करने वाले, केवल सुनने वाले नहीं
22 जून 2021नियंत्रण से बाहर और नियंत्रण में
25 जून 2021पवित्रशास्त्र का अध्ययन और ईश्वरविज्ञान करना
सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का दूसरा अध्याय है: ईश्वरविज्ञान करना
यह कहा गया है कि हर कोई ईश्वरविज्ञानी है। पर क्या हर ख्रीष्टीय अच्छा ईश्वरविज्ञानी हो सकता है? बाइबलीय उत्तर बलपूर्वक हाँ हैं।
पवित्रशास्त्र के आधार पर अच्छे ईश्वरविज्ञान का निर्माण करना न केवल सम्भव है—यह हर ख्रीष्टीय की बुलाहट और सौभाग्य है, क्योंकि जिस परमेश्वर को हम जानना चाहेंगे, उसने पहले स्वयं के विषय में हमसे बोला है। सृष्टि के द्वारा स्वयं को प्रकट करने के अतिरिक्त (भजन 19:1-6; रोमियों 1:20), परमेश्वर ने “नबियों के द्वारा . . . बार बार तथा अनेक प्रकार से . . ., इन अन्तिम दिनों में उसने हमसे अपने पुत्र के द्वारा बातें की हैं” (इब्रानियों 1:1-2)। परमेश्वर के द्वारा यह स्वयं-प्रकटीकरण पवित्रशास्त्र में हमारे लिए अभिलिखित हैं। तब, हाथ में बाइबल के साथ, हम जानते हैं कि यशायाह के माध्यम से परमेश्वर के वचन आज लागू होते हैं: “मेरे निकट आकर इस बात को सुनो: आदि से लेकर अब तक मैंने कोई बात गुप्त में नहीं कही” (यशायाह 48:16)। भाषा के सृष्टिकर्ता और सबसे पहले वक्ता के रूप में (उत्पत्ति 1:3), परमेश्वर सर्वोत्कृष्ट रीति से सक्षम है स्वयं को उन पर ज्ञात कराने के लिए जिनको उसने अपने स्वरूप में बनाया (26-27 पद)। कुछ भी उसके संचार के उद्देश्यों को विफल नहीं कर सकता है।
सही से विचार किया जाए तो, ईश्वरविज्ञान (theology) शब्द (जो यूनानी लोगोस, या “वचन,” को थिओस, या “परमेश्वर” के साथ जोड़कर बनता है) हमें स्मरण दिलाता है कि यदि हम “ईश्वरविज्ञान कर” पाते हैं, यह इसलिए है क्योंकि ईश्वरविज्ञान—अर्थात, परमेश्वर के विषय में वचन या ज्ञान—हमें पहले परमेश्वर द्वारा दिया गया है। यहाँ तक कि जब विचार किया जाता है कैसे पवित्रशास्त्र से ईश्वरविज्ञान का निर्माण करे, तो, हमें अवश्य उन बातों पर विश्वास करना चाहिए जिन्हें परमेश्वर ने बाइबल में कहा है, क्योंकि सभी सच्चा ईश्वरविज्ञान परमेश्वर के मुख के समक्ष (कोरम डीओ ) किया जाता है, जिसमें हम “जीवित रहते और चलते-फिरते और अस्तित्व रखते हैं” (प्रेरितों के काम 17:28)।
पवित्रशास्त्र का ईश्वरविज्ञान
इसलिए, पवित्रशास्त्र से ईश्वरविज्ञान करना, इस मान्यता के साथ प्रारम्भ होता है कि पवित्रशास्त्र परमेश्वर-प्रदत्त नींव है और सभी ईश्वरविज्ञान के लिए एकमात्र अचूक स्रोत है। सम्पूर्ण पवित्रशास्त्र हैं “परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है” (2 तीमुथियुस 3:16) और “एकमात्र नियम जो हमें निर्देश देता है कि हम कैसे उसको महिमा दें और उसका आनन्द उठाएं” (वेस्टमिन्स्टर लघु प्रश्नोत्तरी 2) बना रहता है। बाइबल परमेश्वर का व्यक्तिगत सम्बोधन है उसकी संतानो के लिए। इसके अतिरिक्त, परमेश्वर का लिखित वचन देहधारी वचन यीशु ख्रीष्ट से व्युत्पन्न होता है, जिसने इसे दिया। प्रेरित पतरस शिक्षा देता है कि बाइबल के मानव लेखक “पवित्र आत्मा की प्रेरणा द्वारा परमेश्वर की ओर से बोलते थे।” (2 पतरस 1:21)। परन्तु कहीं और, पतरस हमें बताता है कि यह बुदबुदाहट, आत्मा की प्रेरणा “उनमें ख्रीष्ट के आत्मा” से कुछ कम नहीं था (1 पतरस 1:11)। इस समझ से, पवित्रशास्त्र यीशु ख्रीष्ट का पत्र है उसकी कलीसिया के लिए (देखें प्रकाशितवाक्य 2-3; 22:16)। और जैसा वह, अब मरे हुए में से जी उठकर, अपने समस्त लोगों को जीवन देता है (यूहन्ना 5:21), वैसे ही उसका वचन “जीवित और प्रबल, किसी भी दोधारी तलवार से तेज़” (इब्रानियों 4:12) बना रहता है। सम्पूर्ण पवित्रशास्त्र, प्रत्येक “मात्रा और बिन्दु,” परमेश्वर का त्रुटिहीन वचन हैं, और, उसके जैसा, यह “बना रहता है” (यशायाह 40:8; 1 पतरस 1:25)।
दुःख पूर्वक, अनगिनत स्वयं-वर्णित ईश्वरविज्ञानी इस कथन को कि “बाइबल परमेश्वर का वचन हैं” प्रतिस्थापित कर देते है ऐसे शब्दों के साथ जो सुनने में मिलता जुलता है, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है: “बाइबल प्रकाशन के मानवीय अनुभवों का संग्रह है,” वह कहते हैं, “किन्तु बाइबल, स्वयं परमेश्वर का प्रकाशन नहीं हैं,” या अधिक सूक्ष्म रूप से, “बाइबल यीशु मसीह को परमेश्वर के प्रकाशन के रूप में संकेत करती हैं, बाइबल, स्वयं परमेश्वर का प्रकाशन नहीं हैं,” यहाँ तक कभी-कभी संकुचित रूप में “बाइबल परमेश्वर के वचन की साक्षी देती है।” त्रासदी है, जो लोग ऐसे सूत्रीकरण को मानते हैं, वे परमेश्वर की ओर से सच्चे ज्ञान के स्रोत के रूप में पवित्रशास्त्र से भटक जाते हैं और परिवर्तित होने वाले विचार और उच्च-ध्वनि वाले वाक्यांशों से अधिक कलीसिया को कुछ और प्रस्तुत नहीं करते हैं। उन सभी के विरुद्ध, भजनकार प्रभु के लिए गाता है, “मैं अपने सब शिक्षकों से अधिक समझ रखता हूँ, क्योंकि मेरा ध्यान तेरी चेतावनियों पर लगा रहता है” (भजन 119:99)।
पवित्रशास्त्र से ईश्वरविज्ञान करना
ऐसा कहने के बाद, ख्रीष्टियों को कैसे पवित्रशास्त्र से अपना ईश्वरविज्ञान विकसित करना चाहिए? उत्तर पाया जाता है उसमें जिसे प्रार्थना पूर्ण, धैर्यवान बाइबल के विद्यार्थियों ने स्वाभाविक रूप से शताब्दियों से किया है, अर्थात, न केवल सावधानी से विशेष खण्डों के अर्थ के तत्कालिक सन्दर्भ में ध्यान देते हुए, किन्तु सम्पूर्ण पवित्रशास्त्र से अन्य खण्डों के साथ प्राकृतिक सम्बन्धों को भी देखते हुए। दूसरे शब्दों में, पवित्रशास्त्र से ईश्वरविज्ञान करने का अर्थ है मसीह-केन्द्रित सच्चाइयों के विभिन्न कड़ियों को एक साथ बुनना जो बाइबल हमारे लिए स्वाभाविक रूप प्रकट करती है। क्योंकि सम्पूर्ण पवित्रशास्त्र परमेश्वर से हैं, जो स्वयं सत्य है (व्यवस्थाविवरण 32:4; यूहन्ना 3:33), पवित्रशास्त्र कभी भी स्वयं का खण्डन नहीं करता है। इसके अतिरिक्त, पवित्रशास्त्र की एकता माँग करती है कि हम किसी भी पद के लिए सम्पूर्ण पवित्रशास्त्र को उसके बड़े सन्दर्भ के रूप में देखें। इसलिए, पवित्रशास्त्र से ईश्वरविज्ञान करना इस प्रश्न पर केन्द्रित है, सम्पूर्ण बाइबल क्या कहती है परमेश्वर के विषय में, मनुष्यों के विषय में, पाप के विषय में, ख्रीष्ट के विषय में, कलीसिया के विषय में, स्वर्ग के विषय में, या परमेश्वर के वचन से सम्बन्धित कोई अन्य प्रासंगिक विषय के विषय में? पवित्रशास्त्र की असीम गहराई न केवल हमारी अगुवाई करता हैं, कि हम अन्वेषण करें कि पवित्रशास्त्र स्पष्ट रूप से क्या कहता है, परन्तु उन अनेक सत्यों को देखने के लिए भी जो पवित्रशास्त्र से “भले और आवश्यक परिणाम” के रूप में निकाले जा सकते हैं (वेस्टमिंस्टर विश्वास का अंगीकार 1.6)— जैसे त्रिएकता का सिद्धान्त। जब हम बाइबल का इस रीति से अध्ययन करते हैं, हम और अधिक गहराई परमेश्वर के प्रकाशन के विविध बुद्धि में प्रवेश करते है (देखें इफिसियों 3:20)।
प्रार्थना के जैसे जो इसके लिए ईंधन प्रदान करती है, पवित्रशास्त्रों के विधिवत अध्ययन के लिए आत्मा द्वारा लाए गए धीरज और दृढ़ता की आवश्यकता है। जब हम ऐसी बातों के सामने आते हैं जो “समझने में कठिन हैं” (2 पतरस 3:16), हम ईश्वरभक्त शिक्षकों से, टीकाओं से, और बाइबल पर कलीसिया के भूतकाल के मनन से सहायता ले सकते हैं। क्योंकि, वे भी, हमारे लिए ख्रीष्ट के उपहार हैं (इफिसियों 4:11-14)। पर जबकि ऐसे संसाधन हमें पवित्रशास्त्र पढ़ने में सहायता करते हैं, हमारा अन्तिम अधिकार उस पवित्रशास्त्र में होकर आत्मा का बोलना होना चाहिए जिसे उसने प्रेरित किया। इसलिए, बाइबल से ईश्वरविज्ञान का निर्माण करते हुए, यह अच्छा है कि हम व्याख्या के मुख्य सिद्धांत को स्मरण रखें जिसे प्रोटेस्टेन्ट धर्मसुधारकों ने (पवित्रशास्त्र के सादृश्य कहा) और वाग्मिता से वेस्टमिंस्टर विश्वास के अंगीकार में व्यक्त किया: “पवित्रशास्त्र की व्याख्या का अचूक नियम स्वयं पवित्रशास्त्र है; और इसलिए, जब किसी पवित्रशास्त्र की सही और पूर्ण समझ के विषय (जो विविध नहीं हैं, परन्तु एक है) में कोई प्रश्न हो, तो उसे अन्य स्थानों से जो अधिक स्पष्ट रूप से बोलते हैं ढूँढा जाना और समझा जाना चाहिए” (वेस्टमिंस्टर विश्वास के अंगीकार 9:1)। जैसे व्यक्ति उस छिपे हुए धन के लिए खोदता रहता है क्योंकि वह जानता है वह वहाँ है, वे जो विश्वासयोग्यता से वचन का अध्ययन करते हैं एकमात्र सच्चे परमेश्वर और उसके द्वारा भेजे गए उद्धारकर्ता की एक समृद्ध समझ प्राप्त करते हैं (यूहन्ना 17:3), जैसे-जैसे प्रभु यीशु उनको रूपान्तरित करता है उनको और अधिक उसके जैसा होने के लिए (2 कुरिन्थियों 3:18)।
जैसा परमेश्वर का प्रेमपूर्ण रीति है, जो वह हमसे अपेक्षा रखता है वह प्रसन्न होता हैं हमारे अन्दर उसे कार्यान्वित करने में (फिलिप्पियों 2:12-13)। इस प्रकार परमेश्वर, स्वयं, पवित्रशास्त्र के अध्ययन में हमारी सहायता करने के लिए आता है। यीशु ने अपने प्रेरितों से प्रतिज्ञा की कि “सत्य का आत्मा” उनको सभी सत्य में मार्गदर्शन करेगा (यूहन्ना 16:13)। कितना अद्भुत है कि वही आत्मा जिसने पवित्रशास्त्र को प्रेरित किया ख्रीष्टियों में वास करता है और पुराने और नए नियम के हमारे अध्ययन को सशक्त बनाता है “कि हम उन बातों को जान सकें जिन्हें परमेश्वर ने हमें सेंतमेंत दिया है” (1 कुरिन्थियों 2:12)। ईश्वरीय अनुग्रह से, पवित्रशास्त्र का गम्भीर जिज्ञासु, आत्मा की अगुवाई के लिए उत्सुक, उन सभी रीतियों का पूरा लाभ उठाने वाला जन जिससे परमेश्वर कलीसिया को अशीषित करता है— जिसमें सम्मिलित है साप्ताहिक वचन का प्रचार सुनना, ख्रीष्टिय संगति, और प्रार्थना— उसके वचन को समझेगा और बहुत फल लाएगा (मत्ती 13:23; मरकुस 4:20)।
अपने ईश्वरविज्ञान को पवित्रशास्त्र के पास लाना
