के विषय को सम्बोधित करता है। क्या आप अपने जीविका के साधन को किसी रीति से उस आदेश के भाग के रूप में देखते हैं? यदि यह वैध कार्य है तो आपको करना चाहिए। और जब अपने कार्य को परमेश्वर की योजना, उसके बड़े विचार को  एक भाग के रूप में देखते हैं, तो उसको अच्छी रीति से करने, सफल होने की आपकी आकांक्षा को बढ़नी चाहिए।

उपरोक्त आदेश परिवार और नागरिक क्षेत्र से सम्बन्धित हैं। परन्तु परमेश्वर ने हमें कलीसिया में भी रखा है। ऐसा करने के द्वारा, वह हमारे लिए उस भूमिका को भी निर्धारित करता है जो हमें भाइयों और बहनों के रूप में अपनी बुलाहट में करना है। परमेश्वर प्रत्येक विश्वासी को आत्मिक वरदान देता है (रोमियों 12; 1 कुरिन्थियों 12; इफिसियों 4; 1 पतरस 4) जिसके द्वारा हम एक दूसरे की सेवा करते हैं। हमें संसार में जाने और सुसमाचार का प्रचार करने (मरकुस 16:15) और “सब जातियों को चेला बनाने” (मत्ती 28:19) का आदेश भी दिया गया है। दोनों बल दिए गए बातें— कलीसिया में आन्तरिक सेवकाई और संसार में बाहरी उद्घोषणा— भक्तिपूर्ण ख्रीष्टिय आकांक्षा और जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं।

पौलुस ने 2 कुरिन्थियों 5:9 में लिखा, “इसलिए हमारी अभिलाषा है, चाहे साथ रहें या अलग रहें हम उसे प्रिय लगते रहें।” यह हमारे साथ भी सच हो।

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया।
रेव्ह. डैन डॉड्स
रेव्ह. डैन डॉड्स
रेव्ह. डैन डॉड्स साऊथ कैरोलिना के सिम्पसनविल में वुड्रफ रोड प्रेस्बिटेरियन चर्च में पास्टरीय देखभाल और परामर्श के लिए सहयोगी पास्टर हैं।