ईश्वरविज्ञान और प्रतिदिन का जीवन - लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़
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ईश्वरविज्ञान और प्रतिदिन का जीवन

सम्पादक की टिप्पणी: यह टेबलटॉक पत्रिका श्रंखला का पांचवां अध्याय है: वर्तमान सर्वदा के लिए महत्व रखता है

प्यूरिटन विलियम पर्किन्स ने प्रसिद्ध रूप से ईश्वरविज्ञान को “सदैव के लिए धन्य जीवन जीने का विज्ञान” के रूप में परिभाषित किया है। उनके समकालीन विलियम एम्स ने ईश्वरविज्ञान को “परमेश्वर के लिए जीने का विज्ञान” कहकर पर्किन्स का अनुकरण किया। क्योंकि परमेश्वर के लिए जीना प्रत्येक मसीही का कर्तव्य और आनन्द है, प्रत्येक मसीही को ईश्वरविज्ञानी होना चाहिए—एक अच्छा ईश्वरविज्ञानी । ईश्वरविज्ञान और प्रतिदिन के जीवन के मध्य के सम्बन्ध को स्पष्ट रूप से पौलुस के निम्नलिखित तीन उदाहरणों में देखा जा सकता है।

पहला, फिलिप्पी में। फिलिप्पी की कलीसिया में दो नामित स्त्रियाँ सार्वजनिक विवाद में हैं, और पौलुस को लगता है कि उसे इसे सम्बोधित करना चाहिए (फिलिप्पियों 4:2)। केवल मूर्ख लोग ही अति कठिन स्थितियों का समाधान करने के लिए आगे बढ़ते हैं। सम्भवतः, परन्तु पौलुस एक प्रेरित है, और कलीसिया की अच्छी प्रतिष्ठा और साक्षी दाँव पर है, और इस विषय को ऐसे ही नहीं अनदेखा किया जा सकता है।

वह क्या करता है? जितना वृहद धर्मविज्ञान वह एकत्रित कर सकता था उसे लाता है: परमेश्वर के सनातन पुत्र का देहधारण। यीशु, जिसने “परमेश्वर के स्वरूप में होते हुए भी परमेश्वर के समान होने को अपने अधिकार में रखने की वस्तु न समझा” —सम्भवतः, इस अर्थ में, कि उसने अपने ईश्वरत्व को इस प्रकार से नहीं समझा जो कि उसके देहधारण की दीनता को न कहे (फिलिप्पियों 2:6)। यद्यपि यीशु  “परमेश्वर से परमेश्वर, ज्योति से ज्योति, सच्चे परमेश्वर से सच्चा परमेश्वर, सनातन से उत्पन्न है, रचा नहीं गया; पिता के साथ एक ही अस्तित्व है”, जैसा कि 325 ईसवी में लिखा गया नीकिया का विश्वास वचन बताता है, “उसने एक दास का रूप धारण करने के द्वारा, स्वयं को शून्य कर दिया” (पद 7)। यह शब्द “शून्य” ईश्वरविज्ञान जोखिम से इतना भरा हुआ है कि कई अनुवाद इसके शाब्दिक अनुवाद को बताने से संकोच करने लगे हैं, और इसके स्थान पर शिष्टभाषा का प्रयोग करते हैं (उदाहरण, “स्वयं को बिना प्रतिष्ठा का बना लिया”)। यह विवादास्पद खण्ड पूर्ण रूप से ध्यान देने योग्य है, परन्तु बिन्दु को रेखांकित किए जाने की आवश्यकता है। पौलुस चाहता है कि फिलिप्पियों के लोग (और आप और मैं) ख्रीष्ट की मानसिकता  को प्रदर्शित करें: “तुम में से प्रत्येक अपना ही नहीं, परन्तु दूसरों के हित का भी ध्यान रखें। अपने में वही स्वभाव रखो जो ख्रीष्ट यीशु में था” (पद 4-5)। देहधारण के विशाल सिद्धान्त नम्रता प्रदर्शित करने के हित में कार्य में लगा है; “सत्य जो भक्ति के अनुसार है” (तीतुस 1:1)।

दूसरा, कुरिन्थुस में। पौलुस यरूशलेम में दुख ऊठाने वाली कलीसिया के प्रति परोपकार के प्रदर्शन की इच्छा रखता है, एक ऐसा विषय जिसने प्रेरितों को कुछ समय के लिए व्यस्त रखा (2 कुरिन्थियों 8-9)। उदारता से देने के प्रति प्रोत्साहित करने के लिए वह किस प्रेरणा को उपयोग में ला सकता था? अन्य बातों के मध्य, ऐसा देना उनके विश्वास की “सच्चाई” को प्रमाणित करेगा (8:8, 24)। एक समय पर वह ऐसा करता है जो कि उनके अभिमान  के लिए लगभग आग्रह के समान प्रतीत होता है: कुरिन्थुस के लोग नहीं चाहते थे कि उत्तर की कलीसियाओं उनसे अधिक दें (9:1-5)। परन्तु उसका मुख्य तर्क ईश्वरविज्ञानी है: “क्योंकि तुम हमारे प्रभु यीशु मसीह के अनुग्रह को जानते हो, कि धनी होते हुए भी, वह तुम्हारे लिए निर्धन बन गया कि तुम उसकी निर्धनता के द्वारा धनी बन जाओ” (8:9)। एक बार पुनः, व्यावहारिक विषय के लिए देहधारण उपयोग किया गया।

तीसरा, रोम में। सुसमाचार की प्रकृति और आकार को रेखांकित करने वाले ग्याराह अध्यायों को लिखने के पश्चात्, पौलुस व्यावहारिक ईश्वरभक्ति की रूप को स्पष्ट करता है: तुम (रोम कलीसिया में मसीही) “मन के नय हो जाने” के द्वारा परिवर्तित हो जाओगे (रोमियों 12:1-2)। रोमियों के लिए घोषणापत्र जो कि पौलुस का पत्र है उसका उद्देश्य व्यावहारिक ईश्वरभक्ति है: भातृ-प्रेम का प्रदर्शन करना (पद 9-10), स्वयं को आलस से बचाना (पद 11), परीक्षा में स्थिरता का प्रदर्शन करना (पद 12), पहुनाई के कार्य के द्वारा पवित्र लोगों की आवश्यकताओं में योगदान देना (पद 13), स्वयं की महत्ता के प्रदर्शन के द्वारा अहंकार से बचना (पद 16), आदरयोग्य कार्य करना (पद 17), अपने पड़ोसी के साथ यथासम्भव शान्तिपूर्वक रहना (पद 18); अपने शत्रु को भोजन कराना (पद 19-20), और प्रतिशोध-रहित व्यवहार के द्वारा बुराई के कार्यों पर प्रत्युत्तर देना (पद 21)। यह इससे अधिक व्यावहारिक नहीं हो सकता।

परन्तु पौलुस मात्र उस बुद्धि का उपयोग कर रहा है जो उसने अपने उद्धारकर्ता में देखी थी। ईश्वरविज्ञान कितना व्यावहारिक है? पहाड़ी उपदेश पर विचार करें, यीशु के प्रतिदिन के जीवन का वृहद् शिक्षा। पवित्रता के विषय में यीशु का दृष्टिकोण शारीरिक है। पवित्रीकरण केवल हमारे मस्तिष्कों में ही नहीं परन्तु हमारे शरीरों में भी होता है। यीशु आँखों और हाथों, पैरों और होंठों के विषय में बात करता है। बिन्दु यह है कि हम अपने शरीरों का उपयोग या तो पाप करने के लिए या फिर पवित्रता व्यक्त करने के लिए करते हैं। वासना की बात करें तो, उदाहरण के लिए, यीशु का सुझाव है कि पाप के कार्य में उपयोग करने के स्थान पर हमें अपनी दाहिनी आँख और/या दाहिना हाथ निकाल फेंकना या काट देना चाहिए (मत्ती 5:27-30‌)।

क्या आपको चिन्ता की समस्याएँ हैं? क्या आप प्रतिदिन के प्रयोजन के विषय में इस प्रकार से चिन्तित रहते हैं जो कि आपके स्वर्गीय पिता पर विश्वास की कमी को बताता है? तब उन पक्षियों पर ध्यान दें जो आपके बगीचे में प्रतिदिन उड़ते हैं। वे स्वस्थ और शक्तिशाली दिखते हैं। परमेश्वर उनकी देखभाल करता है। और आप उसके लिए अधिक मूल्यवान हैं (मत्ती 6:25-34)। क्या आप इस प्रकार से आलोचनात्मक हैं जो कि दूसरों में पाप देख कर प्रसन्न होता है और उसे बड़ा-चढ़ा कर कहता है? अपने आप से कहिए, “परमेश्वर के अनुग्रह के बिना मैं भी उसी के समान कर सकता हूँ“ (देखें 7:1–6)। लोगों के साथ सम्मान के साथ व्यवहार करें, उसी प्रकार से जैसा कि आप अन्य लोगों से चाहते हैं कि वह आपके साथ व्यवहार करें। इस स्वर्णिम नियम के अनुसार जीएँ (पद 12)।

मार्गदर्शन के विषय को लें। यीशु ने प्रतिज्ञा की: “माँगो तो तुम्हें दिया जाएगा, ढूँढ़ो तो तुम पाओगे, खटखटाओ तो तुम्हारे लिए खोला जाएगा। क्योंकि प्रत्येक जो माँगता है उसे मिलता है, और जो ढूँढ़ता है वह पाता है, और जो खटखटाता है उसके लिए खोला जाएगा” (पद 8)। जैसा कि तेईसवाँ भजन प्रतिज्ञा करता है, “वह पास ले जाता है” (पद 2)। यह क्रिया बताती है कि हमारा स्वर्गीय पिता, हमारा चरवाहा-राजा, हमें वह बुद्धि और समझदारी प्रदान करेगा जिसकी हमें आवश्यकता है सही निर्णय लेने के लिए, इस जीवन में ऐसे चलने के लिए जिससे उसे महिमा मिले। हमारा पिता हमसे प्रेम करता है और वह हमसे प्रेम करने में विराम नहीं लगाने वाला। उसकी वाचा सुनिश्चित करती है कि उसके शब्द उसकी प्रतिज्ञा है। परन्तु वह हमें “धार्मिकता के मार्गों” में ले जाता है (पद 3) न कि अधार्मिकता के भ्रष्ट पथों पर। वह हमें कभी भी अनुचित कार्यों या पाप की ओर नहीं ले जाएगा। वे सब उसके वचन को न सुनने, बुद्धि के प्रार्थना न करने, या उन चुनावों के समक्ष झुक जाने के द्वारा आते हैं जो सर्वोत्तम से कम हैं।

स्पष्टता और प्रयोजन

ईश्वरविज्ञान कितना व्यावहारिक हो सकता है? दो सिद्धान्तों पर विचार करें: स्पष्टता और प्रयोजन।

स्पष्टता  एक ईश्वरविज्ञानी शब्द है जो व्यक्त करता है कि “सामान्य” मसीही स्वयं से पवित्रशात्र पढ़ सकते हैं, और सही साधनों (उपदेश, बाइबल अध्ययन सहायता, परामर्शदाता, टिप्पणियाँ, और टेबलटॉक  पत्रिका भी) के उपयोग के द्वारा वे उन बातों की “पर्याप्त” (किन्तु आवश्यक नहीं है कि व्यापक) समझ तक पहुँच सकते हैं “जिन्हें उद्धार के लिए जानना आवश्यक है” (वेस्टमिन्सटर विश्वास का अंगीकार 1:7)। निस्सन्देहः ही, यह बिन्दु मध्यकालीन कलीसिया में वाद-विवाद का कारण था जब बाइबल विस्तृत रूप से अनुपलब्ध थी, एक ऐसी भाषा में जकड़ी हुई थी जिसे केवल पादरी वर्ग समझ पाता था, और जिसका उपयोग जन समूह को पोप या कलीसिया के अधिकार के प्रतिबन्ध में बाँध कर रखने के लिए एक चाल के रूप में किया जाता था। पवित्रशास्त्र की स्पष्टता का सिद्धान्त हमें बाइबल से प्रेम करने, उसे बार-बार और अच्छे से पढ़ने, और इसके उपदेशों को दृश्यमान, वास्तविक कार्यों में लगाने के हमारे अभ्यास में विकसित होने के लिए प्रोत्साहित करता है। यह ऐसा सिद्धान्त है जो हमें बिरिया के उन सज्जन विश्वासियों के समान बनने की शिक्षा देता है, जिनका वर्णन लूका ने उन लोगों के रूप में किया है जिन्होंने “बड़ी उत्सुकता से वचन को ग्रहण किया और प्रतिदिन पवित्रशास्त्रों में से खोज-बीन करते रहे कि देखें ये बातें ऐसी ही हैं या नहीं” (प्रेरितों के कार्य 17:11)।

प्रयोजन  क्या है? यह पवित्रशास्त्र में प्रयुक्त शब्द नहीं है, परन्तु यह एक आधारभूत मसीही सत्य है। वेस्टमिन्स्टर अंगीकार इसे इस प्रकार परिभाषित करता है:

परमेश्वर, सभी वस्तुओं का महान रचयिता सभी प्राणियों, कार्यों, और वस्तुओं को सम्भाले रखता, निर्देशित करता, व्यवस्थित करता और शासित करता है, महानतम से न्यूनतम तक, अपने सबसे अधिक बुद्धिमान और पवित्र प्रावधान के द्वारा, अपने अचूक पूर्वज्ञान, और अपनी स्वयं की इच्छा की स्वतन्त्र और अपरिवर्तनीय सम्मति के अनुसार, उसकी बुद्धि, सामर्थ्य, न्याय, भलाई, और दया की प्रशंसा और महिमा के लिए (WCF 5.1)।

प्रयोजन पर अंगीकार का अध्याय कुछ कठिन विषयों को छूता है(उदाहरण के लिए, इतिहास के परमेश्वर के नियन्त्रण की प्रकृति और स्वतन्त्र अभिकरण और बुराई से इसका सम्बन्ध), परन्तु इसका आधारभूत बल यह सुनिश्चित करने पर है कि ऐसा कुछ भी  परमेश्वर की इच्छा के बिना नहीं होता है। सब कुछ के होने से पहले ही उसके होने की रीति परमेश्वर की इच्छा द्वारा निर्धारित होती है।

संक्षेप में, प्रयोजन की यह परिभाषा रोमियों 8:28 में पौलुस के कथन की एक अभिव्यक्ति है: “और हम जानते हैं कि जो लोग परमेश्वर से प्रेम रखते हैं उनके लिए वह सब बातों के द्वारा भलाई को उत्पन्न करता है, अर्थात् उन्हीं के लिए जो उसके अभिप्राय के अनुसार बुलाए गए हैं।” एक माँ के लिए जिसने अपनी सन्तान को खोया हो, एक बहन जिसे एक घातक ट्यूमर के विषय में पता चला हो, कॉलेज का एक स्नातक जो अपने प्रथम नौकरी के साक्षात्कार में असफल हो गया हो, और हज़ारों अन्य परिदृश्यों में लोगों के लिए, परमेश्वर का प्रयोजन एक स्मरण के रूप में कार्य करता है कि जब कि हमारे पास सभी उत्तर नहीं हैं, परमेश्वर के पास हैं। और जब सब कहा और कर लिया जाएगा, तो वास्तव में वही है जो महत्वपूर्ण है। यह एक ऐसा सिद्धान्त है जो अपने साथ जीवन के आँधियों के मध्य में बहुतायत में ठहराव और स्थिरता लाता है। यह इससे अधिक व्यावहारिक नहीं हो सकता। हम सब कुछ अर्थ में ईश्वरविज्ञानी हैं। वास्तविक प्रश्न यह है, क्या हम अच्छे ईश्वरविज्ञानी हैं? क्या हम अपने जीवन के हर पहलू में परमेश्वर के विषय में उसकी महिमा के लिए अपने ज्ञान का उपयोग कर रहे हैं?

यह लेख मूलतः टेबलटॉक पत्रिका में प्रकाशित किया गया
डेरेक थॉमस
डेरेक थॉमस
डा. डेरेक डब्ल्यू, एच थॉमस कोलंबिया. एस. सी में फर्स्ट प्रेस्बिटेरियन चर्च के वरिष्ठ पास्टर हैं, और रिफॉर्म्ड थियोलॉजिकल सेमिनरी में विधिवत ईश्वरविज्ञान और पास्टरीय ईश्वरविज्ञान के चान्सलर्स प्रोफेसर हैं। वे लिग्निएर मिनिस्ट्रीज़ के सह शिक्षक हैं और हाउ द् गॉस्पल ब्रिंग्स अस ऑल द वेय होम सहित कई अन्य पुस्तकों के लेखक हैं।