यह खतरा सदा बना रहता है कि हम अनजाने में पवित्रशास्त्र में अपने अबाइबलीय पूर्वाग्रहों को पढ़ सकते हैं। कभी-कभी हम स्वनिष्ठ अर्थनिरूपण (eisegesis) करते हैं, उन बातों को स्थल “में” पढ़ते हुए (यूनानी में आइस ) जो उसमें नहीं है, अर्थ-निरूपण (exegesis) के विपरीत, जो सत्य को स्थल से “बाहर निकलता” (एक्स यूनानी में) है। परन्तु जैसे परमेश्वर ने ख्रीष्ट के द्वारा हमारे पापों पर जय प्राप्त की (रोमियों 5:15-17), वैसे ही उसका वचन उन दोषपूर्ण धारणाओं को उजाकर करने या सही करने में सक्षम है जिन्हें हम लेकर आते है। तो, व्यावहारिक रूप से, हमें यह ढोंग नहीं करना चाहिए कि विभिन्न धारणाएं पवित्रशास्त्र के हमारे पढ़ने पर प्रभाव नहीं डालते हैं। इसके विपरीत, हमें अपनी धारणाओं को सावधानीपूर्वक पवित्रशास्त्र को पढ़ने के द्वारा बनाने में परिश्रम करना चाहिए। वास्तव में, किसी स्थल के पास एक अध्ययन किया हुआ, बाइबल पर आधारित, ईश्वरविज्ञानीय रूपरेखा को लाना हमें यह पहचानने में सक्षम बनाता है जब पवित्रशास्त्र का कोई खण्ड हमारी पूर्व मान्यताओं के साथ “सही” मेल नहीं खाता है, और यह हमें प्रेरित करेगा अपनी सोच को पवित्रशास्त्र के साथ बेहतर रीति से संरेखित करने में। इसका परिणाम एक प्रकार का “व्याख्याशास्त्रीय चक्राकार” है, उस ईश्वरविज्ञानीय दृष्टिकोण का एक निरंतर परीक्षण और मूल्यांकन जिसे हमने पवित्रशास्त्र को पढ़ने के द्वारा विकसित किया है, जिसके द्वारा हमारा ईश्वरविज्ञानीय दृष्टिकोण निरन्तर सुधरता रहता है।
उदाहरण के लिए, एक नए ख्रीष्टीय ने सीखा होगा कि यीशु पाप को दूर करने के लिए मर गया (1 यूहन्ना 3:5)। यह ज्ञान, जितना भी सीमित हो, एक ढांचा बन जाता है जिसके माध्यम से वह पुराने नियम में वर्णित यहूदी बलिदानों के विषय में पढ़ता है। अचानक, इब्रानियों 10:4 पढ़ने पर (“क्योंकि यह असम्भव है कि बैलों और बकरों का लहू पापों को दूर करे”), एक नया ईश्वरविज्ञानीय अन्तर्दृष्टि विकसित होता है: इस्राएल में बलिदानों ने ख्रीष्ट के आने की ओर संकेत किया, जो हमारे पाप के लिए एकमात्र प्रभावी बलिदान है (इब्रानियों 7:27; 9:26)। इस प्रकार ख्रीष्टीय का पवित्रशास्त्र का ज्ञान बढ़ता है, और जल्द ही, यूहन्ना 1:29 में यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला कि घोषणा (“देखो, परमेश्वर का मेमना जो जगत का पाप उठा ले जाता है!”) पृष्ठ पर है एक नयी प्रतिभा के साथ चमक उठती।
पवित्रशास्त्र से ईश्वरविज्ञान का फल
यदि सच्चा ईश्वरविज्ञान उस महिमामय परमेश्वर के विषय में है जिसने हमें बाइबल दी है, तो ईश्वरविज्ञान करना सभी बाइबल पढ़ने का उचित लक्ष्य है। परन्तु परमेश्वर का प्रकाशन हमारे पास आया है इससे भी उच्च उद्देश्य के लिए, अर्थात, ताकि हम परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से ख्रीष्ट में जान सकें और उसकी आराधना संगति के बंधन में कर सकें। कृतज्ञतापूर्वक, परमेश्वर ने इन दो लक्ष्यों को सम्प्रभुता उद्देश्य में एक साथ मिला दिया है। जैसे हम उसमें प्रस्तुत ईश्वरविज्ञान के लिए बाइबल को पढ़ते हैं, हमारा अध्ययन सच्ची आराधना को बढ़ावा देगा। और परमेश्वर ने जिसको एक साथ जोड़ दिया है, उसे कोई भी अलग न करे